स्वप्न मेरे: ग़ज़ल
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गुरुवार, 19 जनवरी 2023

पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी ...

लत बता तुमको ये कब कैसे लगी.
चाय पीने की तलब कैसे लगी.

फ़ुरसतों का दिन बता कैसा लगा,
और तन्हाई की शब कैसे लगी.

चूस लेंगी तितलियाँ गुल का शहद,
सूचना तुमको ये सब कैसे लगी.

रोज़ बनता है सबब उम्मीद का,
ज़िन्दगी फिर बे-सबब कैसे लगी.

दिल तो पहले दिन से था टूटा हुआ,
ये बताओ चोट अब कैसे लगी.

सादगी से ही ग़ज़ल कहते रहे,
तुम को ये लेकिन ग़ज़ब कैसे लगी.


ग़म के कश भरने तलक सब ठीक है,
पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी.

शनिवार, 14 जनवरी 2023

झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है ...

तुझे अब इश्क़ में ही ज़िन्दगी मालूम होती है.
दिगम्बर ये तो पहली ख़ुदकुशी मालूम होती है.
 
कोई प्यासा भरी बोतल से क्यों नज़रें चुराएगा,
निगाहों में किसी के आशिक़ी मालूम होती है.
 
उन्हें छू कर हवा आई, के ख़ुद उठ कर चले आए,
कहीं ख़ुशबू मुझे पुरकैफ़ सी मालूम होती है.

हँसी गुल से लदे गुलशन में क्यों तितली नहीं जाती,
कहीं झाड़ी में तीखी सी छुरी मालूम होती है.
 
कई धक्के लगाने पर भी टस-से-मस नहीं होती,
रुकी, अटकी हमें ये ज़िन्दगी मालूम होती है.
 
न जुगनू, दीप, आले, तुम भी लगता है नहीं गुज़रीं,
कई सड़कों पे अब तक तीरग़ी मालूम होती है.
 
सफ़ेदी बाल में, चेहरे पे उतरी झुर्रियाँ लेकिन,
झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है.

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022

उफ़ुक़ से रात की बूँदें गिरी हैं ...

अभी तो कुछ बयानों में गिरी हैं.
सभा में खून की छींटें गिरी हैं.


सुबह के साथ सब फीकी मिलेंगी,
ज़मीं पे रात कि पहरें गिरी हैं.


इसे मत दर्द के आँसू समझना,
टपकती आँख से यादें गिरी हैं.


मिले तिनका तो फिर उठने लगेंगी,
हथेली से जो उम्मीदें गिरी हैं.


बहुत याद आएगा खण्डहर जहाँ पर,

हमारे प्रेम की शक्लें गिरी हैं.


जवानी, बचपना, रिश्ते ये हसरत,
बिखर कर उम्र से चीजें गिरी हैं.


किसी ने स्याही छिड़की आसमाँ पर,
उफ़ुक़ से रात की बूँदें गिरी हैं.

रविवार, 18 दिसंबर 2022

अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन ...

जोड़ जो अपने गुनाहों का लगाया उस दिन.
आईना शर्म से फिर देख न पाया उस दिन.
 
कुछ परिंदों को गुलामी से बचाया उस दिन,
दाने-दाने पे रखा जाल उठाया उस दिन.
 
खूब दौड़े थे मगर वक़्त कहाँ हाथ आया,
यूँ ही किस्मत ने हमें खूब छकाया उस दिन.
 
होंसला रख के जो पतवार चलाने निकले,
खुद समुन्दर ने हमें पार लगाया उस दिन.
 
आ रहा है, अभी निकला है, पहुँचता होगा,
यूँ ही वो शाम तलक मिलने न आया उस दिन.
 
जीत का लुत्फ़ उठाए तो उठा लेने दो,
हार का हमने भी तो जश्न मनाया उस दिन.
 
अजनबी खुद को समझने की न गलती कर दूँ,
अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन. 

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी ...

रात को कहना सुबह जब लौट के घर जाएगी.
एक प्याली चाय मेरे साथ पी कर जाएगी.
 
चाँद है मेरी मेरी बगल में पर मुझे यह खौफ़ है,
कार की खिड़की खुली तो चाँदनी डर जाएगी.
 
प्रेम सागर का नदी से इक फरेबी जाल है,
जानती है ना-समझ मिट जाएगी, पर जाएगी.
 
है बड़ा आसान इसको काट कर यूँ फैंकना,
ज़ख्म दिल को पर अंगूठी दे के बाहर जाएगी.
 
बादलों के झुण्ड जिस पल धूप को उलझायेंगे,
नींद उस पल छाँव बन कर आँख में भर जाएगी.
 
चल रही होगी समुन्दर में पिघलती शाम जब,
चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी.

बुधवार, 30 नवंबर 2022

धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी ...

इस बात पे हैरान, परेशान हैं हम भी.
क्यों अपने ही घर तुम भी हो, मेहमन हैं हम भी.  
 
माना के नहीं ज्ञान ग़ज़ल, गीत, बहर का,
कुछ तो हैं तभी बज़्म की पहचान हैं हम भी.
 
खुशबू की तरह तुम जो हो ज़र्रों में समाई,
धूँए से सुलगते हुए लोबान हैं हम भी.
 
तुम चाँद की मद्धम सी किरण ओढ़ के आना,
सूरज की खिली धूप के परिधान हैं हम भी.
 
बाधाएँ तो आएँगी न पथ रोक सकेंगी,
कर्तव्य के नव पथ पे अनुष्ठान हैं हम भी.
 
आकाश, पवन, जल, में तो मिट्टी, में अगन में,
वेदों की ऋचाओं में बसे ज्ञान हैं हम भी.
 
गर तुम जो अमलतास की रुन-झुन सी लड़ी हो,
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी.

रविवार, 27 नवंबर 2022

साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं ...

खुद के गुस्से में कहीं खुद ही न जल जाऊँ मैं.
छींट पानी की लगा दो के संभल जाऊँ में.
 
सामने खुद के कभी खुद भी नहीं मैं आया, 
क्या पता खुद ही न बन्दूक सा चल जाऊँ मैं. 
 
बीच सागर के डुबोनी है जो कश्ती तुमने,
ठीक ये होगा के साहिल पे फिसल जाऊँ मैं.
 
दूर उस पार पहाड़ी के कभी देखूँगा,
और थोड़ा सा ज़रा और उछल जाऊँ मैं.
 
मैं नहीं चाहता तू चाँद बने मैं सूरज,
वक़्त हो तेरे निकलने का तो ढल जाऊँ मैं.
 
हाथ छूटा जो कभी यूँ भी तो हो सकता है,  
साथ दरिया के कहीं दूर निकल जाऊँ मैं.
 
खुद के ग़र साथ रहूँ तो है बदलना मुश्किल,
साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं. 

सोमवार, 31 जनवरी 2022

नहीं तो अजल से यही है फ़साना ...

इसी चापलूसी की सीढ़ी से आना.
बुलंदी की छत पे जो तुमको है जाना.
 
कई बार इन्सानियत गर जगे तो, 
कड़ा कर के दिल से उसे फिर हटाना.
 
भले सच ये तन कर खड़ा सामने हो,
न सोचो दुबारा उसे बस मिटाना.
 
न वादा न यारी न रिश्तों की परवाह,
सिरे से जो एहसान हैं भूल जाना.
 
उठाया है तो क्या गिराना उसे ही,
यही रीत दुनिया की है तुम निभाना.
 
नहीं हैं ये अच्छे नियम ज़िन्दगी के,
करें क्या, है ज़ालिम मगर ये ज़माना.
 
सभी मिल के बदलें तो शायद ये बदलें,
नहीं तो अजल से यही है फ़साना.

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

खिली धूप को हम चलो गुनगुनाएँ ...

दोस्तों इस वर्ष की ये आखरी पोस्ट ... आप सभी को नव वर्ष मंगलमय हो ... सबको अपार खुशियाँ मिलें ... करोना से निजात मिले, आशाएं बनी रहे ... 

 लौटेंगे पलचल ये मस्ती लुटाएँ.
नए वर्ष की ढेर शुभ-कामनाएँ.


गुजरता हुआ पल  लौटेगा फिर से,
यही एक पल है इसे ही मनाएँ.

क़सम पहले दिन के प्रथम लम्हे की है,
वज़न दस किलो हो सके तो घटाएँ.

कई वादे ख़ुद से करेंगे अभी तो,
नया साल है तो नए गुल खिलाएँ.

हमें जनवरी लौटने अब  देगी,
दिसंबर को टाटा चलो कह तो आएँ.

अभी तो ठिठुरने का मौसम है कुछ दिन,
खिली धूप को हम चलो गुनगुनाएँ.

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

दो-चार बात कर के जो तेरा नहीं हुआ ...

यूँ तो तमाम रात अँधेरा नहीं हुआ.
फिर क्या हुआ के आज सवेरा नहीं हुआ.
 
धड़कन किसी का नाम सजा देगी खुद-ब-खुद,
दिल पर किसी का नाम उकेरा नहीं हुआ.
 
हर हद करी है पार फ़कत जिसके नाम पर,
बस वो निगाहें यार ही मेरा नहीं हुआ.
 
मिल कर सभी से देख लिया ज़िन्दगी में अब,
है कौन जिसको इश्क़ ने घेरा नहीं हुआ.
 
लाली किसी के इश्क़ की उतरी है गाल पर,
चेहरे पे बस गुलाल बिखेरा नहीं हुआ.
 
उनको न ढब, समझ, न सलीका, न कुछ शऊर,
दो-चार बात कर के जो तेरा नहीं हुआ.

शनिवार, 18 दिसंबर 2021

हो न तलवार तो हम ढाल में ढाले जाते ...

अनसुनी कर के जो हम वक़्त को टाले जाते.
घर से जाते न तो चुपचाप निकाले जाते.

ये तो बस आपने पहचान लिया था वरना,
दर्द तो दूर न ये पाँव के छाले जाते.

शुक्र है वक़्त पे बरसात ने रख ली इज़्ज़त,
देर तक अश्क़ न पलकों में सम्भाले जाते.

मौंके पर डँसना जो मंज़ूर न होता उनको,
आस्तीनों में कभी सांप न पाले जाते.

चंद यादें जो परेशान किया करती हैं,
बस में होता जो हमारे तो उठा ले जाते.

आईना बन के हक़ीक़त न दिखाते सब को,
हम भी बदनाम रिसालों में उछाले जाते.

हमको हर सच की तरफ़ डट के खड़ा रहना था,
हो न तलवार तो हम ढाल में ढाले जाते.


मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

लगता है अपने आप के हम भी नहीं रहे ...

ईमान, धर्म, कौल, भरोसा, यकीं रहे.
मेरे भी दिल में, तेरे भी दिल में कहीं रहे.
 
हर-सू हो पुर-सुकून, महकती हो रह-गुज़र,
चादर हो आसमां की बिस्तर ज़मीं रहे.
 
गम हो के धूप-छाँव, पशेमान ज़िन्दगी,
होठों पे मुस्कुराहटें दिल में नमीं रहे.
 
चिंगारियाँ सुलगने लगी हैं दबी-दबी,
कह दो हवा से आज जहाँ है वहीँ रहे.
 
रिश्तों की आढ़ ले के किसी को न बाँधना,
दिल में तमाम उम्र रहे, वो कहीं रहे.
 
परवरदिगार हमको अता कर सलाहियत,
सर पर तेरे यकीन की चादर तनीं रहे.
 
एक-एक कर के छीन लिया मुझसे सब मेरा,
लगता है अपने आप के हम भी नहीं रहे.

गुरुवार, 25 नवंबर 2021

कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं

कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं. 
हम अपनी ज़िन्दगी में यूँ सभी से उलझे हैं.
 
नदी है जेब में पर तिश्नगी से उलझे हैं,
अजीब लोग हैं जो खुदकशी से उलझे हैं.
 
नहीं जो प्रेम, पतंगों की ख़ुद-कुशी कह लो,
समझते-बूझते जो रौशनी से उलझे हैं.
 
तरक्कियों के शिखर झुक गए मेरी खातिर,
मगर ये दीद गुलाबी कली से उलझे हैं.
 
जो अपने सच से भी नज़रें चुरा रहे अब तक,
किसी के झूठ में वो ज़िन्दगी से उलझे हैं.  
 
सुनो ये रात हमें दिन में काटनी होगी,
अँधेरे देर से उस रौशनी से उलझे हैं.
 
किसी से नज़रें मिली, झट से प्रेम, फिर शादी,
ज़ईफ़ लोग अभी कुण्डली से उलझे हैं.
 
निगाह में तो न आते सुकून से रहते, 
गजल कही है तो उस्ताद जी से उलझे हैं.

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

यूँ पाँव पाँव चल के तो जाए न जाएँगे ...

खुल कर तो आस्तीन में पाए न जाएँगे.
इलज़ाम दोस्तों पे लगाए न जाएँगे.
 
सदियों से पीढ़ियों ने जो बाँधी हैं बेड़ियाँ,
इस दिल पे उनके बोझ उठाए न जाएँगे.
 
अब मौत ही करे तो करे फैंसला कोई,
खुद चल के इस जहान से जाए न जाएँगे.
 
अच्छा है डायरी में सफों की कमी नहीं,
वरना तो इतने राज़ छुपाए न जाएँगे.
 
सुलगे हैं वक़्त की जो रगड़ खा के मुद्दतों,
फूकों से वो चराग़ बुझाए न जाएँगे.
 
अब वक़्त कुछ हिसाब करे तो मिले सुकूँ,
दिल से तो इतने घाव मिटाए न जाएँगे.
 
इतनी पिलाओगे जो नज़र की ये शोखियाँ,
यूँ पाँव पाँव चल के तो जाए न जाएँगे.

शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

चलो बूँदा-बाँदी को बरसात कर लें

कहीं दिन गुजारें, कहीं रात कर लें.
कभी खुद भी खुद से मुलाक़ात कर लें.
 
बुढ़ापा है यूँ भी तिरस्कार होगा,
चलो साथ बच्चों के उत्पात कर लें.
 
ज़रूरी नहीं है जुबानें समझना,
इशारों इशारों में कुछ बात कर लें.
 
मिले डूबते को बचाने का मौका,
कभी हम जो तिनके सी औकात कर लें.
 
न जज हम करें, न करें वो हमें जज,
भरोसा रहे ऐसे हालात कर लें.
 
ये बस दोस्ती में ही मुमकिन है यारों,
बिना सोचे समझे हर इक बात कर लें.
 
दिखाना मना है जो दुनिया को आँसू,
चलो बूँदा-बाँदी को बरसात कर लें.

बुधवार, 15 सितंबर 2021

वक़्त ने करना है तय सबका सफ़र

उम्र तारी है दरो दीवार पर.
खाँसता रहता है बिस्तर रात भर.
 
जो मिला, मिल तो गया, बस खा लिया,
अब नहीं होती है हमसे न-नुकर. 
 
सुन चहल-कदमी गुज़रती उम्र की,
वक़्त की कुछ मान कर अब तो सुधर. 
 
रात के लम्हे गुज़रते ही नहीं,
दिन गुज़र जाता है खुद से बात कर.
 
सोचता कोई तो होगा, है वहम,
कौन करता है किसी की अब फिकर.
 
था खरीदा, बिक गया तो बिक गया,
क्यों इसे कहने लगे सब अपना घर.
 
मौत की चिंता जो कर लोगे तो क्या,
वक़्त ने करना है तय सबका सफ़र.


मंगलवार, 7 सितंबर 2021

ज़रूर नाम किसी शख्स ने लिया होता

किसी हसीन के जूड़े में सज रहा होता.
खिला गुलाब कहीं पास जो पड़ा होता.
 
किसी की याद में फिर झूमता उठा होता,
किसी के प्रेम का प्याला जो गर पिया होता.
 
यकीन मानिए वो सामने खड़ा होता,
वो इक गुनाह जो हमने कहीं किया होता.
 
हर एक हाल में तन के खड़ा हुआ होता,
खुद अपने आप से मिलता कभी लड़ा होता.
 
किसी के काम कभी मैं भी आ गया होता,
दुआ के साथ मेरे हाथ जो शफ़ा होता,
 
किसी मुकाम पे मिलता कहीं रुका होता,
मेरी तलाश में घर से अगर चला होता.
 
लगाता हुस्न जो मरहम किसी के ज़ख्मों पर,
ज़रूर नाम किसी शख्स ने लिया होता.

बुधवार, 14 जुलाई 2021

चाँद उतरा, बर्फ पिघली, ये जहाँ महका दिया ...

बादलों के पार तारों में कहीं छुड़वा दिया I 
चन्द टूटी ख्वाहिशों का दर्द यूँ बिखरा दिया I
 
एक बुन्दा क्या मिला यादों की खिड़की खुल गई, 
वक़्त ने बरसों पुराने इश्क़ को सुलगा दिया I
 
करवटों के बीच सपनों की ज़रा दस्तक हुई, 
रात ने झिर्री से तीखी धूप को सरका दिया I
 
आसमानी चादरें माथे पे उतरी थीं अभी,
एक तितली ने पकड़ कर चाँद को बैठा दिया I
 
प्रेम का सच आँख से झरता रहा आठों पहर,
और होठों के सहारे झूठ था, बुलवा दिया I  
 
पेड़ ने पत्ते गिराए पर हवा के ज़ोर पे,
और सारा ठीकरा पतझड़ के सर रखवा दिया I
 
एक चरवाहे की मीठी धुन पहाड़ी से उठी,
चाँद उतरा, बर्फ पिघली, ये जहाँ महका दिया I
 

गुरुवार, 1 जुलाई 2021

दिल से अपने पूछ के देखो ज़रा ...

बात उन तक तो ये पहुँचा दो ज़रा.
शर्ट का टूटा बटन टांको ज़रा.
 
छा रही है कुछ उदासी देर से,
बज उठो मिस कॉल जैसे तो ज़रा.
 
बात गर करनी नहीं तो मत करो,
चूड़ियों को बोल दो, बोलो ज़रा.
 
खिल उठेगा यूँ ही जंगली फूल भी,
पंखुरी पे नाम तो छापो ज़रा.  
 
तुमको लग जाएगी अपनी ही नज़र,
आईने में भी कभी झाँको ज़रा.
 
तितलियाँ जाती हुई लौट आई हैं,
तुम भी सीटी पे ज़रा, पलटो ज़रा.
 
उफ़, लिपस्टिक का ये कैसा दाग है, 
इस मुए कौलर को तो पौंछो ज़रा.
 
खेल कर, गुस्सा करो, क्या ठीक है, 
हार से पहले कहो, हारो ज़रा.
 
बोलती हो, सच में क्या छोड़ोगी तुम,
दिल से अपने पूछ के देखो ज़रा.

बुधवार, 23 जून 2021

पंख लगा कर पंछी जैसे चल अम्बर चलते हैं ...

सर्द हवा में गर्म चाय का थर्मस भर चलते हैं.
पंख लगा कर पंछी जैसे चल अम्बर चलते हैं.
 
खिड़की खुली देख कर उस दिन शाम लपक कर आई,
हाथ पकड़ कर बोली बेटा चल छत पर चलते हैं.
 
पर्स हाथ में ले कर जब वो पैदल घर से निकली,
इश्क़ ने फिर चिल्ला के बोला चल दफ्तर चलते हैं.
 
सब के साथ तेरी आँखों में दिख जाती है हलचल,
जब जब बूट बजाते हम जैसे अफसर चलते हैं.
 
गश खा कर कुछ लोग गिरे थे, लोगों ने बोला था,
पास मेरे जब आई बोली चल पिक्चर चलते हैं.
 
जब जब उम्र ठहरने लगती दफ्तर की टेबल पे,
धूल फांकती फ़ाइल बोली चल अब घर चलते हैं.
 
याद किसी की नींद कहाँ आने देगी आँखों में,
नींद की गोली खा ले चल उठ अब बस कर चलते हैं.