स्वप्न मेरे: मार्च 2024

शनिवार, 30 मार्च 2024

तुम्हारी कविता ...

तुमने कहा लिखो कविता मेरे पर
चली गयीं फिर दूर, चाहे कुछ पल के लिए

हालांकि तुम जानतीं थीं
मेरी हर कविता तुमसे शुरू हो कर
खत्म होती है तुम पर

शब्दों का सैलाब उमड़ता तो है, पर बिखर जाता है
तेरी हथेली की मज़बूत दीवार के आभाव में

मैं जानता हूँ जब तुम आओगी तो समेट लोगी
सँवार लोगी सभी शब्द करीने से
बुन लोगी कविता जो बिखरी पड़ी है
हमारे घर के जाने पहचाने जर्रों के बीच

फिर ये जंगली गुलाब भी तो महकने लगा है ...
#जंगली_गुलान

शनिवार, 16 मार्च 2024

लौटना पंछी का ...

रोज़ देखता हूँ खिड़की के झरोखे से 
सूखी टहनी से लटके बियाबान घौंसले की उदासी
महसूस करता हूँ बाजरे के ताज़ा दानों की महक

रह रह के झाँकती है इक रौशनी वहाँ से
सुबुकता होगा कोई जुगनू, शायद किसी की याद में

हवा की हथेली पे लिखा सन्देश
न लौट के आने वाले पंछी ने देखा तो होगा ...

शनिवार, 9 मार्च 2024

शहर - जो गुज़र गया

मुद्दतों बाद उन रास्तों से गुज़रा
जिसकी हर शै में गंध रहती थी ज़िन्दगी की

लगभग मिटटी हो गयी सड़क पर
पीली रौशनी का बल्ब तो वहीं खड़ा है
पर अब इक उदासी सी घिरी रहती है उसके इर्द-गिर्द

अरावली की सपाट चट्टानें
जिस पर लिखते थे कभी अपना नाम
खोखली हो चुकी हैं समय के दीमक से

नुक्कड़ का खोखा जहाँ तन्दूर ठण्डा नहीं होता था
आखरी साँस के साथ खड़ा हैं गिरने की प्रतीक्षा में

माना ये सच है
जाने वाले के साथ सब कुछ खत्म तो नहीं होता
पर पता नहीं क्यों दूर-दूर तक फैला मरुस्थल
लील चूका है पूरा इतिहास

सुना था शहर कभी मरते नहीं
तो क्या पसरे हुवे सन्नाटे की साँसों को
किसी जानी पहचानी आहट का इंतज़ार है ...