गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से इस ग़ज़ल में कुछ परिवर्तन किए हैं .... ग़ज़ल बहर में आ गयी है अब ... आशा है आपको पसंद आएगी .....
छीने हुवे निवाले हैं
कहने को दिल वाले हैं
जिसने दुर्गम पथ नापे
पग में उसके छाले हैं
अक्षर की सेवा करते
रोटी के फिर लाले हैं
खादी की चादर पीछे
बरछी चाकू भाले हैं
जितने उजले कपड़े हैं
मन के उतने काले हैं
न्योता जो दे आए थे
घर पर उनके ताले हैं
कौन दिशा से हवा चली
बस मदिरा के प्याले हैं
मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010
मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना ...
प्रस्तुत है आज एक ग़ज़ल गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से सजी ....
छोड़ कर खुशियों के नगमें दर्द क्या रखना
लुट गया मैं लुट गया ये राग क्या् जपना
मुस्कुारा कर उठ गया सोते से मैं फिर कल
याद आई थी किसी की या के था सपना
कल सुबह देखा पुराना ट्रंक जब मैंने
यूं लगा जैसे के कोई छू गया अपना
याद पुरखों की है आई आज जब देखा
घर के इस तंदूर में यूं रोटियां थपना
झूठ भी तुम इस कदर सच्चाई से बोले
याद मुझको आ गया अखबार का छपना
आपकी आंखों की मिट्टी में न जम जाएं
जल रहे हैं ख्वाब इनके पास मत रुकना
लाश लावारिस पड़ी है चौक पर कोई
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना
छोड़ कर खुशियों के नगमें दर्द क्या रखना
लुट गया मैं लुट गया ये राग क्या् जपना
मुस्कुारा कर उठ गया सोते से मैं फिर कल
याद आई थी किसी की या के था सपना
कल सुबह देखा पुराना ट्रंक जब मैंने
यूं लगा जैसे के कोई छू गया अपना
याद पुरखों की है आई आज जब देखा
घर के इस तंदूर में यूं रोटियां थपना
झूठ भी तुम इस कदर सच्चाई से बोले
याद मुझको आ गया अखबार का छपना
आपकी आंखों की मिट्टी में न जम जाएं
जल रहे हैं ख्वाब इनके पास मत रुकना
लाश लावारिस पड़ी है चौक पर कोई
चार कांधों की जरूरत है जरा उठना
बुधवार, 6 अक्तूबर 2010
अच्छा ... आप भी न ...
अच्छा ... आप भी न ...
ऐसे हि बोलते हो ...
झाड़ पर चढ़ाते हो बस ...
कहीं इस उम्र में भी ...
मैं नही बस ...
और मैं देखता हूँ तुम्हें
अपने आप में सिमिटते
कभी पल्लू से खेलते
कभी होठ चबाते
कभी क्षितिज को निहारते ...
पता है उस वक़्त कितनी भोली लगती हो
तुम्हारे गुलाबी गाल
गुलाब से खिल जाते हैं
हंसते हुवे छोटी छोटी आँखें
बंद सी हो जाती हैं ...
गालों के डिंपल
उतने ही गहरे लगते हैं
जब पहली बार मिलीं थी
आस्था के विशाल प्रांगण में
गुलाबी साड़ी पहने
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
फिर तो दूसरी ... तीसरी ...
और न जाने कितनी मुलाक़ातें
सालों से चल रहा ये सिलसिला
आज भी ऐसे ही चल रहा है
जैसे पहली बार मिले हों ...
और हर बार ऐसा भी लगता है
जैसे जन्म- जन्मांतर से साथ हों ...
ये कैसी अनुभूति
कौन सा एहसास है
क्या ज़रूरी है इसको कोई नाम देना ...?
किसी बंधन में बाँधना ...?
या शब्दों के सिमित अर्थों में समेटना ...?
अरे सुनो ...
मुझे तो याद हि नही रहा
क्या तुम्हें याद है
पहली बार हम कब मिले ...?
क्या तारीख थी ...?
कौन सा दिन था ...?
वैसे ... क्या ज़रूरी है
किसी तारीख को याद रखना ...?
या ज़रूरी है
हर दिन को तारीख बनाना ...?
ऐसे हि बोलते हो ...
झाड़ पर चढ़ाते हो बस ...
कहीं इस उम्र में भी ...
मैं नही बस ...
और मैं देखता हूँ तुम्हें
अपने आप में सिमिटते
कभी पल्लू से खेलते
कभी होठ चबाते
कभी क्षितिज को निहारते ...
पता है उस वक़्त कितनी भोली लगती हो
तुम्हारे गुलाबी गाल
गुलाब से खिल जाते हैं
हंसते हुवे छोटी छोटी आँखें
बंद सी हो जाती हैं ...
गालों के डिंपल
उतने ही गहरे लगते हैं
जब पहली बार मिलीं थी
आस्था के विशाल प्रांगण में
गुलाबी साड़ी पहने
पलकें झुकाए
पूजा की थाली लिए
फिर तो दूसरी ... तीसरी ...
और न जाने कितनी मुलाक़ातें
सालों से चल रहा ये सिलसिला
आज भी ऐसे ही चल रहा है
जैसे पहली बार मिले हों ...
और हर बार ऐसा भी लगता है
जैसे जन्म- जन्मांतर से साथ हों ...
ये कैसी अनुभूति
कौन सा एहसास है
क्या ज़रूरी है इसको कोई नाम देना ...?
किसी बंधन में बाँधना ...?
या शब्दों के सिमित अर्थों में समेटना ...?
अरे सुनो ...
मुझे तो याद हि नही रहा
क्या तुम्हें याद है
पहली बार हम कब मिले ...?
क्या तारीख थी ...?
कौन सा दिन था ...?
वैसे ... क्या ज़रूरी है
किसी तारीख को याद रखना ...?
या ज़रूरी है
हर दिन को तारीख बनाना ...?
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