स्वप्न मेरे: जनवरी 2023

सोमवार, 30 जनवरी 2023

लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.

जाएँगे हम मगर इस क़दर जाएँगे.
रख के सब की ख़बर बे-ख़बर जाएँगे.


धूप चेहरे पे मल-मल के मिलते हो क्यों,
मोम के जिस्म वाले तो डर जाएँगे.

हुस्न की बात का क्या बुरा मानना,
बात कर के भी अक्सर मुक़र जाएँगे.

वक़्त की क़ैद में बर्फ़ सी ज़िंदगी,
क़तरा-क़तरा पिघल कर बिखर जाएँगे.

तितलियों से है गठ-जोड़ अपना सनम,
एक दिन छत पे तेरी उतर जाएँगे.

ज़िंदगी रेलगाड़ी है हम-तुम सभी,
उम्र की पटरियों पर गुज़र जाएँगे.

शब की पुड़िया से चिड़िया शफक़ ले उड़ी,
लौट कर अब अँधेरे भी घर जाएँगे.

बुधवार, 25 जनवरी 2023

अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ ...

मफ़लर लपेटे फ़र का पहाड़ी फिरन में आ
ऐ गुलबदन, जमाल उसी पैरहन में आ
 
हर सिम्त ढूँढती है तुझे ज़िन्दगी मेरी
पर तू खबर किए ही बिना फिर नयन में आ
 
साया न साय-दार दरख़्तों के क़ाफ़िले
आ फिर उसी पलाश के दहके चमन में आ
 
भेजा है माहताब ने इक अब्र सुरमई
लहरा के आसमानी दुपट्टा गगन में आ
 
तुझ सा मुझे क़ुबूल है, ज़्यादा न कम कहीं
आना है ज़िन्दगी में तो अपनी टशन में आ
 
महसूस कर सकूँ में तुझे साँस-साँस में
ख़ुशबू के जैसे घुल में बसन्ती पवन में आ
 
ख़ुद को जला के देता है ख़ुर्शीद रौशनी
दिल में अगर अगन है यही फिर हवन में आ
 
ख़ानाबदोश हो के यूँ भटकोगे कब तलक
अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ

गुरुवार, 19 जनवरी 2023

पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी ...

लत बता तुमको ये कब कैसे लगी.
चाय पीने की तलब कैसे लगी.

फ़ुरसतों का दिन बता कैसा लगा,
और तन्हाई की शब कैसे लगी.

चूस लेंगी तितलियाँ गुल का शहद,
सूचना तुमको ये सब कैसे लगी.

रोज़ बनता है सबब उम्मीद का,
ज़िन्दगी फिर बे-सबब कैसे लगी.

दिल तो पहले दिन से था टूटा हुआ,
ये बताओ चोट अब कैसे लगी.

सादगी से ही ग़ज़ल कहते रहे,
तुम को ये लेकिन ग़ज़ब कैसे लगी.


ग़म के कश भरने तलक सब ठीक है,
पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी.

शनिवार, 14 जनवरी 2023

झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है ...

तुझे अब इश्क़ में ही ज़िन्दगी मालूम होती है.
दिगम्बर ये तो पहली ख़ुदकुशी मालूम होती है.
 
कोई प्यासा भरी बोतल से क्यों नज़रें चुराएगा,
निगाहों में किसी के आशिक़ी मालूम होती है.
 
उन्हें छू कर हवा आई, के ख़ुद उठ कर चले आए,
कहीं ख़ुशबू मुझे पुरकैफ़ सी मालूम होती है.

हँसी गुल से लदे गुलशन में क्यों तितली नहीं जाती,
कहीं झाड़ी में तीखी सी छुरी मालूम होती है.
 
कई धक्के लगाने पर भी टस-से-मस नहीं होती,
रुकी, अटकी हमें ये ज़िन्दगी मालूम होती है.
 
न जुगनू, दीप, आले, तुम भी लगता है नहीं गुज़रीं,
कई सड़कों पे अब तक तीरग़ी मालूम होती है.
 
सफ़ेदी बाल में, चेहरे पे उतरी झुर्रियाँ लेकिन,
झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है.

शनिवार, 7 जनवरी 2023

मैं इसे सिर्फ लगी कहता हूँ ...

यूँ न बोलो के नही कहता हूँ.
हूबहू जैसे सुनी कहता हूँ.

कान रख देता हूँ हवाओं पर,
फिर जो सुनता हूँ वही कहता हूँ.

तेरे आने को कहा दिन मैंने,
रात को दिन न कभी कहता हूँ.

मेरा किरदार खुला दर्पण है,
कम भले हो में सही कहता हूँ.

हादसे दिन के इकट्ठे कर-कर,
मैं ग़ज़ल रोज़ नई कहता हूँ.

कब से रहते हैं वहाँ कुछ दुश्मन,
पर उसे तेरी गली कहता हूँ.


दिल्लगी तुमको ये लगती होगी,

मैं इसे सिर्फ़ लगी कहता हूँ.