शनिवार, 7 जनवरी 2023
सोमवार, 5 दिसंबर 2022
विल्स ...
एक पुरानी विल्स
की सिगरेट जैसी है.
ख़ाकी फ्रौक में
लड़की सचमुच ऐसी है.
हंसी-ठिठोली, कूद-फाँद, ये मस्त-नज़र,
अस्त-व्यस्त सी
लड़की देखो कैसी है.
फ़ेस बनाता क्यों
है उस लड़की जैसे,
बादल अब तेरी तो
ऐसी-तैसी है.
सूरत, सीरत, आदत, अब क्या-क्या बोलूँ,
जैसी बाहर अंदर
बिलकुल वैसी है.
गहरा कश भर कर उस
दिन फिर भाग गई,
खौं-खौं करती
लड़की वाक़ई मैसी है.
सोमवार, 15 अगस्त 2022
हिन्दुस्तान ...
भारत की स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव की सबको बहुत बहुत बधाई ...
प्रेम की ख़ुशबू यहाँ, बलिदान का लोबान है
इस भरत भू की तो कान्हा राम से पहचान है
इक तरफ़ उत्तर दिशा में ध्यान मय हिमवान है
और दक्षिण छोर पे सागर बड़ा बलवान है
योग-माया, शिव सनातन, निज
में अंतर-ध्यान है
संस्कृती जिसकी सनातन जोगिया परिधान है
रीत, व्यंजन, धर्म,
भाषा, और पहनावा जुदा
पर धड़कता है जो दिल में वो तो हिंदुस्तान है
भूमि है अन्वेषकों कि यह पुरातन काल से
वेद गीता उपनिषद में ज्ञान है विज्ञान है
खोज ही जब लक्ष्य हो तब निज की हो या हो जगत
हम कहाँ से, क्यों है जीवन, एक अनुसंधान है
देश की
अवधारणा आकार देती है हमें
कर सकूँ जीवन समर्पित मन में यह अरमान है
शनिवार, 15 जनवरी 2022
परवाज़ परिंदों की अभी बद-हवास है ...
दो बूँद गिरा दे जो अभी उसके पास है,.
बादल से कहो आज मेरी छत उदास है.
तबका न कोई चैनो-अमन से है रह रहा,
सुनते हैं मगर देश में अपने विकास है.
ज़ख्मी है बदन साँस भी मद्धम सी चल रही,
टूटेगा मेरा होंसला उनको क़यास है.
था छेद मगर फिर भी किनारे पे आ लगी,
सागर से मेरी कश्ती का रिश्ता जो ख़ास है.
दीवार खड़ी कर दो चिरागों को घेर कर,
कुछ शोर हवाओं का मेरे आस पास है.
छिड़का है फिजाओं में लहू जिस्म काट कर,
तब जा के सवेरे का सिन्दूरी लिबास है.
कह दो की उड़ानों पे न कब्ज़ा किसी का हो,
परवाज़ परिंदों की अभी बद-हवास है.
मंगलवार, 30 नवंबर 2021
एक शजर उग आया है उस मिटटी में ...
कह दूंगा जब लौटूंगा इस छुट्टी में.
कितना कुछ लिख पाया ना जो चिठ्ठी में.
बुन लें एक नए ख़्वाबों की हम दुनिया,
राज़ छुपे हैं इतने मन की गुत्थी में.
इश्क़ ओढ़ कर बाहों में तुम सो जाना,
रात छुपा लाया हूँ अपनी मुठ्ठी में.
लेना देना बातें सब हो जाती थीं,
बचपन की उस बात-बात की कुट्टी में.
बादल का ही दोष हमेशा क्यों हो जब,
चाँद छुपा रहता है अपनी मस्ती में.
इश्क़ हवा में पींगें भरता रहता है,
असर है कितना एक तुम्हारी झप्पी में.
जिस टीले पे वक़्त गुज़ारा करते थे,
एक शजर उग आया है उस मिट्टी में.
शनिवार, 25 सितंबर 2021
माँ ...
9 साल ... वक़्त बहुत क्रूर होता है ... या ऐसा कहो
वक़्त व्यवहारिक होता है, प्रेक्टिकल होता है .... उसे
पता होता है की क्या हो सकता है, वो भावुक नहीं होता, अगले
ही पल पिछले पल को ऐसे भूल जाता है जैसे ज़िन्दगी इसी पल से शुरू हई हो ... हम भी
तो जी रहे हैं, रह रहे हैं माँ के बिना, जबकि सोच नहीं सके थे तब ... एक वो 25 सितम्बर और एक आज की 25 सितम्बर
... कहीं न कहीं से तुम ज़रूर देख रही हो माँ, मुझे पता है ...
कह के तो देख बात तेरी मान जाएगी
वो माँ है बिन कहे ही सभी जान जाएगी
क्या बात हो गयी है परेशान क्यों हूँ मैं
चेहरे का रंग देख के पहचान जाएगी
मुश्किल भले ही आयें हज़ारों ही राह में
हर बात अपने दिल में मगर ठान जाएगी
साए कभी जो रात के घिर-घिर के आएंगे
आँचल सुनहरी धूप का फिर तान जाएगी
खुद जो किया है उसका ज़िक्र भी नहीं किया
देखेगी पर शिखर पे तो कुरबान जाएगी
सोमवार, 30 अगस्त 2021
चेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू …
साहिल की भीगी रेत से लहरों की गुफ़्तगू.
सुन कर भी कौन सुनता है बहरों की गुफ़्तगू.
कुछ सब्ज पेड़ सुन के उदासी में खो गए,
खेतों के बीच सूखती नहरों की गुफ़्तगू.
अब आफ़ताब का भी निकलना मुहाल है,
इन बादलों से हो गई कुहरों की गुफ़्तगू.
ख़ामोशियों के पास जमा रहती हैं सभी,
फ़ुर्कत के चंद लम्हों से पहरों की गुफ़्तगू.
जंगल ने कान में है कहा गाँव के यही,
कितनी जुदा है आज भी शहरों की गुफ़्तगू.
गुमसुम सी महफ़िलों की हक़ीक़त सुनो कभी,
चेहरों से होती रहती है चेहरों की गुफ़्तगू.
शनिवार, 7 अगस्त 2021
और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा ...
सात घोड़ों में जुता सूरज सुबह आता रहा.
धूप का भर भर कसोरा सर पे बरसाता रहा.
काग़ज़ी फूलों पे तितली उड़ रही इस दौर में,
और भँवरा भी कमल से दूर मंडराता रहा.
हम सफ़र अपने बदल कर वो तो बस चलते रहे,
और मैं उनकी डगर में फूल बिखराता रहा.
एक दिन काँटा चुभा पगडंडियों में हुस्न की,
ज़िन्दगी भर रहगुज़र में इश्क़ तड़पाता रहा.
ख़ास है कुछ आम सा तेरा तबस्सुम दिलरुबा,
उम्र भर जो ज़िन्दगी में रौशनी लाता रहा.
इश्क़ में मसरूफ़ थे कंकड़ उछाला ही नहीं,
झील के तल में उतर कर चाँद सुस्ताता रहा.
एक दिन यादों की बुग्नी से निकल कर माँ मिली,
और बच्चा बन के मैं बाहों में इतराता रहा.
मंगलवार, 23 मार्च 2021
छू लिया तुझको तो शबनम हो गई ...
सच की जब से रौशनी कम हो गई.
झूठ की आवाज़ परचम हो गई.
दिल का रिश्ता है, में
क्यों न मान लूं,
मिलके मुझसे आँख जो नम हो गई.
कागज़ों का खेल चालू हो गया,
आंच बूढ़े की जो मद्धम हो गई.
मैं ही मैं बस सोचता था आज
तक,
दुसरे “मैं” से मिला हम हो
गई.
फूल, खुशबू, धूप, बारिश, तू-ही-तू,
क्या कहूँ तुझको तु मौसम हो गई.
बूँद इक मासूम बादल से गिरी,
छू लिया तुझको तो शबनम हो गई.
बुधवार, 10 मार्च 2021
तीरगी के शह्र आ कर छूट, परछाई, गई ...
पाँव दौड़े, महके रिब्बन, चुन्नी
लहराई, गई.
पलटी, फिर पलटी, दबा कर होंठ शरमाई, गई.
खुल गई थी एक खिड़की कुछ हवा के जोर से,
दो-पहर की धूप सरकी, पसरी सुस्ताई, गई.
आसमां का चाँद, मैं भी, रूबरू तुझसे
हुए,
टकटकी सी बंध गई, चिलमन जो
सरकाई, गई.
यक-ब-यक तुम सा ही गुज़रा, तुम नहीं तो
कौन था,
दफ-अतन ऐसा लगा की बर्क यूँ आई, गई.
था कोई पैगाम उनका या खुद उसको इश्क़ था,
एक तितली उडती उडती आई, टकराई, गई.
जानती है पल दो पल का दौर ही उसका है बस,
डाल पर महकी कलि खिल आई, मुस्काई, गई.
दिन ढला तो ज़िन्दगी का साथ छोड़ा सबने ज्यूँ,
तीरगी के शह्र आ कर छूट, परछाई, गई.
बुधवार, 24 फ़रवरी 2021
हम नई कहानी सबको पेलते रहे ...
लोग तो चले गए
मगर पते रहे.
याद के बुझे से
तार छेड़ते रहे.
जल गया मकान
हाथ सेकते रहे.
सब तमाशबीन बन
के देखते रहे.
इस तरफ तो कर
दिया इलाज़ दर्द का,
और घाव उस तरफ
कुरेदते रहे.
फर्श पे गिरे
हैं अर्श से जो झूठ के,
ख़्वाब इतने साल
हमें बेचते रहे.
हार तय थी दिल
नहीं था मानता मगर.
उनकी इक नज़र पे
दाव खेलते रहे.
चिंदी चिंदी खत
हवा के नाम कर दिया,
इस तरह से दिल
वो मेरा छेड़ते रहे.
वो गए तो सबने
पूछा माज़रा है क्या,
हम नई कहानी
सबको पेलते रहे.
मंगलवार, 22 दिसंबर 2020
ये कायनात इश्क में डूबी हुई मिली
सागर की बाज़ुओं में उतरती हुई मिली.
तन्हा उदास शाम जो रूठी हुई मिली.
फिर से किसी की याद के लोबान जल उठे ,
बरसों पुरानी याद जो भूली हुई मिली.
बिखरा जो काँच काँच तेरा अक्स छा गया ,
तस्वीर अपने हाथ जो टूटी हुई मिली.
कितने
दिनों के बाद लगा लौटना है अब ,
बुग्नी
में ज़िन्दगी जो खनकती हुई मिली.
सुनसान खूँटियों पे था कब्ज़ा कमीज़ का,
छज्जे पे तेरी शाल लटकती हुई मिली.
यादों के सिलसिले भी, परिन्दे भी उड़ गए ,
पेड़ों की सब्ज़ डाल जो सूखी हुई मिली.
ख्वाहिश जो गिर गई थी शिखर के करीब से ,
सत्तर
की उम्र में वो चिढ़ाती हुई मिली.
बिस्तर की हद, उदास रज़ाई की सिसकियाँ ,
सिगड़ी में एक रात सुलगती हुई मिली .
तितली ने जबसे इश्क़ चमेली पे लिख दिया ,
ये कायनात इश्क में डूबी हुई मिली.
सोमवार, 17 अगस्त 2020
एक बुग्नी फूल सूखा डायरी ...
धूप कहती है निकल के दें … न दें
रौशनी हर घर को चल के दें … न दें
साहूकारों की निगाहें कह रहीं
दाम पूरे इस फसल के दें … न दें
तय अँधेरे में तुम्हें करना है अब
जुगनुओं का साथ जल के दें … न दें
बात वो सच की करेगा सोच लो
आइना उनको बदल के दें … न दें
फैंसला लहरों को अब करना है ये
साथ किश्ती का उछल के दे ... न दें
सच है मंज़िल पर गलत है रास्ता
रास्ता रस्ता बदल के दे ... न दें
एक बुग्नी, फूल सूखा, डायरी
सब खज़ाने हैं ये कल के दे ... न दें
सोमवार, 27 जुलाई 2020
वक़्त की साँकल में अटका इक दुपट्टा रह गया
गुरुवार, 23 जुलाई 2020
हरे मग शैल्फ़ पर जो ऊंघते हैं ...
सोमवार, 20 जुलाई 2020
हमको पढ़ते हैं कई लोग सुर्ख़ियों जैसे
सोमवार, 13 जुलाई 2020
गई है उठ के तकिये से अभी जो रात बीती है ...
सोमवार, 6 जुलाई 2020
इक पुरानी रुकी घड़ी हो क्या ...
(तरही गज़ल)