मखमली से फूल नाज़ुक पत्तियों को रख दिया
शाम होते ही दरीचे पर दियों को रख दिया
लौट के आया तो टूटी चूड़ियों को रख दिया
वक़्त ने कुछ अनकही मजबूरियों को रख दिया
आंसुओं से तर-बतर तकिये रहे चुप देर तक
सलवटों ने चीखती खामोशियों को रख दिया
छोड़ना था गाँव जब रोज़ी कमाने के लिए
माँ ने बचपन में सुनाई लोरियों को रख दिया
भीड़ में लोगों की दिन भर हँस के बतियाती रही
रास्ते पर कब न जाने सिसकियों को रख दिया
इश्क़ के पैगाम के बदले तो कुछ भेजा नहीं
पर मेरी खिड़की पे उसने तितलियों को रख दिया
नाम जब आया मेरा तो फेर लीं नज़रें मगर
भीगती गजलों में मेरी शोखियों को रख दिया
चिलचिलाती धूप में तपने लगी जब छत मेरी
उनके हाथों की लिखी कुछ चिट्ठियों को रख दिया
कुछ दिनों को काम से बाहर गया था शह्र के
पूड़ियों के साथ उसने हिचकियों को रख दिया
कुछ ज़ियादा कह दिया, वो चुप रही पर लंच में
साथ में सौरी के मेरी गलतियों को रख दिया
बीच ही दंगों के लौटी ज़िन्दगी ढर्रे पे फिर
शह्र में जो फौज की कुछ टुकड़ियों को रख दिया
कुछ दलों ने राजनीती की दुकानों के लिए
वोट की शतरंज पे फिर फौजियों को रख दिया