यूज़ एंड थ्रो
अँग्रेज़ी के तीन शब्द
और आत्म-ग्लानि से मुक्ति
कितनी आसानी से
कचरे की तरह निकाल दिया
अपने जीवन से मुझे
मुक्त कर लिया अपनी आत्मा को
मेरा ही सिद्धांत कह कर
मेरे ही जीवन का फलसफा बता कर
शायद सच ही कहा था तुमने
मैं भी तो आसानी से छोड़ आया
माँ बापू के सपने
दादी का मोतियाबिंब
दद्दू के पाँव दबाने वाले हाथ
राखी का क़र्ज़
दोस्तों के क़हक़हे
गाँव का मेघावी स्वाभिमान
मेरे से जुड़ी आशाएँ
अपना खुद का अस्तित्व
अर्जुन की तरह
पंछी की आँख ही नज़र आती थी मुझे
तुम्हारे रूप में
क्या है ये यूज़ एंड थ्रो
सभ्यताओं का अंतर्द्वंद
आधुनिकता की होड़ में ओढ़ा आवरण
नियम बदलता समाज
अपने आप को दोहराता मेरा इतिहास
इसी जीवन में मिलता मेरे कर्मों का फल
या मेरा ही जूता मेरे सर
बुधवार, 23 जून 2010
बुधवार, 16 जून 2010
शब्द-कथा
प्रस्तुत है मेरी पहली व्यंग रचना जो हिन्द-युग्म में भी प्रकाशित हो चुकी है ... आशा है आपको पसंद आएगी
शब्दकोष से निकले कुछ शब्द
बूड़े बरगद के नीचे बतियाने लगे
इक दूजे को अपना दुखड़ा सुनाने लगे
इंसानियत बोली
में तो बस किस्से कहानियों में ही पलती हूँ
हाँ कभी कभी नेताओं के भाषणों में भी मिलती हूँ
लोगों से अब नही मेरा संबंध
दुर्लभ प्रजाति की तरह
मैं भी लुप्त हो जाऊंगी
शब्द कोष के पन्नों में
हमेशा के लिए सो जाऊंगी
तभी करुणा के रोने की आवाज़ आई
सिसकते सिसकते उसने ये बात बताई
पहले तो हर दिल पर मैं करती थी राज
क्या कहूँ ...
बच्चों के दिल में भी नही रही आज
इतने में दया सम्मान और लज्जा भी बोले
जबसे जमने की बदली है चाल
हमरा भी है यही हाल
धीरे धीरे चाहत ने भी दिल खोला
प्रेम, प्रीत, प्रणय, स्नेह
ऐसे कई शब्दों की तरफ से बोला
यूँ तो हर दिल में हम रहते हैं
मतलब नज़र आए तो झरने से बहते हैं
स्वार्थ की आड़ में अक्सर हमारा प्रयोग होता है
ऐसे हालात देख कर दिल बहुत रोता है
तभी चुपचाप बैठे स्वाभिमान ने हुंकारा
पौरुष, हिम्मत और जोश को पुकारा
सब की आँखों में आ गये आँसू
मिल कर अपने अस्तित्व को धितकारा
तभी कायरता ने दी सलाह
बोली काट दो अपने अपने पंख
नही तो देर सवेर सब मर जाओगे
शब्द कोष की वीथियों में नज़र भी नही आओगे
इतने में गुंडागर्दि और मक्कारी मुस्कुराए
शोरशराबे के साथ बीच सभा में आए
बोले हमारे देव झूठ का है ज़माना
तुम शब्दकोष से बाहर मत आना
इंसानों के बीच हमारा है बोलबाला
वो देखो सत्य का मुँह काला
ये सुनते ही इंसानियत घबराई
करुणा के दिल में दहशत छाई
चाहत ने गुहार लगाई
स्वाभिमान ने टाँग उठाई
सब की आत्मा
शब्दकोष में जा समाई
शब्दकोष से निकले कुछ शब्द
बूड़े बरगद के नीचे बतियाने लगे
इक दूजे को अपना दुखड़ा सुनाने लगे
इंसानियत बोली
में तो बस किस्से कहानियों में ही पलती हूँ
हाँ कभी कभी नेताओं के भाषणों में भी मिलती हूँ
लोगों से अब नही मेरा संबंध
दुर्लभ प्रजाति की तरह
मैं भी लुप्त हो जाऊंगी
शब्द कोष के पन्नों में
हमेशा के लिए सो जाऊंगी
तभी करुणा के रोने की आवाज़ आई
सिसकते सिसकते उसने ये बात बताई
पहले तो हर दिल पर मैं करती थी राज
क्या कहूँ ...
बच्चों के दिल में भी नही रही आज
इतने में दया सम्मान और लज्जा भी बोले
जबसे जमने की बदली है चाल
हमरा भी है यही हाल
धीरे धीरे चाहत ने भी दिल खोला
प्रेम, प्रीत, प्रणय, स्नेह
ऐसे कई शब्दों की तरफ से बोला
यूँ तो हर दिल में हम रहते हैं
मतलब नज़र आए तो झरने से बहते हैं
स्वार्थ की आड़ में अक्सर हमारा प्रयोग होता है
ऐसे हालात देख कर दिल बहुत रोता है
तभी चुपचाप बैठे स्वाभिमान ने हुंकारा
पौरुष, हिम्मत और जोश को पुकारा
सब की आँखों में आ गये आँसू
मिल कर अपने अस्तित्व को धितकारा
तभी कायरता ने दी सलाह
बोली काट दो अपने अपने पंख
नही तो देर सवेर सब मर जाओगे
शब्द कोष की वीथियों में नज़र भी नही आओगे
इतने में गुंडागर्दि और मक्कारी मुस्कुराए
शोरशराबे के साथ बीच सभा में आए
बोले हमारे देव झूठ का है ज़माना
तुम शब्दकोष से बाहर मत आना
इंसानों के बीच हमारा है बोलबाला
वो देखो सत्य का मुँह काला
ये सुनते ही इंसानियत घबराई
करुणा के दिल में दहशत छाई
चाहत ने गुहार लगाई
स्वाभिमान ने टाँग उठाई
सब की आत्मा
शब्दकोष में जा समाई
सोमवार, 7 जून 2010
झूठ
नही नही
में यह नहि कहूँगा की ये मेरा अंतिम झूठ है
इससे पहले भी मैने कई बार
सच की चाशनी लपेट कर
कई झूठ बोले हैं
कई बार अंजाने ही
झूठ बोलते अटका हूँ
पर हर बार मेरी बेशर्मी ने
ढीठता के साथ सच पचा लिया
झूठ तो कर्ण ने भी बोला था
ज्ञान के लोभ में
और झूठ की बैसाखी पकड़
सच तो युधिष्ठिर ने भी नही कहा
फिर तुम से बेहतर कौन समझ सकता है
झूठ तो उस रोज़ भी कहा था मैने
जब जानते हुवे भी तुमको
स्वप्न सुंदरी से सुंदर कहा
फिर तुम्हारे बाद भी ये झूठ
न जाने कितनों को
सच का आवरण लपेट कर कहा
झूठ तो हर बार बोलता हूँ
अपने आप से
अपनी आत्मा से
अपने वजूद से
पता है …?
सच की दहलीज़ पर झूठ का शोर
सच को बहरा कर देता है
वीभत्स सच को कोई देखना नही चाहता
सच आँखें फेर लेता है
अब तो मेरा वजूद
झूठ के दलदल में तैरना सीख गया है
हाँ मैं अब भी यह नहि कह रहा
की ये मेर अंतिम और अंतिम झूठ नही है
में यह नहि कहूँगा की ये मेरा अंतिम झूठ है
इससे पहले भी मैने कई बार
सच की चाशनी लपेट कर
कई झूठ बोले हैं
कई बार अंजाने ही
झूठ बोलते अटका हूँ
पर हर बार मेरी बेशर्मी ने
ढीठता के साथ सच पचा लिया
झूठ तो कर्ण ने भी बोला था
ज्ञान के लोभ में
और झूठ की बैसाखी पकड़
सच तो युधिष्ठिर ने भी नही कहा
फिर तुम से बेहतर कौन समझ सकता है
झूठ तो उस रोज़ भी कहा था मैने
जब जानते हुवे भी तुमको
स्वप्न सुंदरी से सुंदर कहा
फिर तुम्हारे बाद भी ये झूठ
न जाने कितनों को
सच का आवरण लपेट कर कहा
झूठ तो हर बार बोलता हूँ
अपने आप से
अपनी आत्मा से
अपने वजूद से
पता है …?
सच की दहलीज़ पर झूठ का शोर
सच को बहरा कर देता है
वीभत्स सच को कोई देखना नही चाहता
सच आँखें फेर लेता है
अब तो मेरा वजूद
झूठ के दलदल में तैरना सीख गया है
हाँ मैं अब भी यह नहि कह रहा
की ये मेर अंतिम और अंतिम झूठ नही है
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