बुधवार, 15 मार्च 2023
रहेगा हो के जो किसी का नाम होना था ...
न चाहते हुए भी इतना काम होना था.
वो खुद
को आब ही समझ रहा था पर उसको,
पता
नहीं था आदमी को ज़िन्दगी में कभी,
नसीब
खुल के अपना खेल खेलता हो जब,
ये
फ़लसफ़ा है न्याय-तंत्र का समझ लोगे,
ये दिन
ये रात वक़्त के अधीन होते हैं,
मिटा सको तो कर के देख लो हर इक कोशिश,
शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023
जो लिखा है ख़त में उस पैगाम की बातें करो ...
फिर किसी मासूम पे इलज़ाम की बातें करो.
क़त्ल हो चाहे न हो पर नाम की बातें करो.
वक़्त ज़ाया मत करो जो चंद घड़ियाँ हैं मिली,
मौज मस्ती हो गयी तो काम की बातें करो.
कुर्सियों के खेल का मौसम किनारे है खड़ा,
राम की बातें हैं तो इस्लाम की बातें करो.
एक ही चेहरे में दो किरदार होते हैं कभी,
ज़िक्र राधा का जो आए श्याम की बातें करो.
रास्ता लम्बा है ग़र तो मंज़िलों पर हो नज़र,
मिल गई मंज़िल तो फिर आराम की बातें करो.
ये न सोचो क्या लिखा है, कब लिखा है, क्यों लिखा,
जो लिखा है ख़त में उस पैगाम की बातें करो.
शनिवार, 14 जनवरी 2023
झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है ...
तुझे अब इश्क़ में ही ज़िन्दगी मालूम होती है.
दिगम्बर ये तो पहली ख़ुदकुशी मालूम होती है.
कोई प्यासा भरी बोतल से क्यों नज़रें चुराएगा,
निगाहों में किसी के आशिक़ी मालूम होती है.
उन्हें छू कर हवा आई, के ख़ुद उठ कर चले आए,
कहीं ख़ुशबू मुझे पुरकैफ़ सी मालूम होती है.
हँसी गुल से लदे गुलशन में क्यों तितली नहीं
जाती,
कहीं झाड़ी में तीखी सी छुरी
मालूम होती है.
कई धक्के लगाने पर भी टस-से-मस नहीं होती,
रुकी, अटकी हमें ये ज़िन्दगी मालूम होती है.
न जुगनू, दीप, आले, तुम भी लगता है नहीं गुज़रीं,
कई सड़कों पे अब तक तीरग़ी मालूम होती है.
सफ़ेदी बाल में, चेहरे पे उतरी झुर्रियाँ लेकिन,
झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है.
शनिवार, 7 जनवरी 2023
मैं इसे सिर्फ लगी कहता हूँ ...
यूँ न बोलो के नही कहता हूँ.
हूबहू जैसे सुनी कहता हूँ.
कान रख देता हूँ हवाओं पर,
फिर जो सुनता हूँ वही कहता हूँ.
तेरे आने को कहा दिन मैंने,
रात को दिन न कभी कहता हूँ.
मेरा किरदार खुला दर्पण है,
कम भले हो में सही कहता हूँ.
हादसे दिन के इकट्ठे कर-कर,
मैं ग़ज़ल रोज़ नई कहता हूँ.
कब से रहते हैं वहाँ कुछ दुश्मन,
पर उसे तेरी गली कहता हूँ.
दिल्लगी तुमको ये लगती होगी,
मैं इसे सिर्फ़ लगी कहता हूँ.
शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021
दो-चार बात कर के जो तेरा नहीं हुआ ...
यूँ तो तमाम रात अँधेरा नहीं हुआ.
फिर क्या हुआ के आज सवेरा नहीं हुआ.
धड़कन किसी का नाम सजा देगी खुद-ब-खुद,
दिल पर किसी का नाम उकेरा नहीं हुआ.
हर हद करी है पार फ़कत जिसके नाम पर,
बस वो निगाहें यार ही मेरा नहीं हुआ.
मिल कर सभी से देख लिया ज़िन्दगी में अब,
है कौन जिसको इश्क़ ने घेरा नहीं हुआ.
लाली किसी के इश्क़ की उतरी है गाल पर,
चेहरे पे बस गुलाल बिखेरा नहीं हुआ.
उनको न ढब, समझ,
न सलीका, न कुछ शऊर,
दो-चार बात कर के जो तेरा नहीं हुआ.
शनिवार, 18 दिसंबर 2021
हो न तलवार तो हम ढाल में ढाले जाते ...
अनसुनी कर के जो हम वक़्त
को टाले जाते.
घर से जाते न तो चुपचाप
निकाले जाते.
ये तो बस आपने पहचान लिया
था वरना,
दर्द तो दूर न ये पाँव के
छाले जाते.
शुक्र है वक़्त पे बरसात ने
रख ली इज़्ज़त,
देर तक अश्क़ न पलकों में
सम्भाले जाते.
मौंके पर डँसना जो मंज़ूर न
होता उनको,
आस्तीनों में कभी सांप न
पाले जाते.
चंद यादें जो परेशान किया
करती हैं,
बस में होता जो हमारे तो उठा
ले जाते.
आईना बन के हक़ीक़त न
दिखाते सब को,
हम भी बदनाम रिसालों में उछाले
जाते.
हमको हर सच की तरफ़ डट के
खड़ा रहना था,
हो न तलवार तो हम ढाल में
ढाले जाते.
मंगलवार, 7 दिसंबर 2021
लगता है अपने आप के हम भी नहीं रहे ...
ईमान, धर्म, कौल, भरोसा, यकीं रहे.
मेरे भी दिल में, तेरे भी दिल में कहीं रहे.
हर-सू हो
पुर-सुकून, महकती हो रह-गुज़र,
चादर हो आसमां की
बिस्तर ज़मीं रहे.
गम हो के
धूप-छाँव, पशेमान ज़िन्दगी,
होठों पे
मुस्कुराहटें दिल में नमीं रहे.
चिंगारियाँ
सुलगने लगी हैं दबी-दबी,
कह दो हवा से आज
जहाँ है वहीँ रहे.
रिश्तों की आढ़ ले
के किसी को न बाँधना,
दिल में तमाम
उम्र रहे, वो कहीं रहे.
परवरदिगार हमको
अता कर सलाहियत,
सर पर तेरे यकीन
की चादर तनीं रहे.
एक-एक कर के छीन
लिया मुझसे सब मेरा,
लगता है अपने आप
के हम भी नहीं रहे.
गुरुवार, 25 नवंबर 2021
कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं
कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं.
हम अपनी ज़िन्दगी में यूँ सभी से उलझे हैं.
नदी है जेब में पर तिश्नगी से उलझे हैं,
अजीब लोग हैं जो खुदकशी से उलझे हैं.
नहीं जो प्रेम, पतंगों की
ख़ुद-कुशी कह लो,
समझते-बूझते जो रौशनी से उलझे हैं.
तरक्कियों के शिखर झुक गए मेरी खातिर,
मगर ये दीद गुलाबी कली से उलझे हैं.
जो अपने सच से भी नज़रें चुरा रहे अब तक,
किसी के झूठ में वो ज़िन्दगी से उलझे हैं.
सुनो ये रात हमें दिन में काटनी होगी,
अँधेरे देर से उस रौशनी से उलझे हैं.
किसी से नज़रें मिली, झट से प्रेम, फिर शादी,
ज़ईफ़ लोग अभी कुण्डली से उलझे हैं.
निगाह में तो न आते सुकून से रहते,
गजल कही है तो उस्ताद जी से उलझे हैं.
मंगलवार, 9 नवंबर 2021
यूँ पाँव पाँव चल के तो जाए न जाएँगे ...
खुल कर तो आस्तीन
में पाए न जाएँगे.
इलज़ाम दोस्तों पे
लगाए न जाएँगे.
सदियों से
पीढ़ियों ने जो बाँधी हैं बेड़ियाँ,
इस दिल पे उनके
बोझ उठाए न जाएँगे.
अब मौत ही करे तो
करे फैंसला कोई,
खुद चल के इस
जहान से जाए न जाएँगे.
अच्छा है डायरी
में सफों की कमी नहीं,
वरना तो इतने राज़
छुपाए न जाएँगे.
सुलगे हैं वक़्त
की जो रगड़ खा के मुद्दतों,
फूकों से वो चराग़
बुझाए न जाएँगे.
अब वक़्त कुछ हिसाब
करे तो मिले सुकूँ,
दिल से तो इतने
घाव मिटाए न जाएँगे.
इतनी पिलाओगे जो
नज़र की ये शोखियाँ,
यूँ पाँव पाँव चल
के तो जाए न जाएँगे.
बुधवार, 27 अक्तूबर 2021
शेर बोली पर हैं मिसरे बेचता हूँ ...
टोपियें, हथियार, झण्डे बेचता हूँ.
चौंक पे हर बार झगड़े बेचता हूँ.
इस तरफ हो उस तरफ ... की फर्क यारा,
हर किसी को मैं तमंचे बेचता हूँ.
सच खबर ... अफवाह झूठी ... या मसाला,
थोक में हरबार ख़बरें बेचता हूँ.
चाँदनी पे वर्क चाँदी का चढ़ा कर,
एक सौदागर हूँ सपने बेचता हूँ.
पक्ष वाले ... सुन विपक्षी ... तू भी ले जा,
आइनों के साथ मुखड़े बेचता हूँ.
खींच कर बारूद की सीमा ज़मीं पर,
खून से लथपथ में नक़्शे बेचता हूँ.
दी सिफत लिखने की पर फिर भूख क्यों दी,
शेर बोली पर हैं मिसरे बेचता हूँ.
शनिवार, 9 अक्तूबर 2021
चलो बूँदा-बाँदी को बरसात कर लें
कहीं दिन गुजारें, कहीं रात कर लें.
कभी खुद भी खुद से मुलाक़ात कर लें.
बुढ़ापा है यूँ भी तिरस्कार होगा,
चलो साथ बच्चों के उत्पात कर लें.
ज़रूरी नहीं है जुबानें समझना,
इशारों इशारों में कुछ बात कर लें.
मिले डूबते को बचाने का मौका,
कभी हम जो तिनके सी औकात कर लें.
न जज हम करें, न करें वो हमें जज,
भरोसा रहे ऐसे हालात कर लें.
ये बस दोस्ती में ही मुमकिन है यारों,
बिना सोचे समझे हर इक बात कर लें.
दिखाना मना है जो दुनिया को आँसू,
चलो बूँदा-बाँदी को बरसात कर लें.
शनिवार, 25 सितंबर 2021
माँ ...
9 साल ... वक़्त बहुत क्रूर होता है ... या ऐसा कहो
वक़्त व्यवहारिक होता है, प्रेक्टिकल होता है .... उसे
पता होता है की क्या हो सकता है, वो भावुक नहीं होता, अगले
ही पल पिछले पल को ऐसे भूल जाता है जैसे ज़िन्दगी इसी पल से शुरू हई हो ... हम भी
तो जी रहे हैं, रह रहे हैं माँ के बिना, जबकि सोच नहीं सके थे तब ... एक वो 25 सितम्बर और एक आज की 25 सितम्बर
... कहीं न कहीं से तुम ज़रूर देख रही हो माँ, मुझे पता है ...
कह के तो देख बात तेरी मान जाएगी
वो माँ है बिन कहे ही सभी जान जाएगी
क्या बात हो गयी है परेशान क्यों हूँ मैं
चेहरे का रंग देख के पहचान जाएगी
मुश्किल भले ही आयें हज़ारों ही राह में
हर बात अपने दिल में मगर ठान जाएगी
साए कभी जो रात के घिर-घिर के आएंगे
आँचल सुनहरी धूप का फिर तान जाएगी
खुद जो किया है उसका ज़िक्र भी नहीं किया
देखेगी पर शिखर पे तो कुरबान जाएगी
बुधवार, 15 सितंबर 2021
वक़्त ने करना है तय सबका सफ़र
उम्र तारी है दरो दीवार पर.
खाँसता रहता है बिस्तर रात भर.
जो मिला, मिल तो गया, बस खा लिया,
अब नहीं होती है हमसे न-नुकर.
सुन चहल-कदमी गुज़रती उम्र की,
वक़्त की कुछ मान कर अब तो सुधर.
रात के लम्हे गुज़रते ही नहीं,
दिन गुज़र जाता है खुद से बात कर.
सोचता कोई तो होगा, है वहम,
कौन करता है किसी की अब फिकर.
था खरीदा, बिक गया तो बिक गया,
क्यों इसे कहने लगे सब अपना घर.
मौत की चिंता जो कर लोगे तो क्या,
वक़्त ने करना है तय सबका सफ़र.
सोमवार, 30 अगस्त 2021
चेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू …
साहिल की भीगी रेत से लहरों की गुफ़्तगू.
सुन कर भी कौन सुनता है बहरों की गुफ़्तगू.
कुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
खेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू.
अब आफ़ताब का भी निकलना मुहाल है,
इन बादलों से हो गई कुहरों की गुफ़्तगू.
ख़ामोशियों के पास जमा रहती हैं सभी,
फ़ुर्कत के चंद लम्हों से पहरों की गुफ़्तगू.
जंगल ने कान में है कहा गाँव के यही,
कितनी जुदा है आज भी शहरों की गुफ़्तगू.
गुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
चेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.