बहते अश्कों की जो बरसात बदल जाते हैं.
दर्द में डूबी हुई रात बदल जाते हैं.
ग़र तरक़्क़ी के शजर उग सके पगडण्डी पर,
शह्र के साथ ये देहात बदल जाते हैं.
चाय उँगली से हिलाने का असर मत पूछो,
मीठी चीनी के भी अनुपात बदल जाते हैं.
साथ आ जाएँ तो क्या कुछ न बदल जाएगा,
जिनकी आमद से ये लम्हात बदल जाते हैं.
तितलियाँ रंग-बिरंगी हैं यहाँ मत भेजो,
बातों-बातों में ख़यालात बदल जाते हैं.
आपका घूरना, फिर देखना, फिर शरमाना,
देखते देखते ख़तरात बदल जाते हैं.
इश्क़ तसलीम तो कर लेंगे नज़र से पर फिर,
होंठ से कहते हुए बात बदल जाते हैं.
आज इस बात पे, कल और किसी किस्से पर,
इश्क़ में रोज़ वजूहात बदल जाते हैं.
(तरही ग़ज़ल)
सोमवार, 24 जुलाई 2023
मंगलवार, 18 जुलाई 2023
तमाम उम्र ही जैसे गुज़ार बैठा हो ...
कहीं से चल के कहीं बार-बार बैठा हो.
मेरी तलाश में हिम्मत न हार बैठा हो.
नमक छिड़कते हैं कुछ लोग घाव पर अक्सर,
कहीं वो खुद से न पट्टी उतार बैठा हो.
यकीं नहीं तो यकीनन भरम रहेगा उसे,
भले ही पास में परवर-दिगार बैठा हो.
फ़क़ीर दिल से मुकद्दर की भेंट देता है,
गरीब हो के कहीं माल-दार बैठा हो.
पराई आग में तपती है ज़िन्दगी ऐसे,
बदन में जैसे किसी का बुखार बैठा हो.
लिबास ज़िस्म पे रहता है काँच का हर-दम,
कहीं किसी को न पत्थर से मार बैठा हो.
उलझ के एक ही लम्हे में रह गया इतना,
तमाम उम्र ही जैसे गुज़ार बैठा हो.
मेरी तलाश में हिम्मत न हार बैठा हो.
नमक छिड़कते हैं कुछ लोग घाव पर अक्सर,
कहीं वो खुद से न पट्टी उतार बैठा हो.
यकीं नहीं तो यकीनन भरम रहेगा उसे,
भले ही पास में परवर-दिगार बैठा हो.
फ़क़ीर दिल से मुकद्दर की भेंट देता है,
गरीब हो के कहीं माल-दार बैठा हो.
पराई आग में तपती है ज़िन्दगी ऐसे,
बदन में जैसे किसी का बुखार बैठा हो.
लिबास ज़िस्म पे रहता है काँच का हर-दम,
कहीं किसी को न पत्थर से मार बैठा हो.
उलझ के एक ही लम्हे में रह गया इतना,
तमाम उम्र ही जैसे गुज़ार बैठा हो.
गुरुवार, 13 जुलाई 2023
ये काली लट तेरी उलझा रही है ...
हवा कुछ गीत ऐसे गा रही है.
किसी की याद संग-संग आ रही है.
अभी छेड़ो न तितली को, सुनो जी,
पहाड़ा इश्क़ का समझा रही है.
पहनती है नहीं, ये तो बता दे,
अंगूठी कब मेरी लौटा रही है.
लचकती सी जो गुज़री है यहाँ से,
लड़ी कचनार की बल खा रही है.
नहीं है इश्क़ तो क्यों लाल झुमका,
मेरे स्वेटर में यूँ उलझा रही है.
तेरी ये गंध जैसे इत्र बन कर,
सुलगते कश में उतरी जा रही है.
ग़ज़ल पूरी मैं कब की कर भी लेता,
ये काली लट तेरी उलझा रही है.
किसी की याद संग-संग आ रही है.
अभी छेड़ो न तितली को, सुनो जी,
पहाड़ा इश्क़ का समझा रही है.
पहनती है नहीं, ये तो बता दे,
अंगूठी कब मेरी लौटा रही है.
लचकती सी जो गुज़री है यहाँ से,
लड़ी कचनार की बल खा रही है.
नहीं है इश्क़ तो क्यों लाल झुमका,
मेरे स्वेटर में यूँ उलझा रही है.
तेरी ये गंध जैसे इत्र बन कर,
सुलगते कश में उतरी जा रही है.
ग़ज़ल पूरी मैं कब की कर भी लेता,
ये काली लट तेरी उलझा रही है.
शुक्रवार, 7 जुलाई 2023
इक आईने के सामने लाया गया हूँ मैं ...
झूठा लिबास ओढ़ के घबरा गया हूँ मैं.
अपना ही जिस्म छोड़ के फिर आ गया हूँ मैं.
बंदिश में ताल, छंद के गाया गया हूँ मैं.
अपनी ग़ज़ल के शेर में पाया गया हूँ मैं.
यूँ तो ग़ुरूर तोड़ना मुमकिन नहीं हुआ,
गर्दन मरोड़ कर ही झुकाया गया हूँ मैं.
करते हैं सब पसंद या करता हूँ ग़लतियाँ,
क्यों फिर से बार-बार उठाया गया हूँ मैं.
त्योहार, तीज, मौक़े-बेमौके ही कद्र है,
जबरन सभी के बीच बिठाया गया हूँ मैं.
ठोकर लगाएँगे तो मुझे टूटना ही है,
पानी का बुलबुला जो बताया गया हूँ मैं.
धोखा नज़र का हूँ के हक़ीक़त है हैसियत,
इक आईने के सामने लाया गया हूँ में.
अपना ही जिस्म छोड़ के फिर आ गया हूँ मैं.
बंदिश में ताल, छंद के गाया गया हूँ मैं.
अपनी ग़ज़ल के शेर में पाया गया हूँ मैं.
यूँ तो ग़ुरूर तोड़ना मुमकिन नहीं हुआ,
गर्दन मरोड़ कर ही झुकाया गया हूँ मैं.
करते हैं सब पसंद या करता हूँ ग़लतियाँ,
क्यों फिर से बार-बार उठाया गया हूँ मैं.
त्योहार, तीज, मौक़े-बेमौके ही कद्र है,
जबरन सभी के बीच बिठाया गया हूँ मैं.
ठोकर लगाएँगे तो मुझे टूटना ही है,
पानी का बुलबुला जो बताया गया हूँ मैं.
धोखा नज़र का हूँ के हक़ीक़त है हैसियत,
इक आईने के सामने लाया गया हूँ में.
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