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बुधवार, 27 जनवरी 2021
कुछ हैं तेरी याद से जुड़े हुए ...
गिर गए हैं और
कुछ खड़े हुए.
सोमवार, 18 जून 2018
बच्चे ज़मीन कैश सभी कुछ निगल गए ...
सूरज खिला तो धूप के साए मचल गए
कुछ बर्फ के पहाड़ भी झट-पट पिघल गए
तहजीब मिट गयी है नया दौर आ गया
इन आँधियों के रुख तो कभी के बदल गए
जोशो जुनून साथ था किस्मत अटक गई
हम साहिलों के पास ही आ कर फिसल गए
झूठे परों के साथ कहाँ तक उड़ोगे तुम
मंज़िल अभी है दूर ये सूरज भी ढल गए
निकले तो कितने लोग थे अपने मुकाम पर
पहुंचे वही जो वक़्त के रहते संभल गए
मजबूरियों की आड़ में सब कुछ लिखा लिया
बच्चे ज़मीन कैश सभी कुछ निगल गए
सोमवार, 4 दिसंबर 2017
कहानी खोल के रख दी है कुछ मजबूत तालों ने ...
लहू का रंग है यकसाँ कहा शमशीर भालों ने
लगा डाली है फिर भी आग बस्ती के दलालों
ने
यकीनन दूर है मंज़िल मगर मैं ढूंढ ही
लूंगा
झलक दिखलाई है मुझको अँधेरे में उजालों
ने
वो लड़की है तो माँ के पेट में क्या ख़त्म
हो जाए
झुका डाली मेरी गर्दन कुछ ऐसे ही सवालों
ने
अलग धर्मों के भूखे नौजवानों का था कुछ
झगड़ा
खबर दंगों की झूठी छाप दी अख़बार वालों
ने
हवा भी साथ बेशर्मी से इनका दे रही है
अब
शहर के हुक्म से जंगल जला डाला मशालों
ने
वो अपना था पराया था वो क्या कुछ ले के भागा है
कहानी खोल के रख दी है कुछ मजबूत तालों ने
मंगलवार, 5 सितंबर 2017
दीवारों की दरारों में किसी का कान तो होगा ...
हुआ है हादसा इतना बड़ा वीरान तो होगा
अभी निकला है दहशत से शहर सुनसान तो
होगा
घुसे आये मेरे घर में चलो तस्लीम है
लेकिन
तलाशी की इजाज़त का कोई फरमान तो होगा
बिमारी भी है भूखा पेट भी हसरत भी जीने
की
जरूरत के लिए घर में मेरे सामान तो
होगा
अकेले नाव कागज़ की लिए सागर में उतरा
हूँ
हमारे होंसले पर आज वो हैरान तो होगा
कभी ये सोच कर भी काम कर लेती है दुनिया
तो
न हो कुछ फायदा लेकिन मेरा नुक्सान तो
होगा
दबा लेना अभी तुम राज़ अपने दिल के अन्दर
ही
दीवारों की दरारों में किसी का कान तो
होगा
सोमवार, 28 अगस्त 2017
माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर ...
बहरों का है शहर ये संभल जाइए हुजूर
क्यों कह रहे हैं अपनी गज़ल जाइए हुजूर
बिखरे हुए जो राह में पत्थर समेट
लो
कुछ दूर कांच का है महल जाइए हुजूर
जो आपकी तलाश समुन्दर पे ख़त्म है
दरिया के साथ साथ निकल जाइए हुजूर
क्यों बात बात पर हो ज़माने को कोसते
अब भी समय है आप बदल जाइए हुज़ूर
मुद्दों की बात पर न कभी साथ आ सके
अब देश पे बनी है तो मिल जाइए हुजूर
हड्डी गले की बन के अटक जाएगी कभी
छोटी सी मछलियां हैं निगल जाइए हुजूर
बूढ़ी हुई तो क्या है उठा लेगी गोद में
माँ सामने खड़ी है मचल जाइए हुजूर
सोमवार, 21 अगस्त 2017
जो अपने दिल में इन्कलाब लिए बैठा है ...
वो रौशनी का हर हिसाब लिए बैठा है
जो घर में अपने आफताब लिए बैठा है
इसी लिए के छोड़नी है उसे ये आदत
वो पी नहीं रहा शराब लिए बैठा है
पता है सच उसे मगर वो सुनेगा सब की
वो आईने से हर जवाब लिए बैठा है
वो अजनबी सा बन के यूँ ही निकल जाएगा
वो अपने चहरे पे नकाब लिए बैठा है
दिलों के खेल खेलने की है आदत उसकी
वो आश्की की इक किताब लिए बैठा है
करीब उसके मौत भी न ठहर पाएगी
जो अपने दिल में इन्कलाब लिए बैठा है
गुरुवार, 18 सितंबर 2014
कचरे के डस्टबिन में, सच्चाइयां मिलेंगी ...
पत्थर मिलेंगे टूटे, तन्हाइयां मिलेंगी
मासूम खंडहरों में, परछाइयां मिलेंगी
इंसान की गली से, इंसानियत नदारद
मासूम अधखिली से, अमराइयां मिलेंगी
कुछ चूड़ियों की किरचें, कुछ आंसुओं के धब्बे
जालों से कुछ लटकती, रुस्वाइयां मिलेंगी
बाज़ार में हैं मिलते, ताली बजाने वाले
पैसे नहीं जो फैंके, जम्हाइयां मिलेंगी
पहले कहा था अपना, ईमान मत जगाना
इंसानियत के बदले, कठिनाइयां मिलेंगी
बातों के वो धनी हैं, बातों में उनकी तुमको
आकाश से भी ऊंची, ऊंचाइयां मिलेंगी
हर घर के आईने में, बस झूठ ही मिलेगा
कचरे के डस्टबिन में, सच्चाइयां मिलेंगी
मासूम खंडहरों में, परछाइयां मिलेंगी
इंसान की गली से, इंसानियत नदारद
मासूम अधखिली से, अमराइयां मिलेंगी
कुछ चूड़ियों की किरचें, कुछ आंसुओं के धब्बे
जालों से कुछ लटकती, रुस्वाइयां मिलेंगी
बाज़ार में हैं मिलते, ताली बजाने वाले
पैसे नहीं जो फैंके, जम्हाइयां मिलेंगी
पहले कहा था अपना, ईमान मत जगाना
इंसानियत के बदले, कठिनाइयां मिलेंगी
बातों के वो धनी हैं, बातों में उनकी तुमको
आकाश से भी ऊंची, ऊंचाइयां मिलेंगी
हर घर के आईने में, बस झूठ ही मिलेगा
कचरे के डस्टबिन में, सच्चाइयां मिलेंगी
सोमवार, 14 जुलाई 2014
मुखौटे ओढ़ कर सच की हकीकत ढूंढते हैं सब ...
किसी के हाथ में ख़ंजर, कहीं फरमान होता है
तुम्हारी दोस्ती में ये बड़ा नुक्सान होता है
नहीं आसान इसकी सरहदों तक भी पहुँच पाना
बुलंदी का इलाका इसलिए सुनसान होता है
मुखौटे ओढ़ कर सच की हकीकत ढूंढते हैं सब
शहर का आइना ये देख कर हैरान होता है
जो तिनके के सहारे तैरने का दम नहीं रखते
भंवर में थामना उनको कहाँ आसान होता है
लड़कपन बीत जाता है, जवानी भी नहीं रहती
बुढापा उम्र भर इस जिस्म का मेहमान होता है
तुम्हारी दोस्ती में ये बड़ा नुक्सान होता है
नहीं आसान इसकी सरहदों तक भी पहुँच पाना
बुलंदी का इलाका इसलिए सुनसान होता है
मुखौटे ओढ़ कर सच की हकीकत ढूंढते हैं सब
शहर का आइना ये देख कर हैरान होता है
जो तिनके के सहारे तैरने का दम नहीं रखते
भंवर में थामना उनको कहाँ आसान होता है
लड़कपन बीत जाता है, जवानी भी नहीं रहती
बुढापा उम्र भर इस जिस्म का मेहमान होता है
सोमवार, 19 मई 2014
पर सजा का हाथ में फरमान है ...
काठ के पुतलों में कितनी जान है
देख कर हर आइना हैरान है
कब तलक बाकी रहेगी क्या पता
रेत पर लिक्खी हुयी पहचान है
हर सितम पे होंसला बढ़ता गया
वक़्त का मुझपे बड़ा एहसान है
मैं चिरागों की तरह जलता रहा
क्या हुआ जो ये गली सुनसान है
उम्र भर रिश्ता निभाना है कठिन
छोड़ कर जाना बहुत आसान है
जुर्म का तो कुछ खुलासा है नहीं
पर सजा का हाथ में फरमान है
देख कर हर आइना हैरान है
कब तलक बाकी रहेगी क्या पता
रेत पर लिक्खी हुयी पहचान है
हर सितम पे होंसला बढ़ता गया
वक़्त का मुझपे बड़ा एहसान है
मैं चिरागों की तरह जलता रहा
क्या हुआ जो ये गली सुनसान है
उम्र भर रिश्ता निभाना है कठिन
छोड़ कर जाना बहुत आसान है
जुर्म का तो कुछ खुलासा है नहीं
पर सजा का हाथ में फरमान है
सोमवार, 12 मई 2014
सिल्वट ने जो कहा कभी नहीं ...
मजबूर वो रहा कभी नहीं
गमले में जो उगा कभी नहीं
मुश्किल यहाँ है खोजना उसे
इंसान जो बिका कभी नहीं
है टूटता रहा तो क्या हुआ
पर्वत है जो झुका कभी नहीं
वो बार बार गिर के उठ गया
नज़रों से जो गिरा कभी नहीं
रोशन चिराग होंसलों से था
आंधी से वो बुझा कभी नहीं
चेहरे ने खुल के राज़ कह दिया
सिल्वट ने जो कहा कभी नहीं
गमले में जो उगा कभी नहीं
मुश्किल यहाँ है खोजना उसे
इंसान जो बिका कभी नहीं
है टूटता रहा तो क्या हुआ
पर्वत है जो झुका कभी नहीं
वो बार बार गिर के उठ गया
नज़रों से जो गिरा कभी नहीं
रोशन चिराग होंसलों से था
आंधी से वो बुझा कभी नहीं
चेहरे ने खुल के राज़ कह दिया
सिल्वट ने जो कहा कभी नहीं
मंगलवार, 10 दिसंबर 2013
हज़ारों चलेंगे जहाँ तुम चलोगे ...
उठो धार के साथ कब तक बहोगे
अभी जो न उठ पाए फिर कब उठोगे
उठो ये लड़ाई तो लड़नी है तुमको
कमर टूट जाएगी कब तक झुकोगे
ये ज़ुल्मों सितम यूँ ही चलता रहेगा
जो सहते रहे तो फिर सहते रहोगे
ये दुनिया का दस्तूर है याद रखना
दबाती है दुनिया के जब तक दबोगे
उठो आँख में आँख डालो सभी के
बनाती है दुनिया जो पागल बनोगे
ये गिद्धों की नगरी है सब हैं शिकारी
मिलेगा न पानी न जब तक लड़ोगे
रिवाजों की चादर से बाहर तो निकलो
हज़ारों चलेंगे जहाँ तुम चलोगे
अभी जो न उठ पाए फिर कब उठोगे
उठो ये लड़ाई तो लड़नी है तुमको
कमर टूट जाएगी कब तक झुकोगे
ये ज़ुल्मों सितम यूँ ही चलता रहेगा
जो सहते रहे तो फिर सहते रहोगे
ये दुनिया का दस्तूर है याद रखना
दबाती है दुनिया के जब तक दबोगे
उठो आँख में आँख डालो सभी के
बनाती है दुनिया जो पागल बनोगे
ये गिद्धों की नगरी है सब हैं शिकारी
मिलेगा न पानी न जब तक लड़ोगे
रिवाजों की चादर से बाहर तो निकलो
हज़ारों चलेंगे जहाँ तुम चलोगे
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