स्वप्न मेरे: 2013

रविवार, 29 दिसंबर 2013

ये कोशिश है परों को चाँद के फिर से कुतरने की ...

सभी मित्रों को नव वर्ष की मंगल कामनाएँ ... सन २०१४ आपके जीवन में सुख, शान्ति और नित नई खुशियाँ ले के आए ...

खबर है आसमां पे कुछ सितारों के उभरने की
ये कोशिश है परों को चाँद के फिर से कुतरने की

जहाँ से लौटना मुमकिन नहीं होता है जीवन में
ज़रूरी तो नहीं उस राह पे तन्हा गुज़रने की

किसी के दिल में क्या है ये किसी को क्या पता होगा
चलो कोशिश करें इस बज़्म में सजने सँवरने की

सफर तय करके अब तो आ गई कश्ती किनारे पर
करें अब बात क्या सागर के सीने में उतरने की

अगर मिलना वही है जो लिखा है इस मुकद्दर में
ज़रूरत क्या है फिर जीने की खातिर काम करने की

अकेले भी उतर सकते हो पर अच्छा यही होगा
सहारा हो जो तिनके का तो कोशिश हो उतरने की 

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

धर्म के ही नाम पे लड़वा दिया ...

पाठशाला थी जहाँ तुड़वा दिया
और इक ठेका नया खुलवा दिया

खुदकशी का नाम दे के क़त्ल को
पंचनामा लाश का करवा दिया

देश का क़ानून इनकी जेब में
दिन दहाड़े घर से ही उठवा दिया

लूट के अस्मत किसी मज़लूम की
रात को फिर चौंक पे फिकवा दिया

उनके कूँए में जो डाली बाल्टी
सामने सबके उसे ठुकवा दिया

चंद सिक्के दे दिए ख़ैरात में
खेत अपने नाम पे लिखवा लिया

उम्र भर के पाप धोने के लिए
एक प्याऊ चौंक पे बनवा दिया

धर्म जो कहता रहा मिल के रहो
धर्म के ही नाम पे लड़वा दिया

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

हज़ारों चलेंगे जहाँ तुम चलोगे ...

उठो धार के साथ कब तक बहोगे
अभी जो न उठ पाए फिर कब उठोगे

उठो ये लड़ाई तो लड़नी है तुमको
कमर टूट जाएगी कब तक झुकोगे

ये ज़ुल्मों सितम यूँ ही चलता रहेगा
जो सहते रहे तो फिर सहते रहोगे

ये दुनिया का दस्तूर है याद रखना
दबाती है दुनिया के जब तक दबोगे

उठो आँख में आँख डालो सभी के
बनाती है दुनिया जो पागल बनोगे

ये गिद्धों की नगरी है सब हैं शिकारी
मिलेगा न पानी न जब तक लड़ोगे

रिवाजों की चादर से बाहर तो निकलो
हज़ारों चलेंगे जहाँ तुम चलोगे
  

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

जीतना हारना नहीं होता ...

प्यार बस चाहना नहीं होता
रात भर जागना नहीं होता

है तभी तक ख़ुशी ख़ुशी जब तक
दर्द से सामना नहीं होता

वक़्त लिखता है ज़िस्म पे किस्से
उम्र भर भागना नहीं होता

है तभी तक शिखर शिखर जब तक
पांव से नापना नहीं होता

झूठ अपना नहीं सका अब तक
सत्य को मानना नहीं होता

जीत हो या शिकस्त जीवन में
डर के मुंह ढांपना नहीं होता

जिंदगी भर का साथ है जीवन
जीतना हारना नहीं होता  

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

क्या मिला है देश को इस संविधान से ...

इसलिए की गिर न पड़ें आसमान से
घर में छुप गए हैं परिंदे उड़ान से

क्या हुआ जो भूख सताती है रात भर
लोकतंत्र तो है खड़ा इमिनान से

चंद लोग फिर से बने आज रहनुमा
क्या मिला है देश को इस संविधान से

जीत हार क्या है किसी को नहीं पता
सब गुज़र रहे हैं मगर इम्तिहान से

है नसीब आज तो देरी न फिर करो
चैन तो खरीद लो तुम इस दुकान से

झूठ बोलते में सभी डर गए मगर
सच नहीं निकलता किसी की जुबान से

गुनाहगार को लगे या बेगुनाह को
तीर तो निकल ही गया है कमान से







सोमवार, 18 नवंबर 2013

आ गया जो धर्म धड़े हो गए ...

ज़ुल्म के खिलाफ खड़े हो गए
नौनिहाल आज बड़े हो गए

थे जो सादगी के कभी देवता
बुत उन्ही के रत्न जड़े हो गए

ये चुनाव खत्म हुए थे अभी
लीडरों के नाक चड़े हो गए

आदमी के दर्द, खुशी एक से
आ गया जो धर्म, धड़े हो गए

लूटमार कर के कहा बस हुआ
आज से नियम ये कड़े हो गए

इश्क प्यार दर्द खुदा कुछ नहीं
बंदगी में यार, छड़े हो गए


सोमवार, 11 नवंबर 2013

कमाई खत्म हो जाती है अपना घर बनाने में ...

किसी को हद से ज़्यादा प्यार न करना ज़माने में
गुज़र जाती है पूरी उम्र ज़ालिम को भुलाने में

कभी बच्चों के सपने के लिए बरबाद मत करना
कमाई खत्म हो जाती है अपना घर बनाने में

करो बस फ़र्ज़ पूरा हक न बच्चों से कभी माँगो
जो हक माँगा लगेंगे दो मिनट कुछ भी सुनाने में

जो इज्ज़त दे रहे बच्चे तो उनका मान भी रक्खो
समझ लो है बड़प्पन ये समझदारी निभाने में

नहीं मिलती बिना मेहनत किसी को कामयाबी फिर
कंजूसी मत करो अपना पसीना तुम बहाने में

कभी टूटे हुए पँखों से मिलना तो उन्हें कहना
लड़ो खुद से, मज़ा मिलता है खुद को आजमाने में

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

बाजुओं में दम अगर भरपूर है

सिर झुकाते हैं सभी दस्तूर है
बाजुओं में दम अगर भरपूर है

चाँद सूरज से था मिलना चाहता
रात के पहरे में पर मजबूर है

छोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ
पर हवा बैठी जो थक के चूर है

बर्फ की वादी ने पूछा रात से
धूप की पदचाप कितनी दूर है

हो सके तो दिल को पत्थर मान लो
कांच की हर चीज़ चकनाचूर है

वो पसीने से उगाता है फसल
वो यकीनन ही बड़ा मगरूर है

बेटियाँ देवी भी हैं और बोझ भी
ये चलन सबसे बड़ा नासूर है 

सोमवार, 4 नवंबर 2013

बाज़ुओं में दम अगर भरपूर है

सिर झुकाते हैं सभी दस्तूर है
बाज़ुओं में दम अगर भरपूर है

चाँद सूरज से था मिलना चाहता 
रात के पहरे में पर मजबूर है

छोड़ आया हूँ वहाँ चिंगारियाँ 
पर हवा बैठी जो थक के चूर है

बर्फ की वादी ने पूछा रात से 
धूप की पदचाप कितनी दूर है

हो सके तो दिल को पत्थर मान लो 
काँच की हर चीज़ चकनाचूर है

वो पसीने से उगाता है फसल 
वो यकीनन ही बड़ा मगरूर है

बेटियाँ देवी भी हैं और बोझ भी 
ये चलन सबसे बड़ा नासूर है

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

झूठ चादर से ढक नहीं पाते ...

वो जो पत्थर चमक नहीं पाते 
बीच बाज़ार बिक नहीं पाते 

टूट जाते हैं वो शजर अक्सर 
आँधियों में जो झुक नहीं पाते   

फाइलों में दबा दिया उनको 
कितने मज़लूम हक नहीं पाते   

रात जितनी घनी हो ये तारे 
धूप के आगे टिक नहीं पाते  

सिलसिला कायनात का ऐसा 
रात हो दिन ये रुक नहीं पाते 

पांव उनके निकल ही आते हैं 
झूठ चादर से ढक नहीं पाते  

बुधवार, 23 अक्तूबर 2013

परों के साथ बैसाखी लगा दी ...

समय ने याद की गुठली गिरा दी 
लो फिर से ख्वाब की झाड़ी उगा दी 

उड़ानों से परिंदे डर गए जो 
परों के साथ बैसाखी लगा दी 

किनारे की तरफ रुख मोड़ के फिर 
हवा के हाथ ये कश्ती थमा दी 

दिया तिनका मगर इक छेद कर के 
कहा हमने वफादारी निभा दी 

कहां हैं मानते इसको परिंदे 
जो दो देशों ने ये सीमा बना दी 

बुजुर्गों के दिलों पे रख के पत्थर 
दरों दीवार बच्चों ने उठा दी 

तेरी यादें जुडी थीं साथ जिसके 
लो हमने आज वो तितली उड़ा दी 

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

सुरमई रंगों से अपनी दास्तां लिक्खी हुई ...

मुद्दतों से कैद हैं कुछ पर्चियां लिक्खी हुई 
पूछना ना कौन से पल में कहां लिक्खी हुई    

बंदिशें हैं तितलियों के खिलखिलाने पे यहाँ 
इस हवेली की बुलंदी पे खिज़ां लिक्खी हुई 

पोटली में माँ हमेंशा ढूंढती रहती है कुछ 
कतरनें हैं कुछ पुरानी खत नुमा लिक्खी हुई 

आईने में है हुनर वो देख लेगा दूर से  
उम्र की ताज़ा लकीरों में फ़ना लिक्खी हुई 
 
पढ़ रही है आसमानी हर्फ़ में बादे सबा 
इश्क की कोई इबारत दरमयां लिक्खी हुई 

इस शहर के पत्थरों को देखना मिल जाएगी     
सुरमई रंगों से अपनी दास्तां लिक्खी हुई 

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

जेब में खंजर छुपा के लाएगा ...

जब सुलह की बात करने आएगा 
जेब में खंजर छुपा के लाएगा 

क्यों बना मजनू जो वो लैला नहीं   
उठ विरह के गीत कब तक गाएगा 

एक पत्थर मार उसमें छेद कर 
उड़ गया बादल तो क्या बरसाएगा 

चंद खुशियाँ तू भी भर ले हाथ में 
रह गया तो बाद में पछताएगा 

छीन ले शमशीर उसके हाथ से 
मार कब तक बेवजह फिर खाएगा 

दर्द पर मरहम लगा दे गैर के 
देख फिर ये आसमां झुक जाएगा 

तू बिना मांगे ही देना सीख ले 
देख बिन मांगे ही सबकुछ पाएगा 
  

सोमवार, 30 सितंबर 2013

एक साल माँ के बिना ...

अजीब सा भारीपन लिए ये महीना भी बीत गया. इसी महीने पिछले साल माँ हमको छोड़ गई थी हालांकि दिन ओर रात तो आज भी वैसे ही चल रहे हैं. जिस मंदिर में अक्सर माँ के साथ जाता था इस बार वहीं एक कोने में उसकी फोटो भी थी. अजीब लगा माँ को फ्रेम की चारदीवारी में देख के इस बार ...

है तो बहुत कुछ जो लिख सकता हूं, लिखना चाहता भी हूं ओर लिखूंगा भी ओर सच कहूं तो मैं ही क्यों, माँ के लिए तो कोई भी संतान जितना चाहे लिख सकती है ... पर शायद एक ही विषय पे लगातार सभी मेरी भावनाओं को पढ़ें, ये कुछ अधिक चाहना हो गया. अगली रचनाएं सबकी रुचि-अनुसार लिखने का प्रयास करूँगा.    

आज की कविता दरअसल कोई कविता न हो के एक ऐसा अनुभव है जो मैंने महसूस किया था अबसे ठीक एक साल पहले जो आज साझा कर रहा हूं ...
    

एहसास तो मुझे भी हो रहा था 
पर मन मानने को तैयार नहीं था 

शांत चित तू ज़मींन पे लेटी थी   

मुंह से बस इतना निकला 
“मुझे पहले क्यों नहीं बताया” 

सब रो रह थे 
आंसू तो मेरे भी बह रहे थे 
तेरे पैरों को लगातार हिला रहा था   

अचानक तू मुस्कुरा के बोली 
“बताती तो क्या कर लेता” 

जब तक आँख उठा के तुझे देख पाता 
तू फिर से चिरनिंद्रा में लीन हो गयी 

सच बताना माँ ... 
तू मेरा इन्तार कर रही थी न    
वो तेरी ही आवाज़ थी न ... 

सोमवार, 16 सितंबर 2013

समझती है अभी भी पांचवीं में पढ़ रहा हूं मैं ...

बुढापे में भी बच्चा हूं मुझे ऐसे निहारेगी 
कभी लल्ला, कभी राजा मुझे अम्मा पुकारेगी 

मेरी माँ पे असर होता नहीं है बात का कोई 
में घर लौटूं नज़र हर हाल में मेरी उतारेगी 

समझती है अभी भी पांचवीं में पढ़ रहा हूं मैं 
नहा करके जो निकलूँ बाल वो मेरे संवारेगी 
 
कभी परदेस से लौटूं नहीं घर देर हो जाए 
परेशानी में अम्मा रात आँखों में गुजारेगी 

जहां तुलसी लगाई पेड़ पीपल का लगाया था 
अभी भी अपने हाथों से उस आँगन को बुहारेगी 

उदासी का सबब खामोश रह के जान लेगी फिर    
छुपा के अपने आँचल में वो होले से दुलारेगी 


सोमवार, 9 सितंबर 2013

कोशिश - माँ को समेटने की ...

तू साथ खड़ी मुस्कुरा रही थी    
तेरा अस्थि-कलश जब घर न रख के 
मंदिर रखवाया गया  

यकीन जानना    
वो तुझे घर से बाहर करने की साजिश नहीं थी   

बरसों पुराने इस घर से 
जहाँ की हर शै में तू ही तू है 
तुझे दूर भी कैसे कर सकता था कोई  

देख ... 
मुस्कुरा तो तू अब भी रही है      
देख रही है अपनी चीज़ों को झपट लेने का खेल 

तुझसे बेहतर ये कौन समझ सकता है 
ये तेरे वजूद को मिटा देने की योजना नही 

सब जानते हैं अपने होते हुए 
कमी रहने ही नहीं दी तूने किसी भी चीज़ की  

ये तो तेरे एहसास को समेट लेने की एक कोशिश है 
तुझसे जुड़े रहने का एक बहाना 
  
तभी तो तेरी संजीवनी को सब रखना चाहते है अपने करीब 
ताकि तू रह सके ... हमेशा उनके पास, उनके साथ ... 

  

सोमवार, 2 सितंबर 2013

समय ...

एक ही झटके में सिखा दीं वो तमाम बातें 
समय ने 
सीख नहीं सका, बालों में सफेदी आने के बावजूद 
उस पर मज़े की बात      
न कोई अध्यापक, न किताब, न रटने का सिलसिला 
जब तक समझ पाता, छप गया पूरा पाठ दिमाग में 
जिंदगी भर न भूलने के लिए   

सोचता था पा लूँगा हर वो चीज़ समय से लड़ के 
जो लेना चाहता हूं 
समय के आगे कभी नतमस्तक नहीं हुआ 
हालांकि तू हमेशा कहती रही समय की कद्र करने की ... 

सच तो ये है की सपने में भी नहीं सोच सका 
रह पाऊंगा तेरे बगेर एक भी दिन    
पर सिखा दिया समय ने, न सिर्फ जीना, बल्कि जीते भी रहना 
तेरे चले जाने के बाद भी इस दुनिया में 

तू अक्सर कहा करती थी वक़्त की मार का इलाज 
हकीम लुकमान के पास भी नहीं ...    
समय की करनी के आगे सर झुकाना पड़ता है ... 

सही कहती थी माँ 
समय के एक ही वार ने हर बात सिखा दी 
   

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

हादसे जो राह में मिलते रहे ...

फूल बन के उम्र भर खिलते रहे 
माँ की छाया में जो हम पलते रहे 

बुझ गई जो रौशनी घर की कभी   
हौंसले माँ के सदा जलते रहे 

यूं ही सीखोगे हुनर चलने का तुम 
बचपने में पांव जो छिलते रहे 

साथ में चलती रही माँ की दुआ 
काफिले उम्मीद के चलते रहे 

हर कदम हर मोड़ पे माँ साथ थी 
उन्नती के रास्ते खुलते रहे  

माँ बदल देती है खुशियों में उन्हें 
हादसे जो राह में मिलते रहे  

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

यात्रा ...

गुस्सा तो है पर तू निष्ठुर नहीं ... 
अक्सर ऐसा तुम कहा करती थीं माँ   

पर पता नहीं कैसे एक ही दिन में इतना बदलाव आ गया 
तुम भी चलीं गयीं 
और मैंने भी जाने दिया 

कर दिया अग्नी के हवाले उस शरीर को 
जिसका कभी मैं हिस्सा था   
याद भी न आई वो थपकी 
जिसके बिना करवटें बदलता था 
वो गोदी, जहाँ घंटों चैन की नीद लेता था    

उस दिन सबके बीच 
(जब सब कह रहे थे ये तुम्हारी अंतिम यात्रा की तैयारी है) 
कुछ पल भी तुम्हें रोके ना रख सका 

ज़माने के रस्मों रिवाज़ जो निभाने थे   

कहा तो था सबने पर सच बताना 
क्या वो सच में तुम्हारी अंतिम यात्रा थी ...?  

पता है ... उस भीड़ में, मैं भी शामिल था ... 
    

रविवार, 4 अगस्त 2013

सपना माँ का ...

मैं देखता था सपने कुछ बनने के 
भाई भी देखता था कुछ ऐसे ही सपने 
बहन देखती थी कुछ सपने जो मैं नहीं जान सका 
पर माँ जरूर जानती थी उन्हें, बिना जाने ही   

सपने तो पिताजी भी देखते थे हमारे भविष्य के 
एक छोटे से मकान के, सुखी परिवार के    
समाज में, रिश्तेदारी में एक मुकाम के 

हर किसी के पास अपने सपनों की गठरी थी 
सबको अपने सपनों से लगाव था, 
अनंत फैलाव था, जहां चाहते थे सब छलांग लगाना 
वो सब कुछ पाना, जिसकी वो करते थे कल्पना 

ऐसा नहीं की माँ नहीं देखती थी सपने 
वो न सिर्फ देखती थी, बल्कि दुआ भी मांगती थी उनके पूरे होने की 
मैं तो ये भी जानता हूं ...   
हम सब में बस वो ही थीं, जो सतत प्रयास भी करती थी 
अपने सपनों को पूर्णतः पा लेने की 

हाँ ... ये सच है की एक ही सपना था माँ का   
और ये बात मेरे साथ साथ घर के सब जानते थे   
और वो सपना था ... 
हम सब के सपने पूरे होने का सपना  
उसके हाथ हमारे सपने पूरे होने की दुआ में ही उठते रहे   

हालंकि सपने तो मैं अब भी देखता हूँ 
शायद मेरे सपने पूरे होने की दुआ में उठने वाले हाथ भी हैं     

पर मेरे सपने पूरे हों ... 
बस ऐसा ही सपने देखने वाली माँ नहीं है अब ...