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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022
तुम आओ ...
बहुत चाहा शब्द गढ़ना
बुधवार, 21 सितंबर 2022
नाज़ुक ख्वाब ...
उनींदी सी रात ओढ़े
जागती आँखों ने हसीन ख्व़ाब जोड़े
सुबह की आहट से पहले
छोड़ आया उन्हें तेरी पलकों तले
कच्ची धूप की पहली किरण
तुम्हारी पलकों पे जब दस्तक दे
हौले से अपनी नज़रें उठाना
नाज़ुक से मेरे ख्वाब
बिखर न जाएँ समय से पहले कहीं ...
शनिवार, 2 जुलाई 2022
प्रेम और तर्क
उस दिन आकाश में नहीं उगे तारे
तुम खड़ी रहीं बहुत देर तक उन्हें देखने की जिद्द में
तारों की जिद्द ... नहीं उगेंगे तुम्हारे सामने
नहीं करनी थी उन्हें बात तुम्हारे सामने
और नहीं मंज़ूर था उन्हें दिगंबर हो जाना
उठा देना किसी के आवारा प्रेम से पर्दा
तर्क करने वालों ने सोचा
शोलों से लपकती तुम्हारी रौशनी की ताब
धुंधला न कर दे उन तारों को
तर्क वाले कहां समझते हैं दिल की बातें, प्रेम का मकसद
जब उठने लगता है रात का गहरा आवरण
और तुम भी आ जाती हो कमरे के भीतर
शीतल चांदनी तले पनपने लगता है एहसास का मासूम बूटा
आज रात सोएँगे नहीं तारे
मौका मिले तो ज़रूर देख आना आसमान पर
जिद्द है उनकी मिट जाने की ... सुबह होने तक
#जंगली_गुलाब
बुधवार, 15 जून 2022
शिव ...
प्रार्थना के कुछ शब्द
जो नहीं पहुँच पाते ईश्वर के पास
बिखर जाते हैं आस्था की कच्ची ज़मीन पर
धीरे धीरे उगने लगते हैं वहाँ कभी न सूखने वाले पेड़
सुना है प्रेम रहता है वहाँ खुशबू बन कर
वक़्त के साथ जब
उतरती हैं कलियाँ
तो जैसे तुम उतर आती हो ईश्वर का रूप ले कर
आँखें मुध्ने लगती हैं, हाथ खुद-ब-खुद उठ जाते हैं
उसे इबादत ... या जो चाहे नाम दे देना
खुशबू में तब्दील हो कर शब्द, उड़ते हैं कायनात में
मैं भी कुछ ओर तेरे करीब आने लगता हूँ
तू ही तू सर्वत्र ... तुझ में ईश्वर, ईश्वर में तू
उसकी माया, तेरा मोह, चेतन, अवचेतन
मैं ही शिव, मैं ही सुन्दर, एकम सत्य जगत का
शुक्रवार, 13 मई 2022
रिश्ते ...
रिश्ते कपड़े नहीं जो काम चल जाए
निशान रह जाते हैं रफू के बाद
मिट्टी बंज़र हो जाए तो कंटीले झाड़ उग आते हैं
मरहम लगाने की नौबत से पहले
बहुत कुछ रिस जाता है
हालांकि दवा एक ही है
वक़्त की कच्ची सुतली से जख्म की तुरपाई
जिसे सहेजना होता है तलवार की धार पे चल कर
संभालना होता है कांपते विश्वास को
निकालना होता है शरीर में उतरे पीलिये को
रात के घने अन्धकार से
सूरज की पहली किरण का पनपना आसान नही होता
ज़मीन कितनी भी अच्छी हो
जंगली गुलाब का खिलना भी कई बार
आसान नहीं होता ...
सोमवार, 21 मार्च 2022
लम्हे यादों के ...
मत तोडना पेड़ की उस टहनी को
जहाँ अब फूल नहीं खिलते
की है कोई ...
जो देता है हिम्मत मेरे होंसले को
की रहा जा सकता है हरा भरा प्रेम के बिना ...
*****
बालकनी के ठीक सामने वाले पेड़ पर
चौंच लड़ाते रहे दो परिंदे बहुत देर तक
फिर उड़ गए अलग-अलग दिशाओं में
हालांकि याद नहीं पिछली बार ऐसा कब हुआ था
आज तुम बहुत शिद्दत से याद आ रही हो ...
शनिवार, 12 मार्च 2022
प्रेम ...
प्रेम तो शायद हम दोनों ही करते थे
मैंने कहा ... “मेरा प्रेम समुन्दर सा गहरा है”
उसने कहा ... “प्रेम की
पैमाइश नहीं होती”
अचानक वो उठी ...
चली गई, वापस न आने के लिए
और मुझे भी समुन्दर का तल नहीं मिला ...
बुधवार, 16 फ़रवरी 2022
जंगली गुलाब ...
लम्बे समय से गज़ल लिखते लिखते लग रहा है जैसे मेरा
जंगली-गुलाब कहीं खो रहा है ... तो आज एक नई रचना के साथ ... अपने जंगली गुलाब के साथ ...
प्रेम क्या डाली पे झूलता फूल है ...
मुरझा जाता है टूट जाने के कुछ लम्हों में
माना रहती हैं यादें, कई कई दिन ताज़ा
फिर सोचता हूँ प्रेम नागफनी क्यों नहीं
रहता है ताज़ा कई कई दिन, तोड़ने के बाद
दर्द भी देता है हर छुवन पर, हर बार
कभी लगता है प्रेम करने वाले हो जाते हैं सुन्न
दर्द से परे, हर सीमा से
विलग
बुनते हैं अपन प्रेम-आकाश, हर छुवन
से इतर
देर तक सोचता हूँ, फिर पूछता हूँ
खुद से
क्या मेरा भी प्रेम-आकाश है ... ?
कब, कहाँ, कैसे, किसने
बुना ...
पर उगे तो हैं, फूल भी नागफनी भी
क्यों ...
कसम है तुम्हें उसी प्रेम की
अगर हुआ है कभी मुझसे, तो सच-सच बताना
प्रेम तो शायद नहीं ही कहेंगे उसे ...
तुम चाहो तो जंगली-गुलाब का नाम दे देना ...
शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021
नाचती लहरों से मैं ऊँचाइयाँ ले जाऊँगा ...
आपका गम आपकी रुस्वाइयाँ ले जाऊँगा.
देखते ही देखते परछाइयाँ ले जाऊंगा .
आपने मुझको कभी माना नहीं अपना मगर,
ज़िन्दगी से आपकी कठिनाइयाँ ले जाऊँगा.
हाथ से
छू कर कभी महसूस तो कर लो हमें,
आपके सर
की कसम तन्हाइयाँ ले जाऊँगा.
आपकी महफ़िल में आकर आपके पहलू से
में,
शोख नज़रों से
सभी अमराइयाँ ले जाऊँगा.
प्रेम की
बगिया कभी खिलने नहीं देते हें जो,
वक़्त के
पन्नों से वो सच्चाइयाँ ले जाऊँगा.
साहिलों पे डर न जाना देख कर लहरों को तुम,
नाचती लहरों से मैं ऊँचाइयाँ ले जाऊँगा.
सोमवार, 25 मई 2020
क्या सच में ...
अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ
एक तुम हो जो सुनती नहीं
हालांकि ये चाँद, सूरज ... ये भी नहीं सुनते
और हवा ...
इसने तो जैसे “इगनोरे” करने की ठान ली है
ठीक तुम्हारी तरह
धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज मेरे पहलू से
कितनी बार तो कहा है
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं
खिलता है कायनात में जगली गुलाब कहीं
उगता है रोज़ सूरज के नाम से
आकाश की बादल भरी ज़मीन पर
अरे सुनो ... कहीं तुम ही तो ...
इसलिए तो नहीं उठ जाती रोज़ मेरे पहलू से मेरे
... ?
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 30 मार्च 2020
हिसाब चाहत का
कहाँ खिलते हैं फूल रेगिस्तान में ... हालांकि पेड़ हैं जो
जीते हैं बरसों बरसों नमी की इंतज़ार में ... धूल है की साथ छोड़ती नहीं ... नमी है
की पास आती नहीं ... कहने को सागर साथ है पीला सा ...
मैंने चाहा तेरा हर दर्द
अपनी रेत के गहरे समुन्दर में लीलना
तपती धूप के रेगिस्तान में मैंने कोशिश की
धूल के साथ उड़ कर
तुझे छूने का प्रयास किया
पर काले बादल की कोख में
बेरंग आंसू छुपाए
बिन बरसे तुम गुजर गईं
आज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में
कहाँ होता है चाहत पे किसी का बस ...
सोमवार, 23 मार्च 2020
यूँ ही ... एक ख़ुशबू ...
हालाँकि छूट गया था शहर
छूट जाती है जैसे उम्र समय के साथ
टूट गया वो पुल
उम्मीद रहती थी जहाँ से लौट आने की
पर एक ख़ुशबू है, भरी रहती है जो नासों में
बिना खिंचे, बिना सूंघे
लगता है खिलने लगा है आस-पास
जंगली गुलाब का फूल कोई
या ... गुजरी हो तुम इस रास्ते से कभी
वैसे मनाही तुम्हारी याद को भी नहीं
उठा लाती है जो तुम्हें
जंगली गुलाब की ख़ुशबू लपेटे
जंगली गुलाब की ख़ुशबू लपेटे
#जंगली_गुलाब
बुधवार, 12 जून 2019
मुहब्बत की है बस इतनी कहानी ...
अपने शहर की खुशबू भी कम नहीं होती ... अभी लौटा हूँ अपने कर्म क्षेत्र ... एक गज़ल आपके नाम ...
झुकी पलकें
दुपट्टा आसमानी
कहीं खिलती तो
होगी रात रानी
वजह क्या है तेरी खुशबू की जाना
कोई परफ्यूम या चिट्ठी पुरानी
मिटा सकते नहीं पन्नों
से लेकिन
दिलों से कुछ
खरोंचे हैं मिटानी
लड़ाई, दोस्ती फिर
प्रेम पल पल
हमारी रोज़ की है
जिंदगानी
अभी से सो रही हो
थक गईं क्या
अभी तो ढेर बातें
हैं बतानी
यहाँ राधा है
मीरा कृष्ण भी है
यहाँ की शाम है
कितनी सुहानी
हंसी के बीच
दांतों का नज़ारा
मुहब्बत की है बस
इतनी कहानी
सोमवार, 18 मार्च 2019
मेरे पहलू में इठलाए, तो क्या वो इश्क़ होगा ...
तेरी
हर शै मुझे भाए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
मुझे
तू देख शरमाए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
हवा
में गूंजती है जो हमेशा इश्क़ बन कर
वो
सरगम सुन नहीं पाए तो क्या वो इश्क़ होगा
पिए
ना जो कभी झूठा, मगर
मिलने पे अकसर
गटक
जाए मेरी चाए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
सभी
से हँस के बोले, पीठ
पीछे मुंह चिढ़ाए
मेरे
नज़दीक इतराए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
हज़ारों
बार हाए, बाय, उनको बोलने पर
पलट
के बोल दे हाए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
सभी
रिश्ते, बहू, बेटी, बहन, माँ, के निभा कर
मेरे
पहलू में इठलाए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
तुझे
सोचा नहीं होता अभी पर यूँ अचानक
नज़र
आएं तेरे साए तो क्या वो इश्क़ होगा
हवा
मगरिब, मैं
मशरिक, उड़
के चुन्नी आसमानी
मेरी
जानिब चली आए तो क्या वो इश्क़ होगा
उसे
छू कर, मुझे
छू कर, कभी
जो शोख तितली
उड़ी
जाए, उड़ी
जाए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
तेरी
पाज़ेब, बिन्दी, चूड़ियाँ, गजरा, अंगूठी
जिसे
देखूं वही गाए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
मुझे
तू एक टक देखे, कहीं
खो जाए, पर
फिर
अचानक
से जो मुस्काए, तो
क्या वो इश्क़ होगा
सोमवार, 7 जनवरी 2019
लम्हे इश्क के ...
एक दो तीन ... कितनी बार
फूंक मार कर मुट्ठी से बाल उड़ाने की नाकाम कोशिश
आस पास हँसते मासूम चेहरे
सकपका जाता हूँ
चोरी पकड़ी गयी हो जैसे
जान गए तुम्हारा नाम सब अनजाने ही
कितना मुश्किल हैं न खुद से नज़रें चुराना
इश्क से नज़रें चुराना
इंसान जब इश्क हो जाता है
उतरना चाहता है किसी दिल में
और अगर वो दिल उसके महबूब का हो
मिल जाता है उसे मुकाम
तेरी नर्म हथेली में हथेली डाले
गुज़ार सकता हूँ तमाम उम्र फुदकती गिलहरी जैसे
तेरे साथ गुज़ारा दुःख भी इश्वर है
पाक पवित्र तेरे आँचल जैसा
तभी तो उसकी यादों में जीने का दिल करता है
प्रेम भी कितनी कुत्ती शै है
सोमवार, 3 दिसंबर 2018
क्यों है ये संसार अपने दरम्याँ ...
क्यों जुड़े थे तार अपने दरम्याँ
था नहीं जब प्यार अपने दरम्याँ
रात बोझिल, सलवटें, खामोश
दिन
बोझ सा इतवार अपने दरम्याँ
प्रेम, नफरत, लम्स, कुछ तो नाम दो
क्या है ये हरबार अपने दरम्याँ
मैं खिलाड़ी, तुम
भी शातिर कम नहीं
जीत किसकी हार अपने दरम्याँ
छत है साझा फांसला मीलों का क्यों
क्या है कारोबार अपने दरम्याँ
सिलसिला
रीति, रिवाजो-रस्म का
क्यों
है ये संसार अपने दरम्याँ
सोमवार, 22 अक्तूबर 2018
हम तुझे सिगरेट समझ कर फूंकते ही रह गए ...
अध-लिखे
कागज़ किताबों में दबे ही रह गए
कुछ
अधूरे ख़त कहानी बोलते ही रह गए
शाम
की आगोश से जागा नहीं दिन रात भर
प्लेट
में रक्खे परांठे ऊंघते ही रह गए
रेलगाड़ी सा ये जीवन दौड़ता पल पल रहा
खेत, खम्बे, घर जो छूटे, छूटते ही रह गए
सिलवटों
ने रात के किस्से कहे तकिये से जब
बल्ब
पीली रौशनी के जागते ही रह गए
सुरमई
चेहरा, पसीना, खुरदरे हाथों का “टच”
ज़िन्दगी
बस एक लम्हा, देखते ही रह गए
पल
उबलती धूप के जब पी रही थी दो-पहर
हम
तेरे बादल तले बस भीगते ही रह गए
तुम
धुंए के साथ मेरी ज़िन्दगी पीती रहीं
हम
तुझे सिगरेट समझ कर फूंकते ही रह गए
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