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शनिवार, 6 अगस्त 2022
फ़लसफा - लम्बी उम्र का ...
माँगता है इन्सान दुआ लम्बी उम्र की
सोमवार, 21 सितंबर 2020
उफ़ .... तुम भी न
पता है
तुमसे रिश्ता ख़त्म होने के बाद
कितना हल्का महसूस कर रहा हूँ
सलीके से रहना
ज़ोर से बात न करना
चैहरे पर जबरन मुस्कान रखना
"सॉरी"
"एसक्यूस मी"
भारी भरकम संबोधन से बात करना
"शेव बनाओ"
छुट्टी है तो क्या ...
"नहाओ"
कितना कचरा फैलाते हो
बिना प्रैस कपड़े पहन लेते हो
धीमे बोलने के बावजूद
नश्तर सी चुभती तुम्हारी बातें
बनावटी जीवन की मजबूरी
अच्छे बने रहने का आवरण
उफ्फ ... कितना बोना सा लगने लगा था
अच्छा ही हुआ डोर टूट गई
कितना मुक्त हूँ अब
घर में लगी हर तस्वीर बदल दी है मैने
सोफे की पोज़ीशन भी बदल डाली
फिल्मी गानों के शोर में
अब देर तक थिरकता हूँ
ऊबड़-खाबड़ दाडी में
जीन पहने रहता हूँ
तुम्हारे परफ्यूम की तमाम शीशियाँ
गली में बाँट तो दीं
पर क्या करूँ
वो खुश्बू मेरे ज़हन से नही जा रही
और हाँ
वो धानी चुनरी
जिसे तुम दिल से लगा कर रखती थीं
उसी दिन से
घर के दरवाजे पर टाँग रक्खी है
पर कोई कम्बख़्त
उसको भी नही ले जा रहा ...
सोमवार, 22 जून 2020
ईगो ...
दो पीठ के बीच का फांसला
मुड़ने के बाद ही पता चल पाता है
हालांकि इन्च भर दूरी
उम्र जितनी नहीं
पर सदियाँ गुज़र जाती हैं तय करने में
"ईगो" और "स्पोंड़ेलाइटिस"
कभी कभी एक से लगते हैं दोनों
फर्क महसूर नहीं होता
दर्द होता है मुड़ने पे
पर मुश्किल भी नहीं होती
जरूरी है बस एक ईमानदार कोशिश
दोनों तरफ से
एक ही समय,
एक ही ज़मीन पर
हाँ ... एक और बात
ज़रूरी है मुड़ने की इच्छा का होना
सोमवार, 15 जून 2020
यूँ ही गुज़रा - एक ख्याल ...
शबनम से लिपटी घास पर
नज़र आते हैं कुछ क़दमों के निशान
सरसरा कर गुज़र जाता है झोंका
जैसे गुजरी हो तुम छू कर मुझे
हर फूल देता है खुशबू जंगली गुलाब की
खुरदरी हथेलियों की चिपचिपाहट
महसूस कराती है तेरी हाथों की तपिश
उड़ते हुए धुल के अंधड़ में
दिखता मिटता है तेरा अक्स अकसर
जानता हूँ तुम नहीं हो आस-पास कहीं
पर कैसे कह दूँ की तुम दूर हो ...
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 8 जून 2020
सच के झूठ ... क्या सच ...
सच
जबकि होता है सच
लग जाती है
मुद्दत
सच की ज़मीन पाने में
झूठ
जबकि नहीं होता सच
फ़ैल जाता है
आसानी से
सच हो जैसे
हालांकि अंत
जबकि रह जाता है
केवल सच
पर सच को मिलने तक
सच की ज़मीन
झूठ हो जाती है
तमाम उम्र
तो क्या है सच
ज़िन्दगी ...
या प्राप्ति
सच या झूठ की ...
सोमवार, 1 जून 2020
सपने आँखों में
किसी की आँखों में झाँकना
उसके दर्द को खींच निकालना नहीं होता
ना ही होता है उसके मन की बात
लफ्ज़-दर-लफ्ज़ पढ़ना
उसकी गहरी नीली आँखों में
प्रेम ढूँढना तो बिलकुल भी नहीं होता
हाँ ... होते हैं कुछ अधूरे सपने उन आँखों में
देखना चाहता हूँ जिन्हें
समेटना चाहता हूँ जिनको
करना चाहता हूँ दुआ जिनके पूरे होने की
सपनों का टूट जाना
ज़िन्दगी के छिज जाने से कम नहीं ...
समेटन चाहता हूँ साँस लेती पँखुरी-पँखुरी
चाहता हूँ खिल उठे जंगली गुलाब ...
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 25 मई 2020
क्या सच में ...
अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ
एक तुम हो जो सुनती नहीं
हालांकि ये चाँद, सूरज ... ये भी नहीं सुनते
और हवा ...
इसने तो जैसे “इगनोरे” करने की ठान ली है
ठीक तुम्हारी तरह
धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज मेरे पहलू से
कितनी बार तो कहा है
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं
खिलता है कायनात में जगली गुलाब कहीं
उगता है रोज़ सूरज के नाम से
आकाश की बादल भरी ज़मीन पर
अरे सुनो ... कहीं तुम ही तो ...
इसलिए तो नहीं उठ जाती रोज़ मेरे पहलू से मेरे
... ?
#जंगली_गुलाब
शनिवार, 2 मई 2020
चाहत या सोच की उड़ान ... ?
पूछता हूँ अपने आप से ... क्या प्रेम रहा है हर वक़्त
... या इसके आवरण के पीछे छुपी रहती है शैतानी सोच ... अन्दर बाहर एक बने रहने का नाटक करता इंसान ... क्या थक कर अन्दर या बाहर के किसी एक सच को अंजाम
दे पायेगा ... सुनो तुम अगर पढ़ रही हो तो इस बात को दिल से न लगाना ... सच तो तुम जानती
ही हो ...
तुम्हें देख कर मुस्कुराता हूँ
जूड़े में पिन लगाती तुम कुछ गुनगुना रही हो
वर्तमान में रहते हुए
अदृश्य वर्तमान में उतर जाने की चाहत रोक नहीं पाता
हालांकि रखता हूँ अपना चेतन वर्तमान भी साथ
मेरे शैतान का ये सबसे अच्छा शग़ल रहा है
चेहरे पर मुस्कान लिए "स्लो मोशन" में
आ जाता हूँ तुम्हारे इतना करीब
की टकराने लगते है
तुम्हारी गर्दन के नर्म रोएं, मेरी गर्म साँसों से
ठीक उसी समय
मुन्द्वा देता हूँ नशे के आलम में डूबी तुम्हारी दो
आँखें
गाढ़ देता हूँ जूड़े में लगा पिन, चुपके से तुम्हारी
गर्दन में
यक-ब-यक लम्बे होते दो दांतों की तन्द्रा तोड़ कर
लौट आता हूँ वर्तमान में
मसले हुए जंगली गुलाब की गाढ़ी लाली
चिपक जाती है उँगलियों में ताज़ा खून की खुशबू लिए
मैं अब भी मुस्कुरा रहा हूँ तुम्हे देख कर
जूड़े में पिन लगाती तुम भी कुछ गुनगुना रही हो
इश ... पढ़ा तो नहीं न तुमने ...
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 27 अप्रैल 2020
दास्ताँ - हसीन सपनों की ...
इंद्र-धनुष के सात रँगों में रँग नहीं होते ... रँग सूरज की
किरणों में भी नहीं होते और आकाश के नीलेपन में तो बिलकुल भी नहीं ... रँग होते
हैं तो देखने वाले की आँखों में जो जागते हैं प्रेम के एहसास से ...
दुनिया रंगीन दिखे
इसलिए तो नहीं भर लेते रँग आँखों में
उदास रातों की कुछ उदास यादें
आँसू बन के न उतरें
तो खुद-ब-खुद रंगीन हो जाती है दुनिया
दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब हसीन लम्हों के द्रख्त
जड़ बनाने लगते हैं दिल की कोरी ज़मीन पर
क्योंकि उसके साए में उगे रंगीन सपने
जगमगाते हैं उम्र भर
सच पूछो तो दुनिया तब भी
रंगीन होती है
जब तेरे एहसास के कुछ कतरे लिए
फूल फूल डोलती हैं तितलियाँ
ओर उनके पीछे भागते कुछ मासूम बच्चे
रँग-बिरँगे कपड़ों में
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी पे आसमानी शाल ओढ़े
तुम भी तो करती हो चहल-कदमी रोज़ मेरे ज़ेहन में
दुनिया इसलिए भी तो रंगीन होती है
दुनिया इसलिए भी रंगीन होती है
कि टांकती हो तुम जुड़े में जंगली गुलाब
#जंगली_गुलाब
बुधवार, 8 अप्रैल 2020
हैंग-ओवर उम्मीद का ...
एहसास ... जी हाँ ... क्यों करें किसी दूसरे के एहसास की
बातें, जब खुद का होना भी बे-मानी हो कभी कभी ... अकसर ज़िन्दगी गुज़र
जाती है खुद को च्यूंटी काटते ... जिन्दा हूँ, तो जिन्दा होने एहसास क्यों नहीं
होता ...
उँगलियों में चुभे कांटे
इसलिए भी गढ़े रहने देता हूँ
की हो सके एहसास खुद के होने का
हालाँकि करता हूँ रफू ... जिस्म पे लगे घाव
फिर भी दिन है की रोज टपक जाता है ज़िन्दगी से
उम्मीद घोल के पीता हूँ हर शाम
कि बेहतर है सपने टूटने से
उम्मीद के हैंग-ओवर में रहना
सिवाए इसके की खुदा याद आता है
वजह तो कुछ भी नहीं तुम्हें प्रेम करने की
और वजह जंगली गुलाब के खिलने की ...?
ये कहानी फिर कभी ...
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 23 मार्च 2020
यूँ ही ... एक ख़ुशबू ...
हालाँकि छूट गया था शहर
छूट जाती है जैसे उम्र समय के साथ
टूट गया वो पुल
उम्मीद रहती थी जहाँ से लौट आने की
पर एक ख़ुशबू है, भरी रहती है जो नासों में
बिना खिंचे, बिना सूंघे
लगता है खिलने लगा है आस-पास
जंगली गुलाब का फूल कोई
या ... गुजरी हो तुम इस रास्ते से कभी
वैसे मनाही तुम्हारी याद को भी नहीं
उठा लाती है जो तुम्हें
जंगली गुलाब की ख़ुशबू लपेटे
जंगली गुलाब की ख़ुशबू लपेटे
#जंगली_गुलाब
मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019
खो कर ही इस जीवन में कुछ पाना है ...
मूल मन्त्र इस श्रृष्टि का ये जाना है
खो कर ही इस जीवन में कुछ
पाना है
नव कोंपल उस
पल पेड़ों पर आते हैं
पात पुरातन जड़
से जब झड़ जाते हैं
जैविक घटकों
में हैं ऐसे जीवाणू
मिट कर खुद जो
दो बन कर मुस्काते हैं
दंश नहीं मानो,
खोना अवसर समझो
यही शाश्वत
सत्य चिरंतन माना है
खो कर ही इस
जीवन में ...
बचपन जाता है
यौवन के उद्गम पर
पुष्प नष्ट होता
है फल के आगम पर
छूटेंगे रिश्ते,
नाते, संघी, साथी
तभी मिलेगा
उच्च शिखर अपने दम पर
कुदरत भी बोले-बिन,
बोले गहरा सच
तम का मिट
जाना ही सूरज आना है
खो कर ही इस
जीवन में ...
कुछ रिश्ते टूटेंगे
नए बनेंगे जब
समय मात्र
होगा बन्धन छूटेंगे जब
खोना-पाना, मोह
प्रेम दुःख का दर्पण
सत्य सामने
आएगा सोचेंगे जब
दुनिया
रैन-बसेरा, माया, लीला है
आना जिस पल जग
में निश्चित जाना है
खो कर ही इस
जीवन में ...
बुधवार, 25 सितंबर 2019
माँ ...
पलट के आज फिर आ गई २५ सितम्बर ... वैस तो तू आस-पास ही होती है पर फिर भी आज
के दिन तू विशेष आती है ... माँ जो है मेरी ... पिछले सात सालों में, मैं जरूर कुछ
बूढा हुआ पर तू वैसे ही है जैसी छोड़ के गई थी ... कुछ लिखना तो बस बहाना है मिल
बैठ के तेरी बातें करने का ... तेरी बातों को याद करने का ...
सारी सारी रात नहीं फिर सोई है
पीट के मुझको खुद भी अम्मा रोई है
गुस्से में भी मुझसे प्यार झलकता था
तेरे जैसी दुनिया में ना कोई है
सपने पूरे कैसे हों ये सिखा दिया
अब किन सपनों में अम्मा तू खोई है
हर मुश्किल लम्हे को हँस के जी लेना
गज़ब सी बूटी मन में तूने बोई है
शक्लो-सूरत, हाड़-मास, तन, हर शक्ति
धडकन तुझसे, तूने साँस पिरोई है
बचपन से अब तक वो स्वाद नहीं जाता
चलती फिरती अम्मा एक रसोई है
सोमवार, 15 अप्रैल 2019
चाँद उतरता है होले से ज़ीने पर ...
हुस्नो-इश्क़, जुदाई, दारू
पीने पर
मन करता है
लिक्खूं नज़्म पसीने पर
खिड़की से बाहर
देखो ... अब देख भी लो
क्यों पंगा लेती
हो मेरे जीने पर
सोहबत में बदनाम
हुए तो ... क्या है तो
यादों में रहते
हैं यार कमीने पर
लक्कड़ के लट्टू
थे, कन्चे कांच के थे
दाम नहीं कुछ भी अनमोल नगीने पर
राशन, बिजली, पानी, ख्वाहिश, इच्छाएं
चुक जाता है सब
कुछ यार महीने पर
खुशबू, बातें, इश्क़ ... ये कब तक रोकोगे
लोहे की दीवारें, चिलमन
झीने पर
छूने से नज़रों के
लहू टपकता है
इश्क़ लिखा है
क्या सिन्दूर के सीने पर
और वजह क्या होगी
... तुझसे मिलना है
चाँद उतरता है
होले से ज़ीने पर
सोमवार, 8 अक्तूबर 2018
प्रेम-किस्से ...
यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
शहर की रंग-बिरंगी इमारतों से ये नहीं निकलते
न ही शराबी मद-मस्त आँखों से छलकते हैं
ज़ीने पे चड़ते थके क़दमों की आहट से ये नहीं जागते
बनावटी चेहरों की तेज रफ़्तार के पीछे छिपी फाइलों के बीच
दम तोड़ देते हैं ये किस्से
कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
पनपने को अंकुर प्रेम का
जितना ज़रूरी है दो पवित्र आँखों का मिलन
उतनी ही जरूरी है तुम्हारी धूप की चुभन
जरूरी हैं मेरे सांसों की नमी भी
उसे आकार देने को
कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
प्रेम-किस्से आसमान से भी नहीं टपकते
ज़रुरी होता है प्रेम का इंद्र-धनुष बनने से पहले
आसमान से टपकती भीगी बूँदें
ओर तेरे अक्स से निकलती तपिश
जैसे जरूरी है लहरों के ज्वार-भाटा बनने से पहले
अँधेरी रात में तन्हा चाँद का भरपूर गोलाई में होना
ओर होना ज़मीन के उतने ही करीब
जितना तुम्हारे माथे से मेरे होठ की दूरी
कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
सोमवार, 20 अगस्त 2018
बातें ... खुद से ...
तुम नहीं होती तो कितना कुछ सोच जाता हूँ ... विपरीत बातें
भी लगता है एक सी हैं ... ये सच्ची हैं या झूठी ...
चार पैग व्हिस्की के बाद सोचता हूँ
नशा तो चाय भी दे देती
बस तुम्हारे नाम से जो पी लेता ...
हिम्मत कर के कई बार झांकता हूँ तुम्हारी आँखों में, फिर
सोचते हूँ ... सोचता क्या कह ही देता हूँ ...
कुछ तो है जो दिखता है तुम्हारी नीली आँख में
वो बेरुखी नहीं तो प्रेम का नाम दे देना ...
फुटपाथ से गुज़रते हुए तुम्हे कुछ बोला था उस दिन, हालांकि
तुम ने सुना नहीं पर कर लेतीं तो सच साबित हो जाती मेरी बात ...
दिखाना प्रेम के नाम पर
किसी ज्योतिषी को अपना हाथ
मेरा नाम का पहला अक्षर यूँ ही बता देगा ...
कितना कुछ होता रहता है, कितना कुछ नहीं भी होता ...
हाँ ... बहुत कुछ जब नहीं होता, ये तो होता ही रहता है
कायनात में ...
मैंने डाले नहीं, तुमने सींचे नहीं
प्रेम के बीज अपने आप ही उग आते हैं ...
उठती हैं, मिटती हैं, फिर उठती हैं
लहरों की चाहत है पाना
प्रेम खेल रहा है मिटने मिटाने का खेल सदियों से ...
अकसर अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ ... एक तुम हो जो
सुनती नहीं ... ये चाँद, ये सूरज, ये हवा भी
तो नहीं सुनती ...
धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज पहलू से मेरे
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं ...
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