अजीब सा भारीपन लिए ये
महीना भी बीत गया. इसी महीने पिछले साल माँ हमको छोड़ गई थी हालांकि दिन ओर रात तो आज
भी वैसे ही चल रहे हैं. जिस मंदिर में अक्सर माँ के साथ जाता था इस बार वहीं एक
कोने में उसकी फोटो भी थी. अजीब लगा माँ को फ्रेम की चारदीवारी में देख के इस बार
...
है तो बहुत कुछ जो लिख सकता
हूं, लिखना चाहता भी हूं ओर लिखूंगा भी ओर सच कहूं तो मैं ही क्यों, माँ के लिए तो
कोई भी संतान जितना चाहे लिख सकती है ... पर शायद एक ही विषय पे लगातार सभी मेरी
भावनाओं को पढ़ें, ये कुछ अधिक चाहना हो गया. अगली रचनाएं सबकी रुचि-अनुसार लिखने
का प्रयास करूँगा.
आज की कविता दरअसल कोई
कविता न हो के एक ऐसा अनुभव है जो मैंने महसूस किया था अबसे ठीक एक साल पहले जो आज
साझा कर रहा हूं ...
एहसास तो मुझे भी हो रहा था
पर मन मानने को तैयार नहीं
था
शांत चित तू ज़मींन पे लेटी थी
मुंह से बस इतना निकला
“मुझे पहले क्यों नहीं
बताया”
सब रो रह थे
आंसू तो मेरे भी बह रहे थे
तेरे पैरों को लगातार हिला
रहा था
अचानक तू मुस्कुरा के बोली
“बताती तो क्या कर लेता”
जब तक आँख उठा के तुझे देख
पाता
तू फिर से चिरनिंद्रा में
लीन हो गयी
सच बताना माँ ...
तू मेरा इन्तार कर रही थी न
वो तेरी ही आवाज़ थी न ...