मंगलवार, 30 नवंबर 2021
गुरुवार, 25 नवंबर 2021
कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं
कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं.
हम अपनी ज़िन्दगी में यूँ सभी से उलझे हैं.
नदी है जेब में पर तिश्नगी से उलझे हैं,
अजीब लोग हैं जो खुदकशी से उलझे हैं.
नहीं जो प्रेम, पतंगों की
ख़ुद-कुशी कह लो,
समझते-बूझते जो रौशनी से उलझे हैं.
तरक्कियों के शिखर झुक गए मेरी खातिर,
मगर ये दीद गुलाबी कली से उलझे हैं.
जो अपने सच से भी नज़रें चुरा रहे अब तक,
किसी के झूठ में वो ज़िन्दगी से उलझे हैं.
सुनो ये रात हमें दिन में काटनी होगी,
अँधेरे देर से उस रौशनी से उलझे हैं.
किसी से नज़रें मिली, झट से प्रेम, फिर शादी,
ज़ईफ़ लोग अभी कुण्डली से उलझे हैं.
निगाह में तो न आते सुकून से रहते,
गजल कही है तो उस्ताद जी से उलझे हैं.
मंगलवार, 16 नवंबर 2021
ऊंघ रही हैं बोझिल पलकें और उबासी सोफे पर
धूप छुपी मौसम बदला फिर लिफ्ट मिल गई मौके पर.
कतरा-कतरा शाम पिघलती देखेंगे चल छज्जे पर.
तेरे जाते ही पसरी है एक उदासी कमरे पर,
सीलन-सीलन दीवारों पर सिसकी-सिसकी कोने पर.
मद्धम-मद्धम चाँद का टैरस घूँट-घूँट कौफी का टश,
पैदल-पैदल मैं आता हूँ तू बादल के टुकड़े पर.
लम्हा-लम्हा इश्क़ बसंती कर देता है फिजाँ-फिजाँ,
गुलशन-गुलशन फूल खिले है इक तितली के बोसे पर.
चुभती हैं रह-रह कर एड़ी पर कुछ यादें कीलों सी,
धूल अभी तक तन्हा-तन्हा जमी हुई है जूते पर.
ठहरा-ठहरा शाम का लम्हा छपा हुआ है गाड़ा सा,
ताज़ा-ताज़ा होठ मिलेंगे फिर कौफी के मग्गे पर.
ठक-ठक, खट-खट, घन्टी-घन्टी गेट खड़कता रहता है,
ऊंघ रही हैं बोझिल पलकें और उबासी सोफे पर.
मंगलवार, 9 नवंबर 2021
यूँ पाँव पाँव चल के तो जाए न जाएँगे ...
खुल कर तो आस्तीन
में पाए न जाएँगे.
इलज़ाम दोस्तों पे
लगाए न जाएँगे.
सदियों से
पीढ़ियों ने जो बाँधी हैं बेड़ियाँ,
इस दिल पे उनके
बोझ उठाए न जाएँगे.
अब मौत ही करे तो
करे फैंसला कोई,
खुद चल के इस
जहान से जाए न जाएँगे.
अच्छा है डायरी
में सफों की कमी नहीं,
वरना तो इतने राज़
छुपाए न जाएँगे.
सुलगे हैं वक़्त
की जो रगड़ खा के मुद्दतों,
फूकों से वो चराग़
बुझाए न जाएँगे.
अब वक़्त कुछ हिसाब
करे तो मिले सुकूँ,
दिल से तो इतने
घाव मिटाए न जाएँगे.
इतनी पिलाओगे जो
नज़र की ये शोखियाँ,
यूँ पाँव पाँव चल
के तो जाए न जाएँगे.
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