तुम्हें सामने खड़ा करके बुलवाता हूँ कुछ प्रश्न तुमसे ... फिर
देता हूँ जवाब खुद को, खुद के ही प्रश्नों का ... हालाँकि बेचैनी फिर भी बनी रहती
है ... अजीब सी रेस्टलेसनेस ... आठों पहर ...
पूछती हो तुम ... क्यों डूबे रहते हो यादों में ... ?
मैं ... क्या करूँ
समुन्दर का पानी जो कम है डूबने के लिए
(तुम उदासी ओढ़े चुप हो जाती हो, जवाब सुनने के बाद)
...
मैं कहता हूँ ... अच्छा ऐसा करो वापस आ जाओ मेरे पास
यादें खत्म हो जाएंगी खुद-ब-खुद
(क्या कहा ... संभव नहीं ...)
मैं ... चलो ऐसा करो
पतझड़ के पत्तों की तरह
जिस्म से पुरानी यादों को काटने का तिलिस्म
मुझे भी सिखा दो
ताज़ा हवा के झोंके नहीं आते थे मेरे करीब
मुलाकात का सिलसिला जब आदत हो गया
तमाम रोशनदान बन्द हो गए थे
सुबह के साथ फैलता है यादों का सैलाब
रात के पहले पहर दिन तो सो जाता है
पर रौशनी कम नहीं होती
यादों के जुगनू जो जगमगाते हैं
मालुम है मुझे शराब ओर तुम्हारी मदहोशी का नशा
टूटने के बाद तकलीफ देगा
पर क्या करूँ
शिद्दत ... कमीनी कम नहीं होती
#जंगली_गुलाब