स्वप्न मेरे: अप्रैल 2012

मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

जिंदगी से रौशनी उस दिन निकल गई ...


धूप मेरे हाथ से जब से फिसल गई 
जिंदगी से रौशनी उस दिन निकल गई  

नाव साहिल तक वही लौटी है आज तक 
रुख हवा का देख जो रस्ता बदल गई 

मुद्दतों के बाद जो बेटा मिला उन्हें     
देखते ही देखते सेहत संभल गई 

दाम होते हैं किसी बच्चे को क्या पता 
फिर खिलौना देख के तबीयत मचल गई 

वो मेरे पहलू में आए दिन निकल गया 
चाँद पहले फिर अचानक रात ढल गई 

लिख तो लेता मैं भी कितने शैर क्या कहूं 
काफिया अटका बहर भटकी गज़ल गई 

लोग हैं मसरूफ अंदाजा नहीं रहा   
चुटकले मस्ती ठिठोली फिर हजल गई    

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

दीदी के पीहर आते ही अब्बा हो जाता हूँ ...


छू लेती है जब मुझको तो अच्छा हो जाता हूँ  
अम्मा से जब मिलता हूँ तो बच्चा हो जाता हूँ  

करता हूँ अब्बा से छुप कर जब कोई शैतानी 
चहरे को मासूम बना के सच्चा हो जाता हूँ 

राखी या होली दीवाली या लोहडी बैसाखी  
दीदी के पीहर आते ही अब्बा हो जाता हूँ 

दस्तक जब देता हूँ बीती यादों के कमरे में 
दीवारों की सीलन से मैं कच्चा हो जाता हूँ 

खाँसी करता रहता हूँ जब बेटे की बैठक में 
उजली सी दीवारों का मैं धब्बा हो जाता हूँ 

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

बड़ी मुश्किल है यूँ रिश्ता निभाना ...


किसी को उम्र भर सर पर बिठाना
बड़ी मुश्किल है यूँ रिश्ता निभाना

हज़ारों ठोकरें मारीं हो जिसने
उसी पत्थर को सीने से लगाना

मेरे गीतों में खुद को पाओगे तुम
कभी तन्हाई में सुनना सुनाना

बड़ी मासूम सी उनकी अदा है
उठा कर के गिराना फिर उठाना

जुनूने इश्क में होता है अक्सर
लगी हो चोट फिर भी मुस्कुराना

जला कर ख़ाक कर सकते हैं घर को
चरागों से है रोशन यूँ ज़माना

कहाँ आसान होता है किसी को 
किसी भी गैर का हंसना हँसाना

नहीं आती है सबको रास शोहरत
बुलंदी पर नही रहता ठिकाना 

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

बच्चों ने भी बचपन पीछे छोड़ दिया ...

जंगल जाने की जो हिम्मत रखते हैं
 काँटों की परवाह कहाँ वो करते हैं

 पुरखे हम से दूर कहाँ रह पाते हैं
 बच्चों की परछाई में ही दिखते हैं

 साहिल पर कितने पत्थर मिल जाएँगे
 मोती तो गहरे जा कर ही मिलते हैं

 दो आँसू तूफान खड़ा कर देते हैं
 कहने को बस आँखों में ही पलते हैं

 कलियों को इन पेड़ों पर ही रहने दो
 गुलदस्ते में फूल कहाँ फिर खिलते हैं

 तू तू मैं मैं होती है अब आपस में
 गलियों में तंदूर कहाँ अब जलते हैं

 बच्चों ने भी बचपन पीछे छोड़ दिया
 कंप्यूटर की बातें करते रहते हैं

कहते हैं गुरु बिन गत नहीं ... उपरोक्त गज़ल में भी कुछ शेरों में दोष है और उसको गुरुदेव पंकज सुबीर जी की पारखी नज़र ने देख लिया ... उनका बहुत बहुत आभार गज़ल को इस नज़रिए से देखने का ... यहां मैं शेर के दोष और उनके सुझाव और विश्लेषण को लिख रहा हूँ जिससे की मेरे ब्लॉग को पढ़ने वालों को भी गज़ल की बारीकियां समझने का मौका मिलेगा ...

जंगल जाने की जो हिम्मत रखते हैं
 काँटों की परवाह कहाँ वो करते हैं ( मतले में ईता का दोष बन रहा है किन्‍तु ये छोटी ईता है जिसे हिंदी में मान्‍य किया गया है । मतले के दोनों काफियों में रखते और करते में जो ‘ते’ है वो शब्‍द से हटने के बाद भी मुकम्‍मल शब्‍द ‘रख’ और ‘कर’ बच रहे हैं । इसका मतलब ‘ते’ रदीफ हो गया है । तो अब रदीफ केवल ‘हैं’ नहीं होकर ‘ते हैं’ हो गया है । बचे हुए ‘रख’ और ‘कर’ समान ध्‍वनि वाले शब्‍द अर्थात काफिया होने की शर्त पर पूरा नहीं उतर रहे हैं । खैर ये छोटी ईता है सो इसे हिंदी में माफ किया गया है । मगर वैसे ये है दोष ही । ) 

 पुरखे हम से दूर कहाँ रह पाते हैं ( रदीफ और काफिये की ध्‍वनियों को मतले के अलावा किसी दूसरे शेर के मिसरा उला में नहीं आना चाहिये हुस्‍ने मतला को छोड़कर । तो इसको यूं किया जा सकता है ‘दूर कहां रह पाते हैं पुरखे हमसे’)
 बच्चों की परछाई में ही दिखते हैं

 दो आँसू तूफान खड़ा कर देते हैं ( इसमें आाखिर में रदीफ का दोहराव और काफिये की ध्‍वनि का दोहराव है इसको यूं करना होगा ‘कर देते हैं दो आंसू तूफान खड़़ा ) 
 कहने को बस आँखों में ही पलते हैं

 तू तू मैं मैं होती है अब आपस में ( रदीफ की ध्‍वनि आ रही है इसको यूं करना होगा ‘आपस में होती है तू तू मैं मैं अब’ )
 गलियों में तंदूर कहाँ अब जलते हैं