धार के विपरीत जा कर देखिये
जिंदगी को आजमा कर देखिये
खिड़कियों से झांकती है रौशनी
रात के परदे उठा कर देखिये
आंधियाँ खुद मोड लेंगी रास्ता
एक दीपक तो जला कर देखिये
भीगना जो चाहते हो उम्र भर
प्रीत गागर में नहा कर देखिये
होंसला तो खुद ब खुद आ जायगा
सत्य को संबल बना कर देखिये
जख्म अपने आप ही भर जायंगें
खून के धब्बे मिटा कर देखिये
बाजुओं का दम अगर है तोलना
वक्त से पंजा लड़ा कर देखिये
दर्द मिट्टी का समझ आ जायगा
हाथ में सरसों उगा कर देखिये
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं ...
दुश्मन जब जब घर के अंदर आए हैं
बन कर मेरे दोस्त ही अक्सर आए हैं
तेरे दो आँसू से तन मन भीग गया
रस्ते में तो सात समुंदर आए हैं
गहरे सागर में कितने गोते मारे
अपने हाथों में तो पत्थर आए हैं
भेजे थे कुछ फूल उन्हे गुलदस्ते में
बदले में कुछ प्यासे खंज़र आए हैं
तेरे पहलू में जो हर दम रहते हैं
जाने क्या तकदीर लिखा कर आए हैं
बेच हवेली पुरखों की अब दिल्ली में
मुश्किल से इक कमरा ले कर आए हैं
आँखों आँखों में कुछ उनसे पूछा था
खामोशी में उनके उत्तर आए हैं
ये भी मेरा वो भी मेरा सब मेरा
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं
बन कर मेरे दोस्त ही अक्सर आए हैं
तेरे दो आँसू से तन मन भीग गया
रस्ते में तो सात समुंदर आए हैं
गहरे सागर में कितने गोते मारे
अपने हाथों में तो पत्थर आए हैं
भेजे थे कुछ फूल उन्हे गुलदस्ते में
बदले में कुछ प्यासे खंज़र आए हैं
तेरे पहलू में जो हर दम रहते हैं
जाने क्या तकदीर लिखा कर आए हैं
बेच हवेली पुरखों की अब दिल्ली में
मुश्किल से इक कमरा ले कर आए हैं
आँखों आँखों में कुछ उनसे पूछा था
खामोशी में उनके उत्तर आए हैं
ये भी मेरा वो भी मेरा सब मेरा
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं
बुधवार, 5 अक्तूबर 2011
गोया लुटने की तैयारी ...
मिट्टी का घर मेघ से यारी
गोया लुटने की तैयारी
जी भर के जी लो जीवन को
ना जाने कल किसकी बारी
सागर से गठजोड़ है उनका
कागज़ की है नाव उतारी
प्रजातंत्र का खेल है कैसा
कल था बन्दर आज मदारी
बुद्धीजीवी बोल रहा है
शब्द हैं कितने भारी भारी
धूप ने दाना डाल दिया है
साये निकले बारी बारी
रेगिस्तान में ठोर ठिकाना
ढूंढ रही है धूल बिचारी
जाते जाते रात ये बोली
देखो दिन की दुनियादारी
गोया लुटने की तैयारी
जी भर के जी लो जीवन को
ना जाने कल किसकी बारी
सागर से गठजोड़ है उनका
कागज़ की है नाव उतारी
प्रजातंत्र का खेल है कैसा
कल था बन्दर आज मदारी
बुद्धीजीवी बोल रहा है
शब्द हैं कितने भारी भारी
धूप ने दाना डाल दिया है
साये निकले बारी बारी
रेगिस्तान में ठोर ठिकाना
ढूंढ रही है धूल बिचारी
जाते जाते रात ये बोली
देखो दिन की दुनियादारी
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