आज फिर २५ सितम्बर है ... सोचता हूँ, तू आज होती तो पता नहीं कितनी कतरनें अखबार की काट-काट के अपने पास रक्खी होतीं ... सब को फ़ोन कर-कर के सलाह देती रहती ये कर, वो कर ... ये न कर, वो न कर, बचाव रख करोना से ... सच कहूँ तो अब ये बातें बहुत याद आती हैं ... शायद पिछले आठ सालों में ... मैं भी तो बूढा हो रहा हूँ ... और फिर ... बच्चा तो तभी रह पाता जो तू होती मेरे साथ ...
शुक्रवार, 25 सितंबर 2020
सोमवार, 21 सितंबर 2020
उफ़ .... तुम भी न
पता है
तुमसे रिश्ता ख़त्म होने के बाद
कितना हल्का महसूस कर रहा हूँ
सलीके से रहना
ज़ोर से बात न करना
चैहरे पर जबरन मुस्कान रखना
"सॉरी"
"एसक्यूस मी"
भारी भरकम संबोधन से बात करना
"शेव बनाओ"
छुट्टी है तो क्या ...
"नहाओ"
कितना कचरा फैलाते हो
बिना प्रैस कपड़े पहन लेते हो
धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब
घर में लगी हर तस्वीर बदल दी है मैने
सोफे की पोज़ीशन भी बदल डाली
फिल्मी गानों के शोर में
अब देर तक थिरकता हूँ
ऊबड़-खाबड़ दाडी में
जीन पहने रहता हूँ
तुम्हारे परफ्यूम की तमाम शीशियाँ
गली में बाँट तो दीं
पर क्या करूँ
वो खुश्बू मेरे ज़हन से नही जा रही
और हाँ
वो धानी चुनरी
जिसे तुम दिल से लगा कर रखती थीं
उसी दिन से
घर के दरवाजे पर टाँग रक्खी है
पर कोई कम्बख़्त
उसको भी नही ले जा रहा ...
सोमवार, 14 सितंबर 2020
हम धुंवे के बीच तेरे अक्स को तकते रहे ...
हम सवालों के जवाबों में ही बस उलझे रहे ,
प्रश्न अन-सुलझे नए वो रोज़ ही बुनते रहे.
हम उदासी के परों पर दूर तक उड़ते रहे,
बादलों पे दर्द की तन्हाइयाँ लिखते रहे .
गर्द यादों की तेरी “सेंडिल” से घर आती रही,
रोज़ हम कचरा उठा कर घर सफा करते रहे.
रोज़ हम कचरा उठा कर घर सफा करते रहे.
तुम बुझा कर प्यास चल दीं लौट कर देखा नहीं,
हम “मुनिस्पेल्टी” के नल से बारहा रिसते रहे.
हम “मुनिस्पेल्टी” के नल से बारहा रिसते रहे.
कागज़ी फोटो दिवारों से चिपक कर रह गई,
और हम चूने की पपड़ी की तरह झरते रहे.
और हम चूने की पपड़ी की तरह झरते रहे.
जबकि तेरा हर कदम हमने हथेली पर लिया,
बूट की कीलों सरीखे उम्र भर चुभते रहे.
बूट की कीलों सरीखे उम्र भर चुभते रहे.
था नहीं आने का वादा और तुम आई नहीं,
यूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे.
यूँ ही कल जगजीत की ग़ज़लों को हम सुनते रहे.
कुछ बड़े थे, हाँ, कभी छोटे भी हो जाते थे हम,
शैल्फ में कपड़ों के जैसे बे-सबब लटके रहे.
शैल्फ में कपड़ों के जैसे बे-सबब लटके रहे.
उँगलियों के बीच में सिगरेट सुलगती रह गई,
हम धुंवे के बीच तेरे अक्स को तकते रहे.
सोमवार, 7 सितंबर 2020
उफ़ शराब का क्या होगा ...
सच के ख्वाब का क्या होगा
इन्कलाब का क्या होगा
आसमान जो ले आये
आफताब का क्या होगा
तुम जो रात में निकले हो
माहताब का क्या होगा
इस निजाम में सब अंधे
इस किताब का क्या होगा
मौत द्वार पर आ बैठी
अब हिसाब का क्या होगा
साथ छोड़ दें गर कांटे
फिर गुलाब का क्या होगा
है सरूर
इन आँखों में
उफ़ शराब
का क्या होगा
सदस्यता लें
संदेश (Atom)