स्वप्न मेरे: जुलाई 2018

सोमवार, 30 जुलाई 2018

हम धुंए के बीच तेरे अक्स को तकते रहे ...


हम उदासी के परों पे दूर तक उड़ते रहे
बादलों पे दर्द की तन्हाइयाँ लिखते रहे

गर्द यादों की तेरी सेंडिल से घर आती रही

हम तेरा कचरा उठा कर घर सफा करते रहे


तुम बुझा कर प्यास चल दीं लौट कर देखा नहीं  
हम मुनिस्पेल्टी के नल से बारहा रिसते रहे

कागज़ी फोटो दिवारों से चिपक कर रह गई 
और हम चूने की पपड़ी की तरह झड़ते रहे

जबकि तेरा हर कदम हमने हथेली पर लिया
बूट की कीलों सरीखे उम्र भर चुभते रहे

था नहीं आने का वादा और तुम आईं नहीं
यूँ ही कल जगजीत की गज़लों को हम सुनते रहे

बिजलियें, न बारिशें, ना बूँद शबनम की गिरी
रात छत से टूटते तारों को हम गिनते रहे

कुछ बड़े थे, हाँ, कभी छोटे भी हो जाते थे हम
शैल्फ में कपड़ों के जैसे बे-सबब लटके रहे

उँगलियों के बीच इक सिगरेट सुलगती रह गई
हम धुंए के बीच तेरे अक्स को तकते रहे

सोमवार, 23 जुलाई 2018

तुम जो सच कहने का फिर वादा करो ...


नफरतों की डालियाँ काटा करो
घी सभी बातों पे ना डाला करो 

गोपियों सा बन सको तो बोलना
कृष्ण मेरे प्यार को राधा करो

तुम भी इसकी गिर्द में आ जाओगे
यूँ अंधेरों को नहीं पाला करो

दुःख हमेशा दिल के अंदर सींचना
सुख जो हो मिल जुल के सब साझा करो

खिड़कियों के पार है ताज़ा हवा
धूल यादों की कभी झाड़ा करो

मैं भी अपने झूठ कह दूंगा सभी 
तुम जो सच कहने का फिर वादा करो

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

कुछ दराज़ों में डाल रक्खी हैं ...


चूड़ियाँ कुछ तो लाल रक्खी हैं
जाने क्यों कर संभाल रक्खी हैं

जिन किताबों में फूल थे सूखे
शेल्फ से वो निकाल रक्खी हैं 

हैं तो ये गल्त-फहमियाँ लेकिन
चाहतें दिल में पाल रक्खी हैं

बे-झिझक रात में चले आना
रास्तों पर मशाल रक्खी हैं

वो नहीं पर निशानियाँ उनकी
यूँ ही बस साल साल रक्खी हैं

चिट्ठियाँ कुछ तो फाड़ दीं हमनें  
कुछ दराज़ों में डाल रक्खी हैं

सोमवार, 9 जुलाई 2018

परदे न हों तो दीप जलाते नहीं ... सुनो ...

हम इसलिए फरेब में आते नहीं ... सुनो
आँखों से आँख उनकी मिलाते नहीं ... सुनो

अच्छा किया जो खुद ही ये झगड़ा मिटा दिया
इतने तो नाज़ हम भी उठाते नहीं ... सुनो

मंज़ूर है हमें जो ये है आपकी अदा
रूठे हुओं को हम भी मनाते नहीं ... सुनो

दो चूड़ियों की खनक हमको याद आ गई
घर बार वरना छोड़ के जाते नहीं ... सुनो

बस्ती के कुछ बुज़ुर्ग भी जलते हैं दीप से
रस्ता फकत चराग़ दिखाते नहीं ... सुनो

शीशे का घर है सब की नज़र है इसी तरफ
परदे न हों तो दीप जलाते  नहीं ... सुनो

सोमवार, 2 जुलाई 2018

दरख्तों से कई लम्हे गिरेंगे ...


किसी की याद के मटके भरेंगे
पुराने रास्तों पे जब चलेंगे

कभी मिल जाएं जो बचपन के साथी
गुज़रते वक़्त की बातें करेंगे

गए टूटी हवेली पर, यकीनन
दिवारों से कई किस्से झरेंगे

जो रहना भीड़ में तनहा न रहना
किसी की याद के बादल घिरेंगे

दिये ने कान में चुपके से बोला
हवा से हम भला कब तक डरेंगे

जो तोड़े मिल के कुछ अमरुद कच्चे 
दरख्तों से कई लम्हे गिरेंगे