स्वप्न मेरे: प्रकृति मेरे कैनवास पर

मंगलवार, 24 मार्च 2009

प्रकृति मेरे कैनवास पर

जब कभी करता हूँ कोशिश
जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
तुम्हारा अक्स उभर आता है
मैं रंग बिरंगे रंगों में
अटक के रह जाता हूँ
टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
उन आडी तिरछी रेखाओं को
उसके बदलते रंगों को................
धीरे धीरे मुझे उसमे
अपना अक्स नज़र आने लगता है
एकाकार होकर हमारा अक्स
प्रकृति के रंगो में घुल जाता है
चिर काल से चली आ रही प्रकृति में खो जाता है
मिलन.....
कैसा मिलन
जैसे अनंत का अनंत से
शून्य का शून्य से
धरती का आकाश से
पृथ्वी का भ्रमांड से
सत्य का शिव से
शिव का ब्रम्हा से
लोक का आलोक से
आलोक का परलोक से
जीव का आत्मा से
आत्मा का परमात्मा से
आदि का अंत से
अंत का अनंत से
अनंत का चिर अनंत से
देखो
इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
जीवन के रंगों से लिपटी
स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है

36 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी रचना , बहुत सुन्दर मिलन, आदि का अंत से

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह दिगम्बर भाई बहुत ही अच्छी कविता।

    "जब कभी करता हूँ कोशिश
    जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
    प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
    तुम्हारा अक्स उभर आता है"

    मुझे कई जगह कविता ने भीतर तक छूआ।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह दिगम्बर भाई बहुत ही अच्छी कविता।

    "जब कभी करता हूँ कोशिश
    जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
    प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
    तुम्हारा अक्स उभर आता है"

    मुझे कई जगह कविता ने भीतर तक छूआ।

    जवाब देंहटाएं
  4. इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
    जीवन के रंगों से लिपटी
    स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है

    आज तो आपने मेरे दिल की बात जैसे अपने कलम से कह दी ..कुछ इसी तरह की कविता मैंने भी अभी पोस्ट की है :) यह अनंत यात्रा निरंतर यूँ ही चलती रहती है ..सुन्दर भाव भीनी अभिव्यक्ति ...

    जवाब देंहटाएं
  5. जैसे अनंत का अनंत से
    शून्य का शून्य से
    धरती का आकाश से
    पृथ्वी का भ्रमांड से
    सत्य का शिव से
    शिव का ब्रम्हा से
    लोक का आलोक से
    आलोक का परलोक से
    जीव का आत्मा से
    आत्मा का परमात्मा से
    आदि का अंत से
    अंत का अनंत से
    अनंत का चिर अनंत से
    देखो
    इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
    जीवन के रंगों से लिपटी
    स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है

    wah digamber ji, kya adhyamik rango men rangi rachna, naya shabd chitra, badhai.anupam.

    जवाब देंहटाएं
  6. जैसे अनंत का अनंत से
    शून्य का शून्य से
    धरती का आकाश से
    पृथ्वी का भ्रमांड से
    सत्य का शिव से
    शिव का ब्रम्हा से
    लोक का आलोक से
    आलोक का परलोक से
    जीव का आत्मा से
    आत्मा का परमात्मा से
    आदि का अंत से
    अंत का अनंत से
    अनंत का चिर अनंत से
    देखो
    इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
    जीवन के रंगों से लिपटी
    स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है

    wah digamber ji, kya adhyamik rango men rangi rachna, naya shabd chitra, badhai.anupam.

    जवाब देंहटाएं
  7. आदरणीय नासवा जी ,
    बहुत सुन्दर कविता . विशेष कर ये पंक्ति ...बहुत अच्छी ...
    इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
    जीवन के रंगों से लिपटी
    स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है
    बधाई .
    पूनम

    जवाब देंहटाएं
  8. जब कभी करता हूँ कोशिश
    जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
    प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
    तुम्हारा अक्स उभर आता है......
    आपकी ये लाइनस मेरे अंतर्मन को छू गयी....
    कविता बहुत भावुक और भावपूर्ण है...

    जवाब देंहटाएं
  9. दिगंबर जी ,
    आपकी ये कविता तो अद्भुत है ..प्रकृति ,भावों एवं जीवन दर्शन का अनोखा संगम .वो भी इतने सरल शब्दों में ...विशेष रूप से इन पंक्तियों में तो पूरा भारतीय दर्शन ..है ..

    जैसे अनंत का अनंत से
    शून्य का शून्य से
    धरती का आकाश से
    पृथ्वी का भ्रमांड से
    सत्य का शिव से
    शिव का ब्रम्हा से
    लोक का आलोक से
    आलोक का परलोक से
    जीव का आत्मा से
    आत्मा का परमात्मा से
    आदि का अंत से
    अंत का अनंत से
    अनंत का चिर अनंत से
    बधाई
    हेमंत कुमार

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत नायाब रचना. शुभकामनाएं.

    रामराम.

    जवाब देंहटाएं
  11. जब कवि के ख्याल ,दर्शन और प्रकृति का सानिध्य एक साथ मिल जाएँ तो एक खूबसूरत अद्भुत रचना जन्म लेती है.आप की इस कविता में भी आज दर्शन का असर दिख रहा है..

    जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
    प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
    तुम्हारा अक्स उभर आता है......
    ------------
    --आदि का अंत से
    अंत का अनंत से
    अनंत का चिर अनंत से
    देखो....................................
    -
    'आदि से अंत 'तक के मिलन का रास्ता
    जीवन की चाह से शुरू हो कर कहाँ तक पहुँच सकता है.यह कविता खुद कह रही है.
    एक पूर्ण और खूबसूरत रचना.

    जवाब देंहटाएं
  12. जब कभी करता हूँ कोशिश
    जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
    प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
    तुम्हारा अक्स उभर आता है
    बहुत ही सुंदर रचना, हर तरफ़ तु ही तु....
    धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  13. शून्य का शून्य से
    धरती का आकाश से
    पृथ्वी का भ्रमांड से
    सत्य का शिव से
    शिव का ब्रम्हा से
    लोक का आलोक से
    आलोक का परलोक से
    जीव का आत्मा से
    आत्मा का परमात्मा से
    आदि का अंत से
    अंत का अनंत से

    WAH PEHLI BAAR KOI POEM AANKH BAND KARKE PADI HAI...

    ...NAISARGIK !!
    KALAM KI KOOCHI SE BANA CANVAS ADBHOOT HAI...

    जवाब देंहटाएं
  14. पर.....
    नहीं दिखा पाती हूँ
    तुम्हे वह रूप मैं तुम्हारा
    जैसे संगम पर दिखती नहीं
    टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
    उन आडी तिरछी रेखाओं को
    उसके बदलते रंगों को................
    धीरे धीरे मुझे उसमे
    अपना अक्स नज़र आने लगता है

    बहुत बढ़िया। भावपूर्ण।।

    निहारता हूँ मैं खुद को जब भी तेरा ही चेहरा उभर के आता।
    ये आईने की खुली बगावत, क्या तुमने जो मैंने देखा।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  15. सुन्दर रचना, अंतर्मन की उडान बेहद प्रसंशनीय है ।

    जवाब देंहटाएं
  16. जैसे अनंत का अनंत से
    शून्य का शून्य से
    धरती का आकाश से
    पृथ्वी का भ्रमांड से
    सत्य का शिव से
    शिव का ब्रम्हा से
    लोक का आलोक से
    आलोक का परलोक से
    जीव का आत्मा से
    आत्मा का परमात्मा से
    आदि का अंत से
    अंत का अनंत से
    " very beautiful touching ...loved reading this lines specially....they carry very true feeling of love and life.."

    Regards

    जवाब देंहटाएं
  17. भाई दिगम्बर जी,आज तो आपने कमाल ही कर दिया.....इन्द्रधनुष के सातों रंग कविता में उढेल के रख दिए......प्रकृ्ति और दर्शन का बेहतरीन सुमेल.....आभार

    जवाब देंहटाएं
  18. इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
    जीवन के रंगों से लिपटी
    स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है ...

    ऐसा लगता है,प्रकृति के संग मिलकर
    आपने अब असली होली मनाई है

    जवाब देंहटाएं
  19. वाह !! अतिसुन्दर भावाभिव्यक्ति !!

    आलौकिक प्रेम के उद्दात्त स्वरुप का मर्मस्पर्शी चित्रण किया है आपने अपनी इस रचना में...वाह !!

    मन बाँध लिया आपकी इस सुन्दर रचना ने...

    सुन्दर भावपूर्ण हृदयस्पर्शी इस रचना के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  20. बहूत अच्छी रचना है
    जीव का आत्मा से
    आत्मा का परमात्मा से
    आदि का अंत से
    अंत का अनंत से
    अनंत का चिर अनंत से .
    इन पंक्तियों से दार्शनिकता प्रगट हो रही है .बहूत बढ़िया

    जवाब देंहटाएं
  21. बहुत ही बेहतरीन रचना लिख डाली आपने जी। सच पढकर आनंद आ गया।

    जवाब देंहटाएं
  22. सचमुच बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति ,भावनाओं के धरातल पर जीवन के रंगों से लिपटी हुयी कविता,बधाई स्वीकारें !

    जवाब देंहटाएं
  23. जिंदगी के सफेद खुले कैनवस पर
    प्रकृति के मासूम रंग उतारने की
    तुम्हारा अक्स उभर आता है
    मैं रंग बिरंगे रंगों में
    अटक के रह जाता हूँये पंकतियाँ बड़ी अच्छी लगीं ।

    जवाब देंहटाएं
  24. वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आशा है आपकी कलम इसी तरह चलती रहेगी और हमें अच्छी -अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिलेंगे. बधाई स्वीकारें।

    आप मेरे ब्लॉग पर आए और एक उत्साहवर्द्धक कमेन्ट दिया, शुक्रिया.

    आप के अमूल्य सुझावों और टिप्पणियों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...

    Link : www.meripatrika.co.cc

    …Ravi Srivastava
    E-mail: ravibhuvns@gmail.com

    जवाब देंहटाएं
  25. मिलन पर शायद इससे सुन्दर प्रस्तुति नहीं हो सकती थी............

    सुन्दर एवं शशक्त प्रस्तुति पर बधाई.

    चन्द्र मोहन गुप्त

    जवाब देंहटाएं
  26. इस सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए साधुवाद.

    जवाब देंहटाएं
  27. सच कहूँ दिगम्बर जी तो मैं इन फ्री-वर्स और इन कतित मुक्त-छंद वाली कविताओं का रसिया नहीं हूँ, किंतु इस रचना की कुछ पंक्तियाँ बहुत भायीं और एक तुक में न होते हुये भी, अजब सी रमणीयता लिये हुये हैं....

    जवाब देंहटाएं
  28. इन्द्र धनुषी संगों से सजी प्रकृति
    जीवन के रंगों से लिपटी
    स्वयं मेरे कैनवास पर उतार आई है
    प्रकृति को आपने अपने कैनवास में समे‍ट लिया है ...खूबसूरत रचना लिखी है आपने शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं
  29. वाह अच्छी कविता के लिये बधाई स्वीकार करें

    जवाब देंहटाएं
  30. मैं रंग बिरंगे रंगों में
    अटक के रह जाता हूँ
    टकटकी लगाए देखता रहता हूँ
    उन आडी तिरछी रेखाओं को
    उसके बदलते रंगों को................
    धीरे धीरे मुझे उसमे
    अपना अक्स नज़र आने लगता है
    एकाकार होकर हमारा अक्स

    waah..!! bhot sunder...!!

    kya kahun Digamber ji aap to gazal aur kavita donon me kmal karte ho...!!

    जवाब देंहटाएं

आपके विचारों और मार्गदर्शन का सदैव स्वागत है