वो
जो पत्थर
चमक नहीं
पाते
बीच
बाज़ार बिक
नहीं पाते
टूट
जाते हैं
वो शजर
अक्सर
आँधियों
में जो
झुक नहीं
पाते
फाइलों
में दबा
दिया उनको
कितने
मज़लूम हक
नहीं पाते
रात
जितनी घनी
हो ये
तारे
धूप
के आगे
टिक नहीं पाते
सिलसिला
कायनात का
ऐसा
रात
हो दिन
ये रुक
नहीं पाते
पांव
उनके निकल
ही आते
हैं
झूठ
चादर से
ढक नहीं
पाते