स्वप्न मेरे: हिन्दी गज़ल
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रविवार, 19 फ़रवरी 2023

मैं इस बगल गया ये सनम उस बगल गया.

आसान तो नहीं था मगर वो बदल गया.
इक शख्स था गुनाह में शामिल संभल गया.
 
कुछ ख़्वाब थे जो दिन में हकीक़त न बन सके,   
उस रात उँगलियों से मसल कर निकल गया.
 
पत्थर में आ गई थी फ़सादी की आत्मा,
साबुत सरों को देख के फिर से मचल गया.
 
जिसने हमें उमीद के लश्कर दिखाए थे,
वो ज़िन्दगी के स्वप्न दिखा कर मसल गया.
 
सूरज थका-थका था उसे नींद आ गई,
साग़र की बाज़ुओं में वो झट से पिघल गया.
 
जब इस बगल था इश्क़ तो पैसा था उस बगल,  
मैं इस बगल गया ये सनम उस बगल गया.

सोमवार, 30 जनवरी 2023

लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.

जाएँगे हम मगर इस क़दर जाएँगे.
रख के सब की ख़बर बे-ख़बर जाएँगे.


धूप चेहरे पे मल-मल के मिलते हो क्यों,
मोम के जिस्म वाले तो डर जाएँगे.

हुस्न की बात का क्या बुरा मानना,
बात कर के भी अक्सर मुक़र जाएँगे.

वक़्त की क़ैद में बर्फ़ सी ज़िंदगी,
क़तरा-क़तरा पिघल कर बिखर जाएँगे.

तितलियों से है गठ-जोड़ अपना सनम,
एक दिन छत पे तेरी उतर जाएँगे.

ज़िंदगी रेलगाड़ी है हम-तुम सभी,
उम्र की पटरियों पर गुज़र जाएँगे.

शब की पुड़िया से चिड़िया शफक़ ले उड़ी,
लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.

बुधवार, 25 जनवरी 2023

अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ ...

मफ़लर लपेटे फ़र का पहाड़ी फिरन में आ
ऐ गुलबदन, जमाल उसी पैरहन में आ
 
हर सिम्त ढूँढती है तुझे ज़िन्दगी मेरी
पर तू खबर किए ही बिना फिर नयन में आ
 
साया न साय-दार दरख़्तों के क़ाफ़िले
आ फिर उसी पलाश के दहके चमन में आ
 
भेजा है माहताब ने इक अब्र सुरमई
लहरा के आसमानी दुपट्टा गगन में आ
 
तुझ सा मुझे क़ुबूल है, ज़्यादा न कम कहीं
आना है ज़िन्दगी में तो अपनी टशन में आ
 
महसूस कर सकूँ में तुझे साँस-साँस में
ख़ुशबू के जैसे घुल में बसन्ती पवन में आ
 
ख़ुद को जला के देता है ख़ुर्शीद रौशनी
दिल में अगर अगन है यही फिर हवन में आ
 
ख़ानाबदोश हो के यूँ भटकोगे कब तलक
अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ

रविवार, 18 दिसंबर 2022

अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन ...

जोड़ जो अपने गुनाहों का लगाया उस दिन.
आईना शर्म से फिर देख न पाया उस दिन.
 
कुछ परिंदों को गुलामी से बचाया उस दिन,
दाने-दाने पे रखा जाल उठाया उस दिन.
 
खूब दौड़े थे मगर वक़्त कहाँ हाथ आया,
यूँ ही किस्मत ने हमें खूब छकाया उस दिन.
 
होंसला रख के जो पतवार चलाने निकले,
खुद समुन्दर ने हमें पार लगाया उस दिन.
 
आ रहा है, अभी निकला है, पहुँचता होगा,
यूँ ही वो शाम तलक मिलने न आया उस दिन.
 
जीत का लुत्फ़ उठाए तो उठा लेने दो,
हार का हमने भी तो जश्न मनाया उस दिन.
 
अजनबी खुद को समझने की न गलती कर दूँ,
अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन. 

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

यादों के पिटारे से, इक लम्हा गिरा दूँ तो ...

मैं रंग मुहब्बत का, थोड़ा सा लगा दूँ तो.
ये मांग तेरी जाना, तारों से सज़ा दूँ तो.
 
तुम इश्क़ की गलियों से, निकलोगे भला कैसे,
मैं दिल में अगर सोए, अरमान जगा दूँ तो.
 
उलफ़त के परिंदे तो, मर जाएंगे ग़श खा कर,
मैं रात के आँचल से, चंदा को उड़ा दूँ तो.
 
मेरी तो इबादत है, पर तेरी मुहब्बत है,
ये राज भरी महफ़िल, में सब को बता दूँ तो.
 
लहरों का सुलग उठना, मुश्किल भी नहीं इतना,
ये ख़त जो अगर तेरे, सागर में बहा दूँ तो.
 
कुछ फूल मुहब्बत के, मुमकिन है के खिल जायें,  
यादों के पिटारे से, इक लम्हा गिरा दूँ तो.

(तरही ग़ज़ल)

मंगलवार, 16 नवंबर 2021

ऊंघ रही हैं बोझिल पलकें और उबासी सोफे पर

धूप छुपी मौसम बदला फिर लिफ्ट मिल गई मौके पर.
कतरा-कतरा शाम पिघलती देखेंगे चल छज्जे पर.
 
तेरे जाते ही पसरी है एक उदासी कमरे पर,
सीलन-सीलन दीवारों पर सिसकी-सिसकी कोने पर.
 
मद्धम-मद्धम चाँद का टैरस घूँट-घूँट कौफी का टश,
पैदल-पैदल मैं आता हूँ तू बादल के टुकड़े पर.  
 
लम्हा-लम्हा इश्क़ बसंती कर देता है फिजाँ-फिजाँ,
गुलशन-गुलशन फूल खिले है इक तितली के बोसे पर.
 
चुभती हैं रह-रह कर एड़ी पर कुछ यादें कीलों सी,
धूल अभी तक तन्हा-तन्हा जमी हुई है जूते पर.
 
ठहरा-ठहरा शाम का लम्हा छपा हुआ है गाड़ा सा,
ताज़ा-ताज़ा होठ मिलेंगे फिर कौफी के मग्गे पर.
 
ठक-ठक, खट-खट, घन्टी-घन्टी गेट खड़कता रहता है,
ऊंघ रही हैं बोझिल पलकें और उबासी सोफे पर
.

शनिवार, 7 अगस्त 2021

और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा ...

सात घोड़ों में जुता सूरज सुबह आता रहा.
धूप का भर भर कसोरा सर पे बरसाता रहा.

काग़ज़ी फूलों पे तितली उड़ रही इस दौर में,
और भँवरा भी कमल से दूर मंडराता रहा.

हम सफ़र अपने बदल कर वो तो बस चलते रहे,
और मैं उनकी डगर में फूल बिखराता रहा.

एक दिन काँटा चुभा पगडंडियों में हुस्न की,
ज़िन्दगी भर रहगुज़र में इश्क़ तड़पाता रहा.

ख़ास है कुछ आम सा तेरा तबस्सुम दिलरुबा,
उम्र भर जो ज़िन्दगी में रौशनी लाता रहा.

इश्क़ में मसरूफ़ थे कंकड़ उछाला ही नहीं,
झील के तल में उतर कर चाँद सुस्ताता रहा.

एक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा.

बुधवार, 14 जुलाई 2021

चाँद उतरा, बर्फ पिघली, ये जहाँ महका दिया ...

बादलों के पार तारों में कहीं छुड़वा दिया I 
चन्द टूटी ख्वाहिशों का दर्द यूँ बिखरा दिया I
 
एक बुन्दा क्या मिला यादों की खिड़की खुल गई, 
वक़्त ने बरसों पुराने इश्क़ को सुलगा दिया I
 
करवटों के बीच सपनों की ज़रा दस्तक हुई, 
रात ने झिर्री से तीखी धूप को सरका दिया I
 
आसमानी चादरें माथे पे उतरी थीं अभी,
एक तितली ने पकड़ कर चाँद को बैठा दिया I
 
प्रेम का सच आँख से झरता रहा आठों पहर,
और होठों के सहारे झूठ था, बुलवा दिया I  
 
पेड़ ने पत्ते गिराए पर हवा के ज़ोर पे,
और सारा ठीकरा पतझड़ के सर रखवा दिया I
 
एक चरवाहे की मीठी धुन पहाड़ी से उठी,
चाँद उतरा, बर्फ पिघली, ये जहाँ महका दिया I
 

शुक्रवार, 11 जून 2021

कश्तियाँ डूबीं अनेकों फिर भी घबराया नहीं ...

देख कर तुमको जहाँ में और कुछ भाया नहीं.
कैसे कह दूँ ज़िन्दगी में हमने कुछ पाया नहीं.
 
सोच लो तानोगे छतरी या तुम्हे है भीगना,
आसमाँ पे प्रेम का बादल अभी छाया नहीं.
 
प्रेम की पग-डंडियों पर पाँव रखना सोच कर,  
लौट कर इस राह से वापस कोई आया नहीं.
 
पत्थरों से दिल लगाने का हुनर भी सीख लो,
फिर न कहना वक़्त रहते हमने समझाया नहीं.
 
प्रेम हो, शृंगार, मस्ती, या विरह की बात हो,
कौन सा है रंग जिसको प्रेम ने गाया नहीं.
 
तुमको पाया, रब को पाया, और क्या जो चाहिए,
कश्तियाँ डूबीं अनेकों फिर भी घबराया नहीं.

बुधवार, 10 मार्च 2021

तीरगी के शह्र आ कर छूट, परछाई, गई ...

पाँव दौड़े, महके रिब्बन, चुन्नी लहराई, गई.
पलटी, फिर पलटी, दबा कर होंठ शरमाई, गई.
 
खुल गई थी एक खिड़की कुछ हवा के जोर से,
दो-पहर की धूप सरकी, पसरी सुस्ताई, गई.
 
आसमां का चाँद, मैं भी, रूबरू तुझसे हुए,
टकटकी सी बंध गई, चिलमन जो सरकाई, गई.
 
यक-ब-यक तुम सा ही गुज़रा, तुम नहीं तो कौन था,
दफ-अतन ऐसा लगा की बर्क यूँ आई, गई.
 
था कोई पैगाम उनका या खुद उसको इश्क़ था,
एक तितली उडती उडती आई, टकराई, गई.
 
जानती है पल दो पल का दौर ही उसका है बस,
डाल पर महकी कलि खिल आई, मुस्काई, गई.
 
दिन ढला तो ज़िन्दगी का साथ छोड़ा सबने ज्यूँ,
तीरगी के शह्र आ कर छूट, परछाई,
गई.  

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

नाचती लहरों से मैं ऊँचाइयाँ ले जाऊँगा ...

आपका गम आपकी रुस्वाइयाँ ले जाऊँगा.
देखते ही देखते परछाइयाँ ले जाऊंगा .
 
आपने मुझको कभी माना नहीं अपना मगर,
ज़िन्दगी से आपकी कठिनाइयाँ ले जाऊँगा.
 
हाथ से छू कर कभी महसूस तो कर लो हमें, 
आपके सर की कसम तन्हाइयाँ ले जाऊँगा.
 
आपकी महफ़िल में आकर आपके पहलू से में, 
शोख नज़रों से सभी अमराइयाँ ले जाऊँगा.
 
प्रेम की बगिया कभी खिलने नहीं देते हें जो, 
वक़्त के पन्नों से वो सच्चाइयाँ ले जाऊँगा.
 
साहिलों पे डर जाना देख कर लहरों को तुम,
नाचती लहरों से मैं ऊँचाइयाँ ले जाऊँगा.

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

कैसे कह दूँ की अब घात होगी नही ...

तुम झुकोगे नहीं बात होगी नही.
ज़िन्दगी भर मुलाक़ात होगी नही.
 
थाम लो हाथ किस्मत से मिलता है ये,
उम्र भर फिर ये सौगात होगी नही.
 
आज मौका मिला है तो दामन भरो,
फिर ये खुशियों की बरात होगी नहीं.
 
धूप ने है बनाया अँधेरों में घर,
देखना अब कभी रात होगी नही.
 
दिल में नफरत के दीपक जो जलते रहे,  
मीठे पानी की बरसात होगी नही.
 
सच के साहस के आगे टिके रह सके,
झूठ की इतनी औकात होगी नही.
 
घर के बाहर है दुश्मन तो अन्दर भी है,
कैसे कह दूँ की अब घात होगी नही.