स्वप्न मेरे: सितंबर 2009

शनिवार, 26 सितंबर 2009

शब्द .....

दुबई से कोसों मील दूर अमेरिका के एक छोटे से शहर अल पेसो की छिटकी हुए धुप में होटल के कमरे में बैठे कुछ शब्द मन के आँगन में घुमड़ने लगे हैं ..... कोशिश कर के कागज़ के पन्नों में उतार दिया है उन शब्दों को ........ अब आपके सामने अभिव्यक्त कर रहा हूँ ..........

१)
हवा में अटके कुछ शब्द
बोलने को छटपटाते हैं
अभिव्यक्ति की सांकल
हौले से खटखटाते हैं
अर्थ के दरवाज़े से
खाली हाथ लौट आते हैं
व्यक्त होने से पहले
दिवंगत हो जाते हैं ......

२)
कुछ कह भि लिया
कुछ सुन भि लिया
गूंगे शब्दों की भाषा को
अभिव्यक्ति के मौन ने
चुन भि लिया ........

३)
हवा में तैरते कुछ शब्द
अर्थ की निरंतर तलाश में
तेरे होठ छू कर
अभिव्यक्त हो गए ........

बुधवार, 16 सितंबर 2009

अब टाट का पैबंद लगाया न जाएगा

गीत कोई विरह का गाया न जाएगा
इन आंसुओं का भार उठाया न जाएगा

गोलियों से बात होती है जहां दिन भर
मैं तो क्या मेरा वहां साया न जाएगा

फट गयी कमीज तो भी पहन लेंगे हम
अब टाट का पैबंद लगाया न जाएगा

सो रहे जो लोग वो तो जाग जायेंगे
जागे हुवे सोतों को जगाया न जाएगा

बेरुखी से आज हमको देख न साकी
उठ गया तो लौट कर आया न जाएगा

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

ये दर्द के हैं आँसू आ पलक में सजा लें

ये प्रीत की है मेहँदी फिर हाथ में लगा लें
रूठे हुवे हैं सजाना चल प्यार से मना लें

इस दर्द से सिसकती खामोश ज़िंदगी को
लम्हा जो छू के आया आ जिंदगी बना लें

शबनम की बूँद है तो ये सूखती नही क्यों
ये दर्द के हैं आँसू आ पलक में सजा लें

इस गीत की उदासी कहती है इक कहानी
महफ़िल में है अंधेरा चल रोशनी जला लें

तुम अंजूरी में भर के खुशियाँ समेट लेना
हम दस्ते-नाज़ुकी से कंकड़ सभी उठा लें

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये

वतन से वापसी, अर्श जी, अनिल जी, राजीव रंजन जी से मुलाकात की हसीन यादें समेटे, ताऊ श्री के रहस्य को जानने की कोशिश के साथ, गुरुवर पंकज जी, गौतम जी, दर्पण जी, निर्मला जी, मुफ़लिस जी से हुई बातचीत को मन में संजोए पेश है ये ग़ज़ल. आपको पसंद आए तो सार्थक है.

सोने वाले सोए रहे घर वाले जाग गए
आग लगी तो शहर के सारे चूहे भाग गए

कच्ची पगडंडी से जब जब डिस्को गाँव चले
गीतों की मस्ती सावन के झूले फाग गये

बिखर गये हैं छन्द गीत के, टूट गये सब तार
मेघों की गर्जन, भंवरों के कोमल राग गये

पागलपन, उन्माद है कैसा, कैसी है यह प्यास
पहले जंगल फिर हरियाली अब ये बाग़ गए

लौट के घर ना आया वो भी चला गया उस पार
बरसों बीते मेरी देहरी से सब काग गये