मैं इसे सिर्फ लगी कहता हूँ ...
यूँ न बोलो के नही कहता हूँ.
हूबहू जैसे सुनी कहता हूँ.
कान रख देता हूँ हवाओं पर,
फिर जो सुनता हूँ वही कहता हूँ.
तेरे आने को कहा दिन मैंने,
रात को दिन न कभी कहता हूँ.
मेरा किरदार खुला दर्पण है,
कम भले हो में सही कहता हूँ.
हादसे दिन के इकट्ठे कर-कर,
मैं ग़ज़ल रोज़ नई कहता हूँ.
कब से रहते हैं वहाँ कुछ दुश्मन,
पर उसे तेरी गली कहता हूँ.
दिल्लगी तुमको ये लगती
होगी,
मैं इसे सिर्फ़ लगी कहता
हूँ.
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वाह
जवाब देंहटाएंकान रख देता हूँ हवाओं पर,
जवाब देंहटाएंफिर जो सुनता हूँ वही कहता हूँ.
बहुत खूब! हर अश्यार बेहतरीन है
वाह. बहुत खूब
जवाब देंहटाएंये जो शब्द हैं हवाओं में तैरते रहते हैं...कुछ शायर टाइप के लोग उन्हें पकड़ लेते हैं...और ख़ूबसूरत ग़ज़ल बन जाती है...वाह...👏👏👏
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत ग़ज़ल ।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 11 जनवरी 2023 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
अथ स्वागतम शुभ स्वागतम।
वाह, जी उम्दा अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंवाह, जी उम्दा अभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंयूँ न बोलो के नही कहता हूँ.
जवाब देंहटाएंहूबहू जैसे सुनी कहता हूँ.
कान रख देता हूँ हवाओं पर,
फिर जो सुनता हूँ वही कहता हूँ
बहुत सुन्दर भावों से परिपूर्ण नायाब ग़ज़ल ।