स्वप्न मेरे: अक्तूबर 2018

सोमवार, 29 अक्तूबर 2018

क्यों हमारे गीत गाए ... क्या हुआ ...


नाप के नक़्शे बनाए ... क्या हुआ
क्या खज़ाना ढूंढ पाए ... क्या हुआ

नाव कागज़ की उतारी थी अभी
रुख हवा का मोड़ आए ... क्या हुआ

कुछ उजाला बांटते, पर सो गए
धूप जेबों में छुपाए ... क्या हुआ

आसमानी शाल तो ओढ़ी नहीं
कुछ सितारे तोड़ लाए ... क्या हुआ

क्या हुआ, कुछ तो हुआ अब बोल दो 
मन ही मन क्यों मुस्कुराए ... क्या हुआ

ये कोई मेहमान तो लगते नहीं 
आ गए क्यों बिन-बुलाए ... क्या हुआ

तुम बताओ जो नहीं है प्यार तो
क्यों हमारे गीत गाए ... क्या हुआ

सोमवार, 22 अक्तूबर 2018

हम तुझे सिगरेट समझ कर फूंकते ही रह गए ...


अध-लिखे कागज़ किताबों में दबे ही रह गए
कुछ अधूरे ख़त कहानी बोलते ही रह गए

शाम की आगोश से जागा नहीं दिन रात भर
प्लेट में रक्खे परांठे ऊंघते ही रह गए

रेलगाड़ी सा ये जीवन दौड़ता पल पल रहा
खेत, खम्बे, घर जो छूटे, छूटते ही रह गए

सिलवटों ने रात के किस्से कहे तकिये से जब 
बल्ब पीली रौशनी के जागते ही रह गए

सुरमई चेहरा, पसीना, खुरदरे हाथों का “टच” 
ज़िन्दगी बस एक लम्हा, देखते ही रह गए

पल उबलती धूप के जब पी रही थी दो-पहर
हम तेरे बादल तले बस भीगते ही रह गए

तुम धुंए के साथ मेरी ज़िन्दगी पीती रहीं 
हम तुझे सिगरेट समझ कर फूंकते ही रह गए

सोमवार, 15 अक्तूबर 2018

बुखार ... खुमारी ... या जंगली गुलाब ...


बेहोशी ने अभी लपेटा नहीं बाहों में
रुक जाती है रफ़्तार पत्थर से टकरा कर 
जाग उठता है कायनात का कारोबार
नींद गिर जाती है उस पल
नींद की आगोश से  

दो पल अभी गुज़रे नहीं
ख़त्म पहाड़ी का आखरी सिरा 
हवा में तैरता शरीर
चूक गयी हो जैसे ज़मीन की चुम्बक 
नींद का क्या
गिर जाती है फिर नींद की आगोश से 

रात का अंजान लम्हा
लीलते समुन्दर से
सिर बाहर रखने की जद्दो-जहद
हवा फेफड़ों में भर लेने की जंग
शोर में बदलती “क्या हुआ” “उठो” की हलकी धमक
लौटा तो लाती हो तुम पसीने से लथपथ बदन
पर नींद फिर गिर जाती है
नींद की आगोश से

वो क्या था
तपते “बुखार” में सुलगता बदन
गहरी थकान में डूबी खुमारी 
या किसी जंगली गुलाब के एहसास में गुज़री रात    

दिन के उजाले में जागता है मीठा दर्द
पर कहाँ ...
छोड़ो ... ये भी कोई सोचने की बात है ...

सोमवार, 8 अक्तूबर 2018

प्रेम-किस्से ...


यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

शहर की रंग-बिरंगी इमारतों से ये नहीं निकलते
न ही शराबी मद-मस्त आँखों से छलकते हैं
ज़ीने पे चड़ते थके क़दमों की आहट से ये नहीं जागते 
बनावटी चेहरों की तेज रफ़्तार के पीछे छिपी फाइलों के बीच
दम तोड़ देते हैं ये किस्से

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

पनपने को अंकुर प्रेम का  
जितना ज़रूरी है दो पवित्र आँखों का मिलन   
उतनी ही जरूरी है तुम्हारी धूप की चुभन 
जरूरी हैं मेरे सांसों की नमी भी
उसे आकार देने को 

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

प्रेम-किस्से आसमान से भी नहीं टपकते
ज़रुरी होता है प्रेम का इंद्र-धनुष बनने से पहले
आसमान से टपकती भीगी बूँदें
ओर तेरे अक्स से निकलती तपिश

जैसे जरूरी है लहरों के ज्वार-भाटा बनने से पहले
अँधेरी रात में तन्हा चाँद का भरपूर गोलाई में होना 
ओर होना ज़मीन के उतने ही करीब
जितना तुम्हारे माथे से मेरे होठ की दूरी 

कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से

सोमवार, 1 अक्तूबर 2018

हिसाब ... बे-हिसाब यादों का ...


सुबह हुई और भूल गए
यादें सपना नहीं

यादें कपड़ों पे लगी धूल भी नहीं
झाड़ो, झड़ गई

उम्र से बे-हिसाब
जिंदगी के दिन खर्च करना
समुंदर की गीली रेत से सिप्पिएं चुनना   
सब से नज़रें बचा कर
अधूरी इमारतों के साए में मिलना
धुंए के छल्लों में
उम्मीद भरे लम्हे ढूंढना
हाथों में हाथ डाले घंटों बैठे रहना  

जूड़े में टंके बासी फूल जैसे  
क्या फैंक सकोगी यादें

बे-हिसाब बीते दिन
जिंदगी के पेड़ पे लगे पत्ते नहीं 
पतझड़ आया झड़ गए ...