स्वप्न मेरे: नवंबर 2025

शनिवार, 8 नवंबर 2025

रोक ले जो यादों को ऐसा क्या शटर होगा ...

रात के अंधेरे का ख़त्म जब सफ़र होगा.
रौशनी की बाहों में, फिर से ये शहर होगा.

वक्त तो मुसाफ़िर है किसके पास ठहरा है,
आज है ये मुट्ठी में कल ये मुख़्तसर होगा.

मस्तियों में रहता है, हँस के दर्द सहता है,
तितलियाँ पकड़ता है, प्यार का असर होगा.

फ़र्श घास का होगा, बादलों की छत होगी,
ये हवा का घेरा ही बे-घरों का घर होगा.

पलकों की हवेली में ख़्वाब का खटोला है,
ख़ुश्बुओं के आँगन में, इश्क़ का शजर होगा.

छुट्टियों पे बादल हैं मस्त सब परिंदे हैं,
सोचता हूँ फिर कैसे, चाँद पे डिनर होगा.

नींद की खुमारी में, लब जो थरथराए हैं,
हुस्न को ख़बर है सब, इश्क़ बे-ख़बर होगा.

खिड़कियों को ढक लो तो धूप रुक भी जाती है,
रोक ले जो यादों को ऐसा क्या शटर होगा.

(तरही ग़ज़ल)

शनिवार, 1 नवंबर 2025

तक़दीर नई लिख पाऊँ मैं, ऐ काश वो पेंसिल आ जाए ...

कश्ती है समुंदर में कब से, इक बार तो साहिल आ जाए.
इस बार करो कुछ तुम दिलबर, अब लौट के घर दिल आ जाए.

आँधी का इरादा लगता है, बादल भी गरजते हैं नभ पर,
मंज़िल पे कदम अब रखना है, आनी है जो मुश्किल आ जाए.

जाहिल हो के काबिल या फ़ाज़िल, कामिल हो के हो चाहे बिस्मिल,
चौबन्द रहे नाकेबंदी, इस बार जो क़ातिल आ जाए.

अभ्यास, मनन, चिंतन, मेहनत, हो जाए है पल में बे-मानी,
दो चार कदम चल कर झट से, कदमों में जो मंज़िल आ जाए.

अलमस्त हसीना दक्षिण की , हंस-हंस के मिला करती है जो,
उल्फ़त का तक़ाज़ा कर दूँगा, भाषा जो ये तामिल आ जाए.

चंदा की सुनहरी टैरस तक, कुछ वक़्त लगेगा आने में,
बादल हैं गगन पर कजरारे, बरसात न झिल-मिल आ जाए.

मुश्किल से जो मिलता है मुझको, हाथों से फ़िसल जाता है सब,
तक़दीर नई लिख पाऊँ मैं, ऐ काश वो पेंसिल आ जाए.
(तरही ग़ज़ल)