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बुधवार, 15 मार्च 2023

रहेगा हो के जो किसी का नाम होना था ...

न चाहते हुए भी इतना काम होना था.
हवा में एक बुलबुला तमाम होना था.


जो बन गया है खुद को भूल के फ़क़त राधे,
उसे तो यूँ भी एक रोज़ श्याम होना था.

वो खुद को आब ही समझ रहा था पर उसको,
किसी हसीन की नज़र का जाम होना था.

पता नहीं था आदमी को ज़िन्दगी में कभी,
उसे मशीनों का फिर से ग़ुलाम होना था.

नसीब खुल के अपना खेल खेलता हो जब,
रुकावटों के साथ इंतज़ाम होना था.

ये फ़लसफ़ा है न्याय-तंत्र का समझ लोगे,
जहाँ पे बात ज़ुल्म की हो राम होना था.

ये दिन ये रात वक़्त के अधीन होते हैं,
सहर को दो-पहर तो फिर से शाम होना था.

मिटा सको तो कर के देख लो हर इक कोशिश,
रहेगा हो के जो किसी का नाम होना था.

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

मैं इस बगल गया ये सनम उस बगल गया.

आसान तो नहीं था मगर वो बदल गया.
इक शख्स था गुनाह में शामिल संभल गया.
 
कुछ ख़्वाब थे जो दिन में हकीक़त न बन सके,   
उस रात उँगलियों से मसल कर निकल गया.
 
पत्थर में आ गई थी फ़सादी की आत्मा,
साबुत सरों को देख के फिर से मचल गया.
 
जिसने हमें उमीद के लश्कर दिखाए थे,
वो ज़िन्दगी के स्वप्न दिखा कर मसल गया.
 
सूरज थका-थका था उसे नींद आ गई,
साग़र की बाज़ुओं में वो झट से पिघल गया.
 
जब इस बगल था इश्क़ तो पैसा था उस बगल,  
मैं इस बगल गया ये सनम उस बगल गया.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2023

जो लिखा है ख़त में उस पैगाम की बातें करो ...

फिर किसी मासूम पे इलज़ाम की बातें करो.
क़त्ल हो चाहे न हो पर नाम की बातें करो.
 
वक़्त ज़ाया मत करो जो चंद घड़ियाँ हैं मिली,
मौज मस्ती हो गयी तो काम की बातें करो.
 
कुर्सियों के खेल का मौसम किनारे है खड़ा,     
राम की बातें हैं तो इस्लाम की बातें करो.

एक ही चेहरे में दो किरदार होते हैं कभी,  
ज़िक्र राधा का जो आए श्याम की बातें करो.
 
रास्ता लम्बा है ग़र तो मंज़िलों पर हो नज़र,
मिल गई मंज़िल तो फिर आराम की बातें करो.  
 
ये न सोचो क्या लिखा है, कब लिखा है, क्यों लिखा,   
जो लिखा है ख़त में उस पैगाम की बातें करो.

सोमवार, 30 जनवरी 2023

लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.

जाएँगे हम मगर इस क़दर जाएँगे.
रख के सब की ख़बर बे-ख़बर जाएँगे.


धूप चेहरे पे मल-मल के मिलते हो क्यों,
मोम के जिस्म वाले तो डर जाएँगे.

हुस्न की बात का क्या बुरा मानना,
बात कर के भी अक्सर मुक़र जाएँगे.

वक़्त की क़ैद में बर्फ़ सी ज़िंदगी,
क़तरा-क़तरा पिघल कर बिखर जाएँगे.

तितलियों से है गठ-जोड़ अपना सनम,
एक दिन छत पे तेरी उतर जाएँगे.

ज़िंदगी रेलगाड़ी है हम-तुम सभी,
उम्र की पटरियों पर गुज़र जाएँगे.

शब की पुड़िया से चिड़िया शफक़ ले उड़ी,
लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.

बुधवार, 25 जनवरी 2023

अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ ...

मफ़लर लपेटे फ़र का पहाड़ी फिरन में आ
ऐ गुलबदन, जमाल उसी पैरहन में आ
 
हर सिम्त ढूँढती है तुझे ज़िन्दगी मेरी
पर तू खबर किए ही बिना फिर नयन में आ
 
साया न साय-दार दरख़्तों के क़ाफ़िले
आ फिर उसी पलाश के दहके चमन में आ
 
भेजा है माहताब ने इक अब्र सुरमई
लहरा के आसमानी दुपट्टा गगन में आ
 
तुझ सा मुझे क़ुबूल है, ज़्यादा न कम कहीं
आना है ज़िन्दगी में तो अपनी टशन में आ
 
महसूस कर सकूँ में तुझे साँस-साँस में
ख़ुशबू के जैसे घुल में बसन्ती पवन में आ
 
ख़ुद को जला के देता है ख़ुर्शीद रौशनी
दिल में अगर अगन है यही फिर हवन में आ
 
ख़ानाबदोश हो के यूँ भटकोगे कब तलक
अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ

गुरुवार, 19 जनवरी 2023

पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी ...

लत बता तुमको ये कब कैसे लगी.
चाय पीने की तलब कैसे लगी.

फ़ुरसतों का दिन बता कैसा लगा,
और तन्हाई की शब कैसे लगी.

चूस लेंगी तितलियाँ गुल का शहद,
सूचना तुमको ये सब कैसे लगी.

रोज़ बनता है सबब उम्मीद का,
ज़िन्दगी फिर बे-सबब कैसे लगी.

दिल तो पहले दिन से था टूटा हुआ,
ये बताओ चोट अब कैसे लगी.

सादगी से ही ग़ज़ल कहते रहे,
तुम को ये लेकिन ग़ज़ब कैसे लगी.


ग़म के कश भरने तलक सब ठीक है,
पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी.

शनिवार, 14 जनवरी 2023

झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है ...

तुझे अब इश्क़ में ही ज़िन्दगी मालूम होती है.
दिगम्बर ये तो पहली ख़ुदकुशी मालूम होती है.
 
कोई प्यासा भरी बोतल से क्यों नज़रें चुराएगा,
निगाहों में किसी के आशिक़ी मालूम होती है.
 
उन्हें छू कर हवा आई, के ख़ुद उठ कर चले आए,
कहीं ख़ुशबू मुझे पुरकैफ़ सी मालूम होती है.

हँसी गुल से लदे गुलशन में क्यों तितली नहीं जाती,
कहीं झाड़ी में तीखी सी छुरी मालूम होती है.
 
कई धक्के लगाने पर भी टस-से-मस नहीं होती,
रुकी, अटकी हमें ये ज़िन्दगी मालूम होती है.
 
न जुगनू, दीप, आले, तुम भी लगता है नहीं गुज़रीं,
कई सड़कों पे अब तक तीरग़ी मालूम होती है.
 
सफ़ेदी बाल में, चेहरे पे उतरी झुर्रियाँ लेकिन,
झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है.

शनिवार, 7 जनवरी 2023

मैं इसे सिर्फ लगी कहता हूँ ...

यूँ न बोलो के नही कहता हूँ.
हूबहू जैसे सुनी कहता हूँ.

कान रख देता हूँ हवाओं पर,
फिर जो सुनता हूँ वही कहता हूँ.

तेरे आने को कहा दिन मैंने,
रात को दिन न कभी कहता हूँ.

मेरा किरदार खुला दर्पण है,
कम भले हो में सही कहता हूँ.

हादसे दिन के इकट्ठे कर-कर,
मैं ग़ज़ल रोज़ नई कहता हूँ.

कब से रहते हैं वहाँ कुछ दुश्मन,
पर उसे तेरी गली कहता हूँ.


दिल्लगी तुमको ये लगती होगी,

मैं इसे सिर्फ़ लगी कहता हूँ.

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

उफ़ुक़ से रात की बूँदें गिरी हैं ...

अभी तो कुछ बयानों में गिरी हैं.
सभा में खून की छींटें गिरी हैं.


सुबह के साथ सब फीकी मिलेंगी,
ज़मीं पे रात कि पहरें गिरी हैं.


इसे मत दर्द के आँसू समझना,
टपकती आँख से यादें गिरी हैं.


मिले तिनका तो फिर उठने लगेंगी,
हथेली से जो उम्मीदें गिरी हैं.


बहुत याद आएगा खण्डहर जहाँ पर,

हमारे प्रेम की शक्लें गिरी हैं.


जवानी, बचपना, रिश्ते ये हसरत,
बिखर कर उम्र से चीजें गिरी हैं.


किसी ने स्याही छिड़की आसमाँ पर,
उफ़ुक़ से रात की बूँदें गिरी हैं.

रविवार, 18 दिसंबर 2022

अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन ...

जोड़ जो अपने गुनाहों का लगाया उस दिन.
आईना शर्म से फिर देख न पाया उस दिन.
 
कुछ परिंदों को गुलामी से बचाया उस दिन,
दाने-दाने पे रखा जाल उठाया उस दिन.
 
खूब दौड़े थे मगर वक़्त कहाँ हाथ आया,
यूँ ही किस्मत ने हमें खूब छकाया उस दिन.
 
होंसला रख के जो पतवार चलाने निकले,
खुद समुन्दर ने हमें पार लगाया उस दिन.
 
आ रहा है, अभी निकला है, पहुँचता होगा,
यूँ ही वो शाम तलक मिलने न आया उस दिन.
 
जीत का लुत्फ़ उठाए तो उठा लेने दो,
हार का हमने भी तो जश्न मनाया उस दिन.
 
अजनबी खुद को समझने की न गलती कर दूँ,
अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन. 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी ...

रात को कहना सुबह जब लौट के घर जाएगी.
एक प्याली चाय मेरे साथ पी कर जाएगी.
 
चाँद है मेरी मेरी बगल में पर मुझे यह खौफ़ है,
कार की खिड़की खुली तो चाँदनी डर जाएगी.
 
प्रेम सागर का नदी से इक फरेबी जाल है,
जानती है ना-समझ मिट जाएगी, पर जाएगी.
 
है बड़ा आसान इसको काट कर यूँ फैंकना,
ज़ख्म दिल को पर अंगूठी दे के बाहर जाएगी.
 
बादलों के झुण्ड जिस पल धूप को उलझायेंगे,
नींद उस पल छाँव बन कर आँख में भर जाएगी.
 
चल रही होगी समुन्दर में पिघलती शाम जब,
चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी.

सोमवार, 5 दिसंबर 2022

विल्स ...

एक पुरानी विल्स की सिगरेट जैसी है.
ख़ाकी फ्रौक में लड़की सचमुच ऐसी है.


हंसी-ठिठोली, कूद-फाँद, ये मस्त-नज़र,
अस्त-व्यस्त सी लड़की देखो कैसी है.


फ़ेस बनाता क्यों है उस लड़की जैसे,
बादल अब तेरी तो ऐसी-तैसी है.


सूरत, सीरत, आदत, अब क्या-क्या बोलूँ,
जैसी बाहर अंदर बिलकुल वैसी है.


गहरा कश भर कर उस दिन फिर भाग गई,
खौं-खौं करती लड़की वाक़ई मैसी है.

बुधवार, 30 नवंबर 2022

धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी ...

इस बात पे हैरान, परेशान हैं हम भी.
क्यों अपने ही घर तुम भी हो, मेहमन हैं हम भी.  
 
माना के नहीं ज्ञान ग़ज़ल, गीत, बहर का,
कुछ तो हैं तभी बज़्म की पहचान हैं हम भी.
 
खुशबू की तरह तुम जो हो ज़र्रों में समाई,
धूँए से सुलगते हुए लोबान हैं हम भी.
 
तुम चाँद की मद्धम सी किरण ओढ़ के आना,
सूरज की खिली धूप के परिधान हैं हम भी.
 
बाधाएँ तो आएँगी न पथ रोक सकेंगी,
कर्तव्य के नव पथ पे अनुष्ठान हैं हम भी.
 
आकाश, पवन, जल, में तो मिट्टी, में अगन में,
वेदों की ऋचाओं में बसे ज्ञान हैं हम भी.
 
गर तुम जो अमलतास की रुन-झुन सी लड़ी हो,
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी.

रविवार, 27 नवंबर 2022

साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं ...

खुद के गुस्से में कहीं खुद ही न जल जाऊँ मैं.
छींट पानी की लगा दो के संभल जाऊँ में.
 
सामने खुद के कभी खुद भी नहीं मैं आया, 
क्या पता खुद ही न बन्दूक सा चल जाऊँ मैं. 
 
बीच सागर के डुबोनी है जो कश्ती तुमने,
ठीक ये होगा के साहिल पे फिसल जाऊँ मैं.
 
दूर उस पार पहाड़ी के कभी देखूँगा,
और थोड़ा सा ज़रा और उछल जाऊँ मैं.
 
मैं नहीं चाहता तू चाँद बने मैं सूरज,
वक़्त हो तेरे निकलने का तो ढल जाऊँ मैं.
 
हाथ छूटा जो कभी यूँ भी तो हो सकता है,  
साथ दरिया के कहीं दूर निकल जाऊँ मैं.
 
खुद के ग़र साथ रहूँ तो है बदलना मुश्किल,
साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं. 

शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

तुम आओ ...

बहुत चाहा शब्द गढ़ना 
चाँदनी के सुर्ख गजरे ... सफ़ेद कागज़ पे उतारना
पर जाने क्यों अल्फाजों का कम्बल ओढ़े   
हवा अटकी रही, हवा के इर्द-गिर्द  
 
पंछी सोते रहे
सूरज आसमान हो गया
ढल गए ख़याल, ढल जाती है दोपहर की धूप जैसे
रात का गहराता साया
खो गया अमावस की काली आग़ोश में
शब्दों ने नहीं खोले अपने मायने
खुरदरी मिटटी में नहीं पनपने पाया सृजन
 
तुम होती तो उतर आतीं मेरे अलफ़ाज़ बन कर
न होता तो रच देता तुम्हे नज़्म-दर-नज़्म
सुजाग हो जातीं केनवस की आड़ी-तिरछी लक़ीरें
 
मेरे जंगली गुलाब तुम आओ तो शुरू हो
कायनात का हसीन क़ारोबार ...

रविवार, 25 सितंबर 2022

माँ …

बीतते बीतते आज दस वर्ष हो गएवर्ष बदलते रहे पर तारीख़ वही 25 सितम्बर … सच है जाने वाले याद रहते हैं मगर तारीख़ नहींपरदेख आज की तारीख़ ऐसी है जो भूलती ही नहीं … तारीख़ ही क्योंदिनमहीनासालकुछ भी नहीं भूलता … और तू … अब क्या कहूँ… मज़ा तो अब भी आता है तुझसे बात करने का … तुझे महसूस करने का … 


माँ हक़ीक़त में तु मुझसे दूर है.

पर मेरी यादों में तेरा नूर है.


पहले तो माना नहीं था जो कहा,

लौट कह फिर सेअब मंज़ूर है.


तू हमेशा दिल में रहती है मगर,

याद करना भी तो इक दस्तूर है.


रोक पाना था नहीं मुमकिन तुझे,

क्या करूँ अब दिल बड़ा मजबूर है.


तू मेरा संगीतगुरु-बाणीभजन,

तू मेरी वीणामेरा संतूर है.


तू ही गीता ज्ञान है मेरे लिए,

तू ही तो रसखानमीरासूर है.


तू खुली आँखों से अब दिखती नहीं,

पर तेरी मौजूदगी भरपूर है.

बुधवार, 21 सितंबर 2022

नाज़ुक ख्वाब ...

उनींदी सी रात ओढ़े
जागती आँखों ने हसीन ख्व़ाब जोड़े
 
सुबह की आहट से पहले
छोड़ आया उन्हें तेरी पलकों तले
 
कच्ची धूप की पहली किरण
तुम्हारी पलकों पे जब दस्तक दे
हौले से अपनी नज़रें उठाना
नाज़ुक से मेरे ख्वाब
बिखर न जाएँ समय से पहले कहीं ...

सोमवार, 12 सितंबर 2022

नाक़ाम इश्क़ ...

काँटों की चुभन है नाक़ाम इश्क़
रहने नहीं देती जो चैन से
महसूस होता है रिस्ता दर्द, रह-रह के चुभती कील सरीखे
 
एक अन्तहीन दौड़ की दौड़ 
क्या प्रेम की प्राप्ति के लिए ? 
या भटकता है खुद की तलाश में इन्सान ?
 
नाक़ाम इश्क़ के रिश्ते सँजोना
दीमक लगे पेड़ को जीवित रखने का प्रयास है
जो पनपने नहीं देता नए रिश्तों की नाज़ुक कोंपलें
 
काटना होता है ऐसे तमाम पेड़ों को दिल की बंज़र ज़मीन से
 
खिले होते हैं बहुत से जंगली गुलाब
नज़र भर देखना होता है आस-पास का मंज़र   
 
ज़िन्दगी की दौड़ में
समय बदलते ... समय नहीं लगता ...

बुधवार, 7 सितंबर 2022

रेशमी एहसास ...

हरे पहाड़ों की चोटियों से
उतरते सफ़ेद बादल
रुक जाते हैं बल खाती काली सड़क के सीने पर
 
ललक है तुम्हें छूने की
इतना करीब से
की समेट सकें तेरी साँसों की महक उम्र भर के लिए
 
वो जानते हैं झाँकोगी तुम खुली खिड़की से  
छुओगी नर्म हथेली से वो रेशमी एहसास ...  
ठीक उसी वक़्त मैं भी हो जाऊँगा धुँवा-धुँवा  
घुल जाऊँगा बादलों की नर्म छुवन में
 
सुन प्रकृति की अप्रतिम रचना ... मेरे जंगली गुलाब  
छू के देखना अपने माथे की चन्द लकीरों उस पल   
नमी की बूँद में महसूस करोगी मुझको    

शनिवार, 27 अगस्त 2022

एब-इनीशियो ...

क्या ऐसा होता है  
कुछ कदम किसी के साथ चले
फिर भूल गए उस हम-कदम को ज़िन्दगी भर के लिए ...
 
कुछ यादें जो उभर आई हों ज़हन में
गुम हो जाएँ चुपचाप जैसे रात का सपना ...
 
चेहरे पर उभरी कुछ झुर्रियाँ
गायब हो जाएँ यक-ब-यक जैसे जवानी का लौटना
 
उम्र का मोड़ जहाँ बस अतीत ही होता है हमसफ़र
सब कुछ हो जाए “एब-इनीशियो” ...
“जैसे कुछ हुआ ही नहीं”
 
सोचता हूँ कई कभी ...
उम्र के उस एक पढ़ाव पर “अल्ज़ाइमर” उतना भी बुरा नहीं ...