इस नज़र से उस नज़र की बात लम्बी हो गई
मेज़ पे रक्खी हुई ये चाय ठंडी हो गई
आसमानी शाल ने जब उड़ के सूरज को ढका
गर्मियों की दो-पहर भी कुछ उनींदी हो गई
कुछ अधूरे लफ्ज़ टूटे और भटके राह में
अधलिखे ख़त की कहानी और गहरी हो गई
रात के तूफ़ान से हम डर गए थे इस कदर
दिन सलीके से उगा दिल को तसल्ली हो गई
माह दो हफ्ते निरंतर, हाज़री देता रहा
पन्द्रहवें दिन आसमाँ से यूँ ही कुट्टी हो गई
कुछ दिनों का बोल कर अरसा हुआ लौटीं न तुम
इश्क की मंडी में जानाँ तबसे मंदी हो गई
बादलों की बर्फबारी ने पहाड़ों पर लिखा
रात जब सो कर उठी शहरों में सर्दी हो गई
कान दरवाज़े की कुंडी में ही अटके रह गए
झपकियों ही झपकियों में रात कब की हो गई