मैं अपने साथ
एक समुंदर रखता था
जाने कब
तुम्हारी नफ़रत का दावानल
खुदकशी करने को मजबूर कर दें
मैं अपने साथ
दो गज़ ज़मीन भी रखता था
जाने कब
तुम्हारी बातों का ज़हर
जीते जी मुझे मार दे
जेब भर समुंदर
कब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
दर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
बुधवार, 27 जुलाई 2011
मंगलवार, 19 जुलाई 2011
अँधेरा ...
तुम्ही ने तो कहा था कितना काला हूँ
अँधेरे में नज़र नहीं आता
साक्षात अँधेरे की तरह
पर क्या तुम्हें एक पल भी
जीवन में अँधेरे का एहसास हुवा
मेरी खुश्क त्वचा ने
कब तुम्हारे अँधेरे को सोखना शुरू किया
मैं नहीं जानता
बढते शिखर के साथ
तुम्हारी जरूरत बढती गयी
मैं और तेजी से जलता रहा
यहाँ तक की आने वाले तमाम रास्तों पर
रौशनी ही रौशनी छितरा दी
अब जबकि तुम्हारी आँखें चुंधियाने लगीं हैं
बढ़ता हुवा रौशनी का दायरा
तुम्हारे साथ चलने लगा है
मैं तुमसे दूर हो रहा हूँ
हाँ ... अँधेरा जो हूँ
अँधेरे में नज़र नहीं आता
साक्षात अँधेरे की तरह
पर क्या तुम्हें एक पल भी
जीवन में अँधेरे का एहसास हुवा
मेरी खुश्क त्वचा ने
कब तुम्हारे अँधेरे को सोखना शुरू किया
मैं नहीं जानता
बढते शिखर के साथ
तुम्हारी जरूरत बढती गयी
मैं और तेजी से जलता रहा
यहाँ तक की आने वाले तमाम रास्तों पर
रौशनी ही रौशनी छितरा दी
अब जबकि तुम्हारी आँखें चुंधियाने लगीं हैं
बढ़ता हुवा रौशनी का दायरा
तुम्हारे साथ चलने लगा है
मैं तुमसे दूर हो रहा हूँ
हाँ ... अँधेरा जो हूँ
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
दंश ...
जब तक अपने खोखले पन का एहसास होता
तुम दीमक की तरह चाट गयीं
खाई हुई चोखट सा मेरा अस्तित्व
दीवारों से चिपक
सूखी लकड़ी की तरह चरमराता रहा
हरा भरा दिखने वाले तने सा मैं
कितना खोखला हूँ अंदर से
कोई जान न सका
अब जबकि आँखों में नमी नही
और तेरी सूखी यादें भी कम नही
गुज़रे लम्हों के गोखरू
मेरे जिस्म पे उगने लगे हैं
सन्नाटों के रेगिस्तान में
झरती हुयी रेत का शोर
मुझे जीने नही दे रहा
साँसों के साथ
हवा की सीलन पीते पीते
मैं कतरा कतरा जी रहा हूँ
और... लम्हा लम्हा
भुर रहा हूँ
रेत के इस समुन्दर का विस्तार
जल्दी ही तुमको लील लेगा
दुआ है…. तुम हजारों साल जियो
तुम दीमक की तरह चाट गयीं
खाई हुई चोखट सा मेरा अस्तित्व
दीवारों से चिपक
सूखी लकड़ी की तरह चरमराता रहा
हरा भरा दिखने वाले तने सा मैं
कितना खोखला हूँ अंदर से
कोई जान न सका
अब जबकि आँखों में नमी नही
और तेरी सूखी यादें भी कम नही
गुज़रे लम्हों के गोखरू
मेरे जिस्म पे उगने लगे हैं
सन्नाटों के रेगिस्तान में
झरती हुयी रेत का शोर
मुझे जीने नही दे रहा
साँसों के साथ
हवा की सीलन पीते पीते
मैं कतरा कतरा जी रहा हूँ
और... लम्हा लम्हा
भुर रहा हूँ
रेत के इस समुन्दर का विस्तार
जल्दी ही तुमको लील लेगा
दुआ है…. तुम हजारों साल जियो
बुधवार, 6 जुलाई 2011
बीसवीं सदी की वसीयत ...
मौत
जी हाँ ... जब बीसवीं सदी की मौत हुई
(हंसने की बात नही सदी को भी मौत आती है)
हाँ तो मैं कह रहा था
जब बीसवीं सदी की मौत हुई
अनगिनत आँखों के सामने
उसकी वसीयत का पंचनामा हुवा
पाँच-सितारा इमारत के ए. सी. कमरों में
बुद्धिजीवियों के प्रगतिशील दृष्टिकोण,
और तथाकथित विद्वता भरे,
ग्रोथ रेट और बढते मध्यम वर्ग के आंकड़ों के बीच ...
संसद के गलियारे में उंघते सांसदों की
डारेक्ट टेलीकास्ट होती बहस ने ...
सरकारी पैसे पर अखबारों में छपे
बड़े बड़े विज्ञापनों की चमक ने
कितना कुछ तलाश लिया उस वसीयत में
पर किसी ने नही देखे
विरासत में मिले
बीसवीं सदी के कुछ प्रश्न
अन-सुलझे सवाल
व्यवस्था के प्रति विद्रोह
पानी की प्यास
दीमक खाए बदन
हड्डियों से चिपके पेट
भविष्य खोदता बचपन
चरमराती जवानी
बढ़ता नक्सल वाद
कुछ ऐसे प्रश्नों को लेकर
इक्कीसवीं सदी में सुगबुगाहट है…
अस्पष्ट आवाजों का शोर उठने लगा है
तथाकथित बुद्धिजीवियों ने पीठ फेर ली
सांसदों के कान बंद हैं
प्रगतिशील लोगों ने मुखोटा लगा लिया
प्रजा “तंत्र” की व्यवस्था में मग्न है
धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी
मौत की तरफ बढ़ रही है...
जी हाँ ... जब बीसवीं सदी की मौत हुई
(हंसने की बात नही सदी को भी मौत आती है)
हाँ तो मैं कह रहा था
जब बीसवीं सदी की मौत हुई
अनगिनत आँखों के सामने
उसकी वसीयत का पंचनामा हुवा
पाँच-सितारा इमारत के ए. सी. कमरों में
बुद्धिजीवियों के प्रगतिशील दृष्टिकोण,
और तथाकथित विद्वता भरे,
ग्रोथ रेट और बढते मध्यम वर्ग के आंकड़ों के बीच ...
संसद के गलियारे में उंघते सांसदों की
डारेक्ट टेलीकास्ट होती बहस ने ...
सरकारी पैसे पर अखबारों में छपे
बड़े बड़े विज्ञापनों की चमक ने
कितना कुछ तलाश लिया उस वसीयत में
पर किसी ने नही देखे
विरासत में मिले
बीसवीं सदी के कुछ प्रश्न
अन-सुलझे सवाल
व्यवस्था के प्रति विद्रोह
पानी की प्यास
दीमक खाए बदन
हड्डियों से चिपके पेट
भविष्य खोदता बचपन
चरमराती जवानी
बढ़ता नक्सल वाद
कुछ ऐसे प्रश्नों को लेकर
इक्कीसवीं सदी में सुगबुगाहट है…
अस्पष्ट आवाजों का शोर उठने लगा है
तथाकथित बुद्धिजीवियों ने पीठ फेर ली
सांसदों के कान बंद हैं
प्रगतिशील लोगों ने मुखोटा लगा लिया
प्रजा “तंत्र” की व्यवस्था में मग्न है
धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी
मौत की तरफ बढ़ रही है...
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