कितना सुकून देता है उन
सड़कों पे लौटना
जहां लिखा करते थे खडिया से
अपना नाम कभी
हाथ बढा के आसमान को छू
लेने का होंसला लिए
गुज़र जाता था वक़्त
समय पे अपने निशान छोड़ता
यही तो थी वो सड़क जहां तूने
चलना सिखाया था
वादियों से वापस आती अपनी
ही आवाज़ें हम सफर होती हैं
कोई साथ न हो तो भी
परछाइयां साथ देती हैं
तूने ही तो कहा था
तभी तो इस तन्हा सफर मे
तन्हाइयों का एहसास
डस नहीं पाया, डरा नहीं
पाया
वैसे भी तेरे कहे के आगे,
मैंने सोचा नहीं
सच पूछो तो उन
ब्रह्म-वाक्यों के सहारे
जीवन कितना सहज हो जाता है,
अब तक महसूस कर रहा हूं
अपने छिले हुए घुटनों को
देख
बढ़ जाती है शिद्दत, उन तमाम
रस्तों पे लौटने की
चाहता हूं वहां उम्र के उस
दौर में जाना
जब फिर से किसी की ऊँगली की
जरूरत हो मुझे
मैं जानता हूं तुम्हारी
ऊँगली नहीं मिलने वाली माँ
पर तेरा अक्स लिए
मेरी बेटी तो है उन सड़कों
पे ले जाने के लिए ...