स्वप्न मेरे: ये काली लट तेरी उलझा रही है ...

गुरुवार, 13 जुलाई 2023

ये काली लट तेरी उलझा रही है ...

हवा कुछ गीत ऐसे गा रही है.
किसी की याद संग-संग आ रही है.

अभी छेड़ो न तितली को, सुनो जी,
पहाड़ा इश्क़ का समझा रही है.

पहनती है नहीं, ये तो बता दे,
अंगूठी कब मेरी लौटा रही है.

लचकती सी जो गुज़री है यहाँ से,
लड़ी कचनार की बल खा रही है.

नहीं है इश्क़ तो क्यों लाल झुमका,
मेरे स्वेटर में यूँ उलझा रही है.

तेरी ये गंध जैसे इत्र बन कर,
सुलगते कश में उतरी जा रही है.

ग़ज़ल पूरी मैं कब की कर भी लेता,
ये काली लट तेरी उलझा रही है.

10 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर गज़ल सर।
    सादर।
    ---
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ जुलाई २०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  2. पहनती है नहीं, ये तो बता दे,
    अंगूठी कब मेरी लौटा रही है.
    वाह!!!
    ग़ज़ल पूरी मैं कब की कर भी लेता,
    ये काली लट तेरी उलझा रही है.
    वाह वाह...
    लाजवाब👌👌

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  3. लट उलझी रहे और आओ ग़ज़ल कहते रहें ।बेहतरीन ग़ज़ल

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  4. वाह!दिगंबर जी ,क्या बात है ! बहुत खूब..

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  5. नहीं है इश्क़ तो क्यों लाल झुमका,
    मेरे स्वेटर में यूँ उलझा रही है.
    वाह! अति सुन्दर गजल।

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  6. ये अंगूठी वाला मामला पेचीदा है जनाब ;)

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  7. अभी छेड़ो न तितली को, सुनो जी,
    पहाड़ा इश्क़ का समझा रही है.
    बहुत सुन्दर। .
    आपकी हर गजल लाजवाब होती हैं

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