पैदल तो छाँव-छाँव बस निकल गया.
क़िस्मत वो अपने आप ही बदल गया,
गिरने के बावज़ूद जो संभल गया.
बस उतनी ज़िन्दगी से उम्र कम हुई,
जो वक़्त तू-तड़ाक में निकल गया.
क़ातिल मेरे हिसाब से तो वो भी है,
सपनों को दूसरे के जो कुचल गया.
क्या सामने वो आ सकेगा धूप के,
हलकी सी रोशनी में जो पिघल गया.
कुछ सर ही फूटने को थे उतावले,
पत्थर का क्या क़सूर जो मचल गया.
क्यों हाल उस गरीब का हो पूछते,
साहिल से कुछ ही दूर जो फिसल गया.
#स्वप्नमेरे
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में सोमवार 20 जनवरी 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंवाह
जवाब देंहटाएंवाह ! बेहतरीन शायरी
जवाब देंहटाएंवाह!दिगंबर जी , बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंवाह । बढ़िया गजल ।
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