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गुरुवार, 25 नवंबर 2021
कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं
कहीं से छूट गए पर कही से उलझे हैं.
शनिवार, 2 मई 2020
चाहत या सोच की उड़ान ... ?
पूछता हूँ अपने आप से ... क्या प्रेम रहा है हर वक़्त
... या इसके आवरण के पीछे छुपी रहती है शैतानी सोच ... अन्दर बाहर एक बने रहने का नाटक करता इंसान ... क्या थक कर अन्दर या बाहर के किसी एक सच को अंजाम
दे पायेगा ... सुनो तुम अगर पढ़ रही हो तो इस बात को दिल से न लगाना ... सच तो तुम जानती
ही हो ...
तुम्हें देख कर मुस्कुराता हूँ
जूड़े में पिन लगाती तुम कुछ गुनगुना रही हो
वर्तमान में रहते हुए
अदृश्य वर्तमान में उतर जाने की चाहत रोक नहीं पाता
हालांकि रखता हूँ अपना चेतन वर्तमान भी साथ
मेरे शैतान का ये सबसे अच्छा शग़ल रहा है
चेहरे पर मुस्कान लिए "स्लो मोशन" में
आ जाता हूँ तुम्हारे इतना करीब
की टकराने लगते है
तुम्हारी गर्दन के नर्म रोएं, मेरी गर्म साँसों से
ठीक उसी समय
मुन्द्वा देता हूँ नशे के आलम में डूबी तुम्हारी दो
आँखें
गाढ़ देता हूँ जूड़े में लगा पिन, चुपके से तुम्हारी
गर्दन में
यक-ब-यक लम्बे होते दो दांतों की तन्द्रा तोड़ कर
लौट आता हूँ वर्तमान में
मसले हुए जंगली गुलाब की गाढ़ी लाली
चिपक जाती है उँगलियों में ताज़ा खून की खुशबू लिए
मैं अब भी मुस्कुरा रहा हूँ तुम्हे देख कर
जूड़े में पिन लगाती तुम भी कुछ गुनगुना रही हो
इश ... पढ़ा तो नहीं न तुमने ...
#जंगली_गुलाब
बुधवार, 8 अप्रैल 2020
हैंग-ओवर उम्मीद का ...
एहसास ... जी हाँ ... क्यों करें किसी दूसरे के एहसास की
बातें, जब खुद का होना भी बे-मानी हो कभी कभी ... अकसर ज़िन्दगी गुज़र
जाती है खुद को च्यूंटी काटते ... जिन्दा हूँ, तो जिन्दा होने एहसास क्यों नहीं
होता ...
उँगलियों में चुभे कांटे
इसलिए भी गढ़े रहने देता हूँ
की हो सके एहसास खुद के होने का
हालाँकि करता हूँ रफू ... जिस्म पे लगे घाव
फिर भी दिन है की रोज टपक जाता है ज़िन्दगी से
उम्मीद घोल के पीता हूँ हर शाम
कि बेहतर है सपने टूटने से
उम्मीद के हैंग-ओवर में रहना
सिवाए इसके की खुदा याद आता है
वजह तो कुछ भी नहीं तुम्हें प्रेम करने की
और वजह जंगली गुलाब के खिलने की ...?
ये कहानी फिर कभी ...
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 15 अक्तूबर 2018
बुखार ... खुमारी ... या जंगली गुलाब ...
बेहोशी ने अभी लपेटा नहीं बाहों में
रुक जाती है रफ़्तार पत्थर से टकरा कर
जाग उठता है कायनात का कारोबार
नींद गिर जाती है उस पल
नींद की आगोश से
दो पल अभी गुज़रे नहीं
ख़त्म पहाड़ी का आखरी सिरा
हवा में तैरता शरीर
चूक गयी हो जैसे ज़मीन की चुम्बक
नींद का क्या
गिर जाती है फिर नींद की आगोश से
रात का अंजान लम्हा
लीलते समुन्दर से
सिर बाहर रखने की जद्दो-जहद
हवा फेफड़ों में भर लेने की जंग
शोर में बदलती “क्या हुआ” “उठो” की हलकी धमक
लौटा तो लाती हो तुम पसीने से लथपथ बदन
पर नींद फिर गिर जाती है
नींद की आगोश से
वो क्या था
तपते “बुखार” में सुलगता बदन
गहरी थकान में डूबी खुमारी
या किसी जंगली गुलाब के एहसास में गुज़री रात
दिन के उजाले में जागता है मीठा दर्द
पर कहाँ ...
छोड़ो ... ये भी कोई सोचने की बात है ...
सोमवार, 17 सितंबर 2018
कभी तो ...
कभी तो गूंजो कान में
गुज़र जाओ छू के कंधा
गुज़र जाती है क़रीब से जैसे आवारा हवा
उतर आओ हथेली की रेखाओं में
जैसे सर्दी की कुनमुनाती धूप
खिल उठो जैसे खिलता है जंगली गुलाब
पथरीली जमीन पर
झांको छुप छुप के झाड़ी के पीछे से
झाँकता है जैसे चाँद बादल की ओट से
मिल जाओ अचानक नज़रें चुराते
मिलते हैं जाने पहचाने दो अजनबी जैसे
मैं चाहता हूँ तुम्हें ढूँढ निकालना
अतीत के गलियारे से
वर्तमान की राह पर ...
गुज़र जाओ छू के कंधा
गुज़र जाती है क़रीब से जैसे आवारा हवा
उतर आओ हथेली की रेखाओं में
जैसे सर्दी की कुनमुनाती धूप
खिल उठो जैसे खिलता है जंगली गुलाब
पथरीली जमीन पर
झांको छुप छुप के झाड़ी के पीछे से
झाँकता है जैसे चाँद बादल की ओट से
मिल जाओ अचानक नज़रें चुराते
मिलते हैं जाने पहचाने दो अजनबी जैसे
मैं चाहता हूँ तुम्हें ढूँढ निकालना
अतीत के गलियारे से
वर्तमान की राह पर ...
सोमवार, 6 अगस्त 2018
एहसास ... जिन्दा होने का ...
एहसास ... जी हाँ ... क्यों करें किसी दूसरे के एहसास की
बातें, जब की खुद का होना भी बे-मानी हो जाता है कभी कभी ... अकसर ज़िन्दगी गुज़र
जाती है खुद को चूंटी काटते काटते ... जिन्दा हूँ तो उसका एहसास क्यों नहीं ...
उँगलियों में चुभे कांटे
इसलिए भी गढ़े रहने देता हूँ
कि हो सके एहसास खुद के होने का
हालांकि करता हूँ रफू जिस्म पे लगे घाव
फिर भी दिन है
कि रोज टपक जाता है ज़िंदगी से
उम्मीद घोल के पीता हूँ हर शाम
कि बेहतर है सपने टूटने से
उम्मीद के हैंग-ओवर में रहना उम्र भर
सिवाए इसके की खुदा याद आता है
वजह तो कुछ भी नहीं तुम्हें प्रेम करने की
और वजह जंगली गुलाब के खिलने की ...?
ये कहानी फिर कभी ...
सोमवार, 26 मार्च 2018
जीत या हार ...
सपने पालने की कोई उम्र नहीं होती
वो अक्सर उतावली हो के बिखर जाना चाहती थी
ऊंचाई से गिरते झरने की बूँद सरीखी
ओर जब बाँध लिया आवारा मोहब्बत ने उसे ...
उतर गई अंधेरे की सीडियां, आँखें बंद किए
ये सच है वो होता है बस एक पल
बिखर जाने के बाद समेटने का मन नहीं होता जिसे
उम्र की सलेट पर जब सरकती है ज़िंदगी
कायनात खुद-ब-खुद बन जाती है चित्रकार
हालांकि ऐसा दौर कुछ समय के लिए आता है सबके जीवन में
(ओर वो भी तो इसी दौर से गुज़र रही थी
मासूम सा सपना पाले)
फिर आया तनहाई का लम्बा सफ़र
उजली बाहों के कई शहसवार वहां से गुज़रे
पर नहीं खुला सन्नाटों का पर्दा ...
उम्र काफी नहीं होती पहली मुहब्बत भुलाने को
जुम्बिश खत्म हो जाती है आँखों की
पर यादें ...
वो तो ताज़ा रहती हैं जंगली गुलाब की खुशबू लिए
ये जीत है आवारा मुहब्बत की या हार उस सपने की
जिसको पालने की कोई उम्र नहीं होती
सोमवार, 19 मार्च 2018
समय - एक इरेज़र ... ?
यादें यादें यादें ... क्यों आती हैं ... कब आती हैं ...
कैसे आती हैं ... जरूरी है यादों की यादों में रहना ... या साँसों का हिसाब रखना ... या फिर जंगली गुलाब का याद
रखना ...
सांसों के सिवा
मुसलसल कुछ नहीं जिंदगी में
वैसे तिश्नगी भी मुसलसल होती है
जब तक तू नहीं होती
पतझड़ का आना बेसबब नहीं
सूखे पत्तों के चटखने की आवाज़ से
कितनी मिलती जुलती है
तेरी हंसी की खनक
यादें आएं इसलिए ज़रूरी है
किसी का चले जाना जिंदगी से
हालाँकि नहीं भरते समय की तुरपाई से
कुछ यादों के हल्के घाव भी
कोरे कैनवस में रंग भरने के लिए
जैसे ज़रूरी है यादों का सहारा
उतना ही ज़रूरी है
अपने आप से बातें करना
अज़ाब बन के आती हैं जंगली गुलाब की यादें
समय वो इरेज़र नहीं जो मिटा सके ...
सोमवार, 12 मार्च 2018
सफ़र जो आसान नहीं ...
बेतहाशा फिसलन की राह पर
काम नहीं आता मुट्ठियों से घास पकड़ना
सुकून देता है उम्मीद के पत्थर से टकराना
या रौशनी का लिबास ओढ़े अंजान टहनी का सहारा
थाम लेती है जो वक़्त के हाथ
चुभने के कितने समय बाद तक
वक़्त का महीन तिनका
घूमता रहता है दर्द का तूफानी दरिया बन कर
पाँव में चुभा छोटा सा लम्हा
शरीर छलनी होने पे ही निकल पाता है
अभी सुख की खुमारी उतरी भी नहीं होती
आ जाती है दुःख की नई लहर
आखरी पाएदान पे जो खड़ी होती है सुख के
हर आग की जलन एक सी
किसी ठहरे हुवे सवाल की तरह
लम्हों की राख रह जाती है जगह जगह इतिहास समेटे
हाथ लगते ही ख्वाब टूट जाता है
सवाल खड़ा रहता है
उम्मीद का उजाला
आँखों का काजल बन के नहीं आता
धूप जरूरी है रात के बाद
किसी भी जंगली गुलाब के खिलने को
किसी साए के सहारे भी तो जिंदगी नहीं चलती
बुधवार, 19 जुलाई 2017
यादें ... बस यादें
यादें यादें यादें ... क्या आना बंद होंगी ... काश की रूठ
जाएँ यादें ... पर लगता तो नहीं और साँसों तक तो बिलकुल भी नहीं ... क्यों वक़्त
जाया करना ...
मिट्टी की
कई परतों के बावजूद
हलके नहीं होते
कुछ यादों की निशान
हालांकि मूसलाधार बारिश के बाद
साफ़ हो जाता है आसमान
साफ़ हो जाती हैं
गर्द की पीली चादर ओढ़े
हरी हरी मासूम पत्तियां
साफ़ हो जाती हैं
उदास घरों की टीन वाली छतें
ओर ... ये काली सड़क भी
रुकी रहती है जो
तेरे लौटने के इंतज़ार में
इंतज़ार है जो ख़त्म नहीं होता
जंगली गुलाब है
जो खिलता बंद नहीं करता
मंगलवार, 11 जुलाई 2017
आंख-मिचोली ... नींद और यादों की
नींद और यादें ... शायद दुश्मन हैं अनादी काल से ... एक
अन्दर तो दूजा बाहर ... पर क्यों ... क्यों नहीं मधुर स्वप्न बन कर उतर आती हैं यादें
आँखों में ... जंगली गुलाब भी तो ऐसे ही खिल उठता है सुबह के साथ ...
सो गए पंछी घर लौटने के बाद
थका हार दिन, बुझ गया अरब सागर की आगोश में
गहराती रात की उत्ताल तरंगों के साथ
तेरी यादों का शोर किनारे थप-थपाने लगा
आसमान के पश्चिम छोर पे
टूटते तारे को देखते देखते, तुम उतर जाती हो आँखों में
(नींद तो अभी दस्तक भी न दे पाई थी)
“जागते रहो” की आवाज़ के साथ
घूमती है रात, गली की सुनसान सड़कों पर
पर नींद है की नहीं आती
तुम जो होती हो
सुजागी आँखों में अपना कारोबार फैलाए
रात का क्या, यूं ही गुज़र जाती है
और ठीक उस वक़्त
जब पूरब वाली पहाड़ी के पीछे लाल धब्बों की दादागिरी
जबरन मुक्त करती है श्रृष्टि को अपने घोंसले से
छुप जाती हो तुम बोझिल पलकों में
उनींदी आँखों में नीद तो उस वक़्त भी नहीं आती
हाँ ... डाली पे लगा जंगली गुलाब
जाने क्यों मुस्कुराने लगता है उस पल ...
मंगलवार, 27 जून 2017
सुकून ...
सुकून अगर मिल सकता बाज़ार में तो कितना अच्छा होता ... दो
किलो ले आता तुम्हारे लिए भी ... काश की पेड़ों पे लगा होता सुकून ... पत्थर मारते
भर लेते जेब ... क्या है किसी के पास या सबको है तलाश इसकी ...
नहीं चाहता प्यार करना
के जीना चाहता हूं कुछ पल सुकून के
अपने आप से किये वादों से परे
उड़ना चाहता हूं उम्मीद के छलावों से इतर
के छू सकूँ आसमां
फिर चाहे न आ सकूँ वापस ज़मीन पर
गिरती पड़ती लहरों के सहारे
जाना चाहता हूं समय की चट्टान के उस पार
जुड़ती है सीमा नए आकाश की जहाँ
स्वार्थ से अलग, प्रेम से जुदा
गढ़ सकूँ जहाँ अपने लिए नई दुनिया
के जीना चाहता हूं कुछ पल सुकून के
जंगली गुलाब की यादों से अलग ...
सोमवार, 19 जून 2017
कैसे कह दूं ...
सुलगते ख्वाब ... कुनमुनाती धूप में लहराता आँचल ... तल की
गहराइयों में हिलोरें लेती प्रेम की सरगम ... सतरंगी मौसम के साथ साँसों में घुलती
मोंगरे की गंध ... क्या यही सब प्रेम के गहरे रिश्ते की पहचान है ... या इनसे भी
कुछ इतर ... कोई जंगली गुलाब ...
झर गई दीवारें
खिड़की दरवाजों के किस्से हवा हुए
मिट्टी मिट्टी आंगन धूल में तब्दील हो गया
पर अभी सूखा नहीं कोने में लगा बबूल
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया
अनगिनत यादों के काफिले गुज़र गए इन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
जाने कब छिल गयी घर जाने वाली सड़क की बजरी
पर बाकी है, धूल उड़ाती पगडण्डी अभी
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया
कुछ मरे हुवे लम्हों की रखवाली में
मेरे नाम लिखा टूटा पत्थर भी ले रहा है सांसें
कैसे मान लूं की रिश्ता टूट गया
कई दिनों बाद इधर से गुज़रते हुए सोच रहा हूँ
हिसाब कर लूं वक़्त के साथ
जाने कब वक़्त छोड़ जाए, वक़्त का साथ
फिर उस जंगली गुलाब को भी तो साथ लेना है
खिल रहा है जो मेरी इंतज़ार में ...
मंगलवार, 6 जून 2017
तितर बितर लम्हे ...
समय की पगडण्डी पे उगी मुसलसल यादें, इक्का दुक्का क़दमों के निशान ... न खत्म होने
वाला सफ़र और गुफ्तगू तनहाई से ... ये लम्हे कभी गोखरू, कभी फूल ... तो कभी चुभता हुआ
दंश, जंगली गुलाब का ...
मेहनत की मुंडेर पे पड़ा होता है
कामयाबी का एक टुकड़ा
जरूरी है नसीब का होना
सौ मीटर की इस रेस को जीतने के लिए
या फिर ...
तेरे जूडे में जंगली गुलाब लगाने के लिए
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चल तो लेता है हर कोई
पर सकून भरी रहगुज़र नहीं मिलती
सफर से लंबा यादों का बोझ
ओर यादों की पोटली में ताज़ा जंगली गुलाब
शायद शुरू हो नया रास्ता
उम्र के आखरी चौराहे से
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घर के दरवाजे पर छोड़ देता हूं दफ्तर का भारीपन
की काफी है पत्नी के कन्धों पर
गृहस्थी ओर बच्चों के बस्ते का बोझ
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आखरी पढाव पे टिके रहना संभव नहीं होता
बर्फ की तरह हथेली से पिघल जाती है कामयाबी
पहली लहर के साथ निकल जाती है समुन्दर की रेत
नसीब फिर जरूरी हो जाता है कोसने के लिए
सोमवार, 29 मई 2017
यादें ... जंगली गुलाब की ...
धाड़ धाड़ चोट मारते लम्हे ... सर फट भी जाये तो क्या निकलेगा
... यादों का मवाद ... जंगली गुलाब का कीचड़ ... समय की टिकटिक एक दुसरे से जुड़ी क्यों है ...
एक पल, यादों के ढेर दूसरे पल को सौंपे, इससे पहले सन्नाटे का पल क्यों नहीं आता
...
फंस के रह गया है ऊँगली से उधड़ा सिरा
जंगली गुलाब के काँटों में
तुझसे दूर जाने की कोशिश में
खिंच रही है उम्र धागा धागा
xxxx
जैसे बची रहती है आंसू की बूँद पलकों के पीछे
खुशी का आखरी लम्हा भी छुपा लिया
आसमानी चुन्नी का अटकना तो याद है ...
जंगली गुलाब की चुभन
रह रह के उठती है उस रोज से
xxxx
मुसलसल चलने का दावा
पर कौन चल सका अब तक फुरसत के चार कदम
धूल उड़ाते पाँव
गुबार के पीछे जागता शहर
पेड़ों के इर्द-गिर्द बिखरे यादों के लम्हे
मुसाफिर तो कब के चले गए
खिल रहा है जंगली गुलाब का झाड़
किसी के इन्तार में
xxxx
कुछ मुरीदों के ढेर, मन्नतों के धागे ...
दुआ में उठते हाथों के बीच
मुहब्बत की कब्र से उठता जंगली गुलाब की अगरबत्ती का धुंवा
इस खुशबू की हद मेरे प्रेम जितनी तो होगी ना ...?
सोमवार, 9 मार्च 2015
क्या है प्रेम का सच ...
पूछता हूँ अपने आप से ... क्या प्रेम रहा है हर वक़्त ... या इसके आवरण के पीछे छुपी रहती है शैतानी सोच ... अन्दर बाहर एक बने रहने का नाटक करता इंसान, क्या थक कर अन्दर या बाहर के किसी एक सच को अंजाम दे पायेगा ... सुनो तुम अगर पढ़ रही हो तो इस बात को दिल से न लगाना ... सच तो तुम जानती ही हो ...
तुम्हें देख कर मुस्कुराता हूँ
जूड़े में पिन लगाती तुम कुछ गुनगुना रही हो
वर्तमान में रहते हुए
अतीत में उतर जाने की चाहत रोक नहीं पाता
हालांकि रखता हूँ अपनी चेतना
अतीत में उतरते हुए भी साथ
मेरे शैतान का ये सबसे अच्छा शुगल रहा है
चेहरे पर मुस्कान लिए "स्लो मोशन" में
आ जाता हूँ तुम्हारे इतना करीब
की टकराने लगते है
तुम्हारी गर्दन के नर्म रोये मेरी गर्म साँसों से
ठीक उसी समय
मूंद देता हूँ नशे के आलम में डूबी तुम्हारी दो आँखें
और गाढ़ देता हूँ जूड़े में लगा पिन चुपके से तुम्हारी गर्दन में
यक-ब-यक लम्बे होते दो दांतों की तन्द्रा तोड़ कर
लौट आता हूँ वर्तमान में
मसले हुए जंगली गुलाब की गाढ़ी लाली
चिपक जाती है उँगलियों में ताज़ा खून की खुशबू लिए
मैं अब भी मुस्कुरा रहा हूँ तुम्हे देख कर
जूड़े में पिन लगाती तुम भी कुछ गुनगुना रही हो
तुम्हें देख कर मुस्कुराता हूँ
जूड़े में पिन लगाती तुम कुछ गुनगुना रही हो
वर्तमान में रहते हुए
अतीत में उतर जाने की चाहत रोक नहीं पाता
हालांकि रखता हूँ अपनी चेतना
अतीत में उतरते हुए भी साथ
मेरे शैतान का ये सबसे अच्छा शुगल रहा है
चेहरे पर मुस्कान लिए "स्लो मोशन" में
आ जाता हूँ तुम्हारे इतना करीब
की टकराने लगते है
तुम्हारी गर्दन के नर्म रोये मेरी गर्म साँसों से
ठीक उसी समय
मूंद देता हूँ नशे के आलम में डूबी तुम्हारी दो आँखें
और गाढ़ देता हूँ जूड़े में लगा पिन चुपके से तुम्हारी गर्दन में
यक-ब-यक लम्बे होते दो दांतों की तन्द्रा तोड़ कर
लौट आता हूँ वर्तमान में
मसले हुए जंगली गुलाब की गाढ़ी लाली
चिपक जाती है उँगलियों में ताज़ा खून की खुशबू लिए
मैं अब भी मुस्कुरा रहा हूँ तुम्हे देख कर
जूड़े में पिन लगाती तुम भी कुछ गुनगुना रही हो
सोमवार, 2 मार्च 2015
ज़िंदगी का सेल्युलाइड ...
उम्र उतरती है इंसान पर, उसके चेहरे, उसके बालों पर, उसके जिस्म पर ... पर चाह कर भी नहीं उतर पाती यादों में बसी तुम्हारी तस्वीर पर, अतीत में बिखरे लम्हों पर ... मुद्दत बाद भी बूढी नहीं हो तुम बंद आँखों के पीछे ... ये इश्क है, रुका हुआ समय या माया प्रेम रचने वाले की ...
ठीक उसी समय
जब चूम रही होती हो तुम
जंगली गुलाब का फूल
चहचहाते हैं दो परिंदे पीपल की सबसे ऊंची डाल पे
रात भी रोक लेती है शाम का आँचल
पिघलने लगता है सूरज
समुन्दर की आगोश में
ठीक उसी समय
तकिये को बाहों में दबाए
मैं भी मूँद लेता हूँ अपनी आँखें
बज उठती है ठिठकी हुई पाज़ेब कायनात की
बहने लगती है हवा फिजाओं में
"ज़िंदगी के सेल्युलाइड में कैद कुछ लम्हे
कभी पुराने नहीं होते"
ठीक उसी समय
जब चूम रही होती हो तुम
जंगली गुलाब का फूल
चहचहाते हैं दो परिंदे पीपल की सबसे ऊंची डाल पे
रात भी रोक लेती है शाम का आँचल
पिघलने लगता है सूरज
समुन्दर की आगोश में
ठीक उसी समय
तकिये को बाहों में दबाए
मैं भी मूँद लेता हूँ अपनी आँखें
बज उठती है ठिठकी हुई पाज़ेब कायनात की
बहने लगती है हवा फिजाओं में
"ज़िंदगी के सेल्युलाइड में कैद कुछ लम्हे
कभी पुराने नहीं होते"
सोमवार, 23 फ़रवरी 2015
अधूरे लम्हे ...
पता नही प्रेम है के नही ... पर कुछ करने का मन करना वो भी किसी एक की ख़ातिर ... जो भी नाम देना चाहो दे देना ... हाँ ... जैसे कुछ शब्द रखते हैं ताकत अन्दर तक भिगो देने की, वैसे कुछ बारिशें बरस कर भी नहीं बरस पातीं ... लम्हों का क्या ... कभी सो गए कभी चुभ गए ...
रात के तीसरे पहर
पसरे हुए घने अँधेरे की चादर तले
बाहों में बाहें डाल दिन के न निकलने की दुआ माँगना
प्रेम तो नहीं कह सकते इसे
किस्मत वाले हैं जिन्होंने प्रेम नहीं किया
जंगली गुलाब के गुलाबी फूल उन्हें गुलाबी नज़र आते हैं
उतार नहीं पाता ठहरी हुयी शान्ति मन में
कि आती जाती साँसों का शोर
खलल न डाल दे तुम्हारी नींद में
तुम इसे प्यार समझोगी तो ये तुम्हारा पागलपन होगा
हर आदमी के अन्दर छुपा है शैतान
हक़ है उसे अपनी बात कहने का
तुमसे प्यार करने का भी
काश के टूटे मिलते सड़कों पे लगे लैम्प
काली हो जाती घनी धूप
आते जातों से नज़रें बचा कर
टांक देता जंगली गुलाब तेरे बालों में
वैसे मनाही तो नहीं तुम्हें चूमने की भी
रात के तीसरे पहर
पसरे हुए घने अँधेरे की चादर तले
बाहों में बाहें डाल दिन के न निकलने की दुआ माँगना
प्रेम तो नहीं कह सकते इसे
किस्मत वाले हैं जिन्होंने प्रेम नहीं किया
जंगली गुलाब के गुलाबी फूल उन्हें गुलाबी नज़र आते हैं
उतार नहीं पाता ठहरी हुयी शान्ति मन में
कि आती जाती साँसों का शोर
खलल न डाल दे तुम्हारी नींद में
तुम इसे प्यार समझोगी तो ये तुम्हारा पागलपन होगा
हर आदमी के अन्दर छुपा है शैतान
हक़ है उसे अपनी बात कहने का
तुमसे प्यार करने का भी
काश के टूटे मिलते सड़कों पे लगे लैम्प
काली हो जाती घनी धूप
आते जातों से नज़रें बचा कर
टांक देता जंगली गुलाब तेरे बालों में
वैसे मनाही तो नहीं तुम्हें चूमने की भी
शनिवार, 7 फ़रवरी 2015
रंग ...
इंद्र-धनुष के सात रंगों में रंग नहीं होते ... रंग सूरज की किरणों में भी नहीं होते और आकाश के नीलेपन में तो बिलकुल भी नहीं ... रंग होते हैं देखने वाले की आँख में जो जागते हैं प्रेम के एहसास से ... किसी के साथ से ...
दुनिया रंगीन दिखे
इसलिए तो नहीं भर लेते रंग आँखों में
तन्हा रातों की कुछ उदास यादें
आंसू बन के न उतरें
तो खुद-बी-खुद रंगीन हो जाती है दुनिया
दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब हसीन लम्हों के द्रख्त
जड़ बनाने लगते हैं दिल की कोरी जमीन पर
क्योंकि उसके साए में उगे रंगीन सपने
जगमगाते हैं उम्र भर
सच पूछो तो दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब तेरे एहसास के कुछ कतरों के साथ
फूल फूल डोलती हैं तितलियाँ
और उनके पीछे भागते हैं कुछ मासूम बच्चे
रंग-बिरँगे कपड़ों में
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी और आसमानी शाल ओढ़े
तुम भी तो करती हो चहल-कदमी रोज़ मेरे ज़ेहन में
दुनिया इसलिए भी तो रंगीन होती हैं
दुनिया इसलिए भी रंगीन होती है
की टांकती हो तुम जूड़े में जंगली गुलाब
दुनिया रंगीन दिखे
इसलिए तो नहीं भर लेते रंग आँखों में
तन्हा रातों की कुछ उदास यादें
आंसू बन के न उतरें
तो खुद-बी-खुद रंगीन हो जाती है दुनिया
दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब हसीन लम्हों के द्रख्त
जड़ बनाने लगते हैं दिल की कोरी जमीन पर
क्योंकि उसके साए में उगे रंगीन सपने
जगमगाते हैं उम्र भर
सच पूछो तो दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब तेरे एहसास के कुछ कतरों के साथ
फूल फूल डोलती हैं तितलियाँ
और उनके पीछे भागते हैं कुछ मासूम बच्चे
रंग-बिरँगे कपड़ों में
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी और आसमानी शाल ओढ़े
तुम भी तो करती हो चहल-कदमी रोज़ मेरे ज़ेहन में
दुनिया इसलिए भी तो रंगीन होती हैं
दुनिया इसलिए भी रंगीन होती है
की टांकती हो तुम जूड़े में जंगली गुलाब
रविवार, 1 फ़रवरी 2015
यादों के कुकुरमुत्ते
किसको पकड़ो किसको छोड़ो ... ये खरपतवार यादों की ख़त्म नहीं होती. गहरे हरे की रंग की काई जो जमी रहती है सदियों तक ... फिसलन भरी राह जहां रुकना आसान नहीं ... ये लहरें भी कहाँ ख़त्म होती हैं ... लौट आती हैं यादों की तरह बार बार किनारे पे सर पटकने ... कभी कांटे तो कभी फूल ...
सुबह की दस्तक से पहले
लिख आया कायनात के दरवाजे पे तेरा नाम
पूरब से आते हवा के झोंके
महकेंगे दिन भर जंगली गुलाब की खुशबू लिए
भूल नहीं पाता तुम्हें
कि यादों की चिल्लर के तमाम सिक्के
खनकते रहते हैं समय की जेब में
बस तेरे ही नाम से
लम्हों के बुलबुले उठते हैं हवा के साथ
फटते हैं कान के करीब
फुसफुसाते में जैसे अचानक तुम चीख पड़ीं कान में
नहीं आता तूफ़ान हवाओं के जोर पर
तूफ़ान खड़ा करने को
काफी है सुगबुगाहट तेरी याद की
कतरा कतरा रिसते रिसते
ख़त्म नहीं होती यादों की सिल्ली
ढीठ है ये बर्फ मौसम के साथ नहीं पिघलती
समय की पगडण्डी पर
धुंधला जाते हैं क़दमों के निशान
पर उग आते हैं जंगली गुलाब के झाड़
हसीन यादों की तरह
सुबह की दस्तक से पहले
लिख आया कायनात के दरवाजे पे तेरा नाम
पूरब से आते हवा के झोंके
महकेंगे दिन भर जंगली गुलाब की खुशबू लिए
भूल नहीं पाता तुम्हें
कि यादों की चिल्लर के तमाम सिक्के
खनकते रहते हैं समय की जेब में
बस तेरे ही नाम से
लम्हों के बुलबुले उठते हैं हवा के साथ
फटते हैं कान के करीब
फुसफुसाते में जैसे अचानक तुम चीख पड़ीं कान में
नहीं आता तूफ़ान हवाओं के जोर पर
तूफ़ान खड़ा करने को
काफी है सुगबुगाहट तेरी याद की
कतरा कतरा रिसते रिसते
ख़त्म नहीं होती यादों की सिल्ली
ढीठ है ये बर्फ मौसम के साथ नहीं पिघलती
समय की पगडण्डी पर
धुंधला जाते हैं क़दमों के निशान
पर उग आते हैं जंगली गुलाब के झाड़
हसीन यादों की तरह
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