दूर तक रेत पर
नहीं गिरी थीं बारिश की बूँद
पर थी मिट्टी की सोंधी महक
छू रहा था बदन को
नमी का गहरा एहसास ...
जाने पहचाने
ताज़ा क़दमों के निशान
बेतरतीब बिखरे पड़े थे
पीले समुंदर की
ठहरी हुई लहरों पर ...
क्या सच में प्रेम वहाँ रोता है
जहां कोई नहीं होता ...
सोमवार, 30 अक्तूबर 2023
बुधवार, 25 अक्तूबर 2023
आते आते रात शाम ढल गई ...
तप्सरों की केतली उबल गई.
बात कानों कान जब निकल गई.
क्यों हुआ कभी हुआ नहीं पता,
उनको देखते ही आँख चल गई.
हम अना के हाथ ऐंठते रहे,
पाँव पाँव ज़िन्दगी फिसल गई.
बुझते बुझते जल उठी मशाल जब,
आँधियों में एक बस्ती जल गई.
देर से मगर इसे समझ गया,
आग तेज़ हो तो दाल गल गई.
लोन क्या लिया किसी किसान ने,
देखते ही देखते फसल गई.
मैं निकल गया था घर की ओर पर,
आते आते रात शाम ढल गई.
बात कानों कान जब निकल गई.
क्यों हुआ कभी हुआ नहीं पता,
उनको देखते ही आँख चल गई.
हम अना के हाथ ऐंठते रहे,
पाँव पाँव ज़िन्दगी फिसल गई.
बुझते बुझते जल उठी मशाल जब,
आँधियों में एक बस्ती जल गई.
देर से मगर इसे समझ गया,
आग तेज़ हो तो दाल गल गई.
लोन क्या लिया किसी किसान ने,
देखते ही देखते फसल गई.
मैं निकल गया था घर की ओर पर,
आते आते रात शाम ढल गई.
सोमवार, 9 अक्तूबर 2023
विचलित ज़रूर हूँ मगर निराश नहीं हूँ ...
विस्तार प्रेम का हूँ प्रेम पाश नहीं हूँ.
गंतव्य मुझको मान लो तलाश नहीं हूँ.
तुम ओढ़ कर ये धूप हमको मिलने न आना,
इक रात सुरमई सी हूँ प्रकाश नहीं हूँ.
विस्मृत न कर सकोगे आप प्रेम के लम्हे,
काँटा गुलाब का हूँ मैं पलाश नहीं हूँ.
कुछ पल हमारे साथ ठीक-ठाक हैं लेकिन,
मैं भाग्य को बदल दूँ ऐसी ताश नहीं हूँ.
शिव सा अनंत विष का कंठ पान किया है,
निर्माण लक्ष्य है मेरा विनाश नहीं हूँ.
माना के स्वीकृति मिली न प्रेम की अब तक,
विचलित ज़रूर हूँ मगर निराश नहीं हूँ.
गंतव्य मुझको मान लो तलाश नहीं हूँ.
तुम ओढ़ कर ये धूप हमको मिलने न आना,
इक रात सुरमई सी हूँ प्रकाश नहीं हूँ.
विस्मृत न कर सकोगे आप प्रेम के लम्हे,
काँटा गुलाब का हूँ मैं पलाश नहीं हूँ.
कुछ पल हमारे साथ ठीक-ठाक हैं लेकिन,
मैं भाग्य को बदल दूँ ऐसी ताश नहीं हूँ.
शिव सा अनंत विष का कंठ पान किया है,
निर्माण लक्ष्य है मेरा विनाश नहीं हूँ.
माना के स्वीकृति मिली न प्रेम की अब तक,
विचलित ज़रूर हूँ मगर निराश नहीं हूँ.
शुक्रवार, 6 अक्तूबर 2023
खास दिन ...
सृष्टि ने जब कुछ देना है तो वो दे देती है, क्योंकि इंसान के जीवन में हर सजीव हर लम्हा उस कायनात का दिया हुआ ही तो है … ये दिन, ये महूरत … सब इंसानी बाते हैं … पर हम भी तो इंसान हैं … तो क्यों न दिन को खास मानें …
वक़्त की टहनियों पे टंगे प्रेम के गुलाबी लम्हे
संदली ख़ुशबू का झीना आवरण ओढ़े
सजीव हो उठते हैं सूरज की पहली किरण के साथ ...
कायनात में खिलने लगते हैं जंगली गुलाब
कहीं मुखर हो जाते हैं डायरी में बन्द सूखे फूल जैसे
कहीं सादगी से पलकें झुकाए
तो कहीं आसमानी चुन्नी में महकते
जुड़ जाते हैं तमान ये लम्हे उम्र के हसीन सफ़र में
सच कहूँ ...
तुम ही तो मेरे एहसास का जंगली गुलाब हो
पुरानी डायरी का सूखा फूल
जागती आँखों का पहला ख़्वाब
देखा है जिसे ज़िन्दगी बनते बरसों पहले, तुम्हारे साथ ...
Love you Jana
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