स्वप्न मेरे: जनवरी 2015

सोमवार, 26 जनवरी 2015

चाहत जीने की

बेतरतीब लम्हों की चुभन मजा देती है ... महीन कांटें अन्दर तक गढ़े हों तो उनका मीठा मीठा दर्द भी मजा देने लगता है ... एहसास शब्दों के अर्थ बदलते हैं या शब्द ले जाते हैं गहरे तक पर प्रेम हो तो जैसे सब कुछ माया ... फूटे हैं कुछ लम्हों के बीज अभी अभी ...

टूट तो गया था कभी का
पर जागना नहीं चाहता तिलिस्मी ख्वाब से
गहरे दर्द के बाद मिलने वाले सकून का वक़्त अभी आया नही था

लम्हों के जुगनू बेरहमी से मसल दिए
कि आवारा रात की हवस में उतर आती है तू
बिस्तर की सलवटों में जैसे बदनाम शायर की नज़्म
नहीं चाहता बेचैन कर देने वाले अलफ़ाज़
मजबूर कर देते हैं जो जंगली गुलाब को खिलने पर

महसूस कर सकूं बासी यादों की चुभन
चल रहा हूँ नंगे पाँव गुजरी हुयी उम्र की पगडण्डी पे
तुम और मैं ... बस दो किरदार
वापसी के इस रोलर कोस्टर पर फुर्सत के तमाम लम्हों के साथ

धुंए के साथ फेफड़ों में जबरन घुसने की जंग में
सिगरेट नहीं अब साँसें पीने लगा हूँ
खून का उबाल नशे की किक से बाहर नहीं आने दे रहा

काश कहीं से उधार मिल सके साँसें
बहुत देर तक जीना चाहता हूँ जंगली गुलाब की यादों में


सोमवार, 19 जनवरी 2015

क्या सच में कोई है

ज़िन्दगी जो न दिखाए वो कम है ... आस पास बिखरे माहोल से जुड़ा हर पल कालिख की तरफ धकेला जा रहा है ... और धकेलने वाला भी कौन ... इंसान, और वो भी इंसानियत के नाम पर ... पट्टी तो किसी ने नहीं बाँधी आँख पर, फिर भी इंसान है की उसे नज़र नहीं आता ... शायद देखना नहीं चाहता ...

पूछता हूँ देह से परे हर देह से
कि कह सके कोई आँखों से आँखें मिला कर
नहीं जागा शैतान मेरे अन्दर
फिर चाहे काबू पा लिया हो उस पर

चाहता हूँ पूछना जानवर से
जानवर होने की प्रवृति क्या आम है उनमें
या जरूरी है इंसान होना इस काबलियत के लिए

यही सवाल पंछी, कीट पतंगों पेड़ पौधों से भी करता हूँ

कुछ काँटों ने कहा हम नहीं दर्द के व्योपारी
शैतान तो देखा नहीं पर आम चर्चा है कायनात में
है कोई शैतान के नाम से इंसान जैसा
बांटता फिरता है हर दर्द

सुनते हैं इंसान से ऊपर भी रहती है कोई शख्सियत
जिसका प्रचलित नाम खुदा है ... हालांकि लगता नहीं

वैसे तो जंगली गुलाब भी खूब खिलता है यादों में
पर दीखता तो नहीं ...

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

यादें ...

कभी ख़त्म नहीं होता सिलसिला ... समझ से परे है कि जी रहा हूँ यादों में या यादें हैं तो जी रहा हूँ ... कोई एहसास, कोई नशा ... कुछ तो है जो रहता है मुसलसल तेरी यादों के साथ ... जब कभी जिंदगी की पगडण्डी पे यादों के कुछ लम्हे अंकुरित होने लगते हैं, उसी पल महकने लगती है वही पुरानी खुशबू मेरे जेहन में ...

टूटते तारों को देखना
जैसे प्रेमिका की मांग में पड़े सिन्दूर का याद आना

जंगली गुलाब की खुशबू लिए
आँखों से बहते खून के कतरे
बेवजह तो नहीं

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खामोशी तोड़ने की जिद्द
कानों का अपने आप बजना

मैं जानता हूँ वो हंसी की खनक नहीं
वो तेरी सिसकी भी नहीं
एक सरगोशी है तेरे एहसास की
गुज़र जाती है जो जंगली गुलाब की खुशबू लिए

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सन्नाटा इतना की सांस लेना भी गुनाह
ऐसे में बेसाख्ता पत्तों की सरसराहट
यकीनन बहुत करीब से गुज़रा है कोई लम्हा
जंगली गुलाब की खुशबू लिए

सोमवार, 5 जनवरी 2015

कभी भी ... कुछ भी ...

गौर से देखा मैंने चाँद , फिर तारे, फिर तुम्हें और फिर अपने आप को ... कुछ भी बदला हुआ नहीं लगा ... हवा, बादल, रेत, समुंदर, सडकें ... सब थे पर बदला हुआ कुछ भी नहीं था ... पर फिर भी था ... कुछ तो था पिछले दिनों ... हालांकि नया सा तो कुछ भी नहीं हुआ था पर सब लोग कह रहे थे नया साल आ गया ... क्या सचमुच ... और क्यों ...

वजह तो कुछ भी नहीं
पर अच्छा लगता था बातों के बीच अचानक तेरा रुक जाना
धीरे से मुस्कुराना
एक टक देखना फिर जोर से खिलखिलाना
मैं जानता था
वजह तो उसकी भी नहीं थी

पता होते हुए भी
कि तपते रेगिस्तान में नहीं आते मुसाफिर
खिलते हैं कैक्टस पे फूल पीले हो चुके काँटों के साथ
वजह तो उसकी भी नहीं होती

वजह तो सागर की छाती पे बरसती बरसात की भी नहीं होती
और ठक ठक गिरते ओलों की तो बिलकुल भी नहीं

तुम नहीं आओगी जैसे गुज़रा वक्त नहीं आता
टूटे ख्वाब आँखों में नहीं आते
फिर भी इंतज़ार है की बस रहता ही है
वजह तो कुछ भी नहीं

आस्था को तर्क पे तोलना
जंगली गुलाब में तेरा अक्स ढूंढना
वजह तो कुछ भी नहीं

वजह तो कुछ भी नहीं
नया साल भी हर साल आता है
बेइंतिहा तुम भी याद आती हो