आप सभी को नव वर्ष की बहुत बहुत मंगलकामनाएं ...
तुमसे अलग होने बाद
कितनी बार तुमसे अलग होना चाहा
पर हो न सका
सुबह की अखबार के साथ
तुम घर में घुसती हो
तो तमाम कोशिशों के बावजूद निकलती नहीं
ख़बरों के साथ
तेरे एहसास को फ्लश आउट करने की कोशिश तो करता हूँ
पर तभी चाय की खुशबू अपना असर दिखाना शुरू कर देती है
और तुम ...
तुम चुस्कियों के साथ
मेरे जिस्म में उतरने लगती हो
सुबह से शाम तुम्हारी गिरफ्त में
कब दिन बीत जाता है पता नहीं चलता
रात होते होते तमाम रद्दी बेचने का निश्चय करता हूँ
पर सुबह आते आते फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता है
तेरी यादों की तरह
पुरानी अखबार का ढेर भी बढ़ता जा रहा है
इक बार को ये चाय की आदत तो छोड़ भी दूं
पर इस अखबार का क्या करूं
ये कमबख्त तो अब तीन सौ पैंसठ दिन
छपने लगी है
बुधवार, 28 दिसंबर 2011
सोमवार, 19 दिसंबर 2011
मुक्ति ...
क्या ये सच है
लेखक की कल्पना का कोई अंत नहीं ... ?
कवि की सोच गहरे सागर में गोते लगा कर
सातवें आसमान तक जाती है ... ?
सच लगता है जब श्रोता की तरह सोचता हूँ
पर जब कवि मन से विवाद होता है
अपने आप से आँखें चुराने लगता हूँ
हकीकत में तो
कवि अपनी सोची समझी सोच को
शब्दों की चासनी लपेट कर परोसता है
विशेष विचारधारा का गुलाम
अपने ही फ्रेम में जकड़ा
सोचे हुवे अर्थों के शब्द ढूँढता है
जिसके आवरण में वो सांस ले सके
एक सिमित सा आकाश
जिसमें वो जीता है मरता है
कलाकार होने का दावा करता है
आम आदमी की जमात से ऊपर उठ के
बुद्धिजीवी होने का दावा
सुनो कवि
अपने आप को रिक्त करो
मान्यताएं, विचारधारा
अपनी पसंद के शब्दों का दायरा तोड़ो
ये कारा तोड़ो
सत्य को सत्य की नज़र से देखो
अपने केनवास के किनारे तोड़ो
पसंदीदा रंगों से मोह छोडो
सुना है इतिहास के साक्ष्य कविता में मिलते हैं
तो कवि धर्म निभाओ
अपने आप से मुक्ति पाओ
लेखक की कल्पना का कोई अंत नहीं ... ?
कवि की सोच गहरे सागर में गोते लगा कर
सातवें आसमान तक जाती है ... ?
सच लगता है जब श्रोता की तरह सोचता हूँ
पर जब कवि मन से विवाद होता है
अपने आप से आँखें चुराने लगता हूँ
हकीकत में तो
कवि अपनी सोची समझी सोच को
शब्दों की चासनी लपेट कर परोसता है
विशेष विचारधारा का गुलाम
अपने ही फ्रेम में जकड़ा
सोचे हुवे अर्थों के शब्द ढूँढता है
जिसके आवरण में वो सांस ले सके
एक सिमित सा आकाश
जिसमें वो जीता है मरता है
कलाकार होने का दावा करता है
आम आदमी की जमात से ऊपर उठ के
बुद्धिजीवी होने का दावा
सुनो कवि
अपने आप को रिक्त करो
मान्यताएं, विचारधारा
अपनी पसंद के शब्दों का दायरा तोड़ो
ये कारा तोड़ो
सत्य को सत्य की नज़र से देखो
अपने केनवास के किनारे तोड़ो
पसंदीदा रंगों से मोह छोडो
सुना है इतिहास के साक्ष्य कविता में मिलते हैं
तो कवि धर्म निभाओ
अपने आप से मुक्ति पाओ
मंगलवार, 13 दिसंबर 2011
कमबख्त यादें ...
कई बार
निकाल बाहर किया तेरी यादों को
पर पता नहीं
कौन सा रोशनदान खुला रह जाता है
सुबह की धूप के साथ
झाँकने लगती हो तुम कमरे के अंदर
हवा के ठन्डे झोंके के साथ
सिरहन की तरह दौड़ने लगती हो पूरे जिस्म में
चाय के हर घूँट के साथ
तेरा नशा बढ़ता जाता है
घर की तमाम सीडियों में बजने वाले गीत
तेरी यादों से अटे पड़े हैं
तेज़ संगीत के शोर में भी तुम
मेरे कानों में गुनगुनाने लगती हो
न चाहते हुवे भी एक ही सीडी बजाने लगता हूँ हर बार
तुम्हें याद है न वो गीत
अभी न जाओ छोड़कर .... के दिल अभी भरा नहीं ...
फिल्म हम दोनों ... देव आनंद और साधना ...
उलाहना देती रफ़ी की दिलकश आवाज़ ....
जाने कब नींद आ जाती है रोज की तरह
सो जाता हूँ तेरे एहसास का कम्बल लपेटे ...
हमेशा की तरह ...
निकाल बाहर किया तेरी यादों को
पर पता नहीं
कौन सा रोशनदान खुला रह जाता है
सुबह की धूप के साथ
झाँकने लगती हो तुम कमरे के अंदर
हवा के ठन्डे झोंके के साथ
सिरहन की तरह दौड़ने लगती हो पूरे जिस्म में
चाय के हर घूँट के साथ
तेरा नशा बढ़ता जाता है
घर की तमाम सीडियों में बजने वाले गीत
तेरी यादों से अटे पड़े हैं
तेज़ संगीत के शोर में भी तुम
मेरे कानों में गुनगुनाने लगती हो
न चाहते हुवे भी एक ही सीडी बजाने लगता हूँ हर बार
तुम्हें याद है न वो गीत
अभी न जाओ छोड़कर .... के दिल अभी भरा नहीं ...
फिल्म हम दोनों ... देव आनंद और साधना ...
उलाहना देती रफ़ी की दिलकश आवाज़ ....
जाने कब नींद आ जाती है रोज की तरह
सो जाता हूँ तेरे एहसास का कम्बल लपेटे ...
हमेशा की तरह ...
मंगलवार, 6 दिसंबर 2011
तेरा वजूद ...
गज़लों के दौर से निकल कर हाजिर हूँ आज कविता के साथ ... आशा है आपको पसंद आएगी ...
अब जबकि हमारे बीच कुछ नही
पता नहीं क्यों तेरी मोहिनी
अब भी मुझे बांधे रखती है
ठुकरा नहीं पाता
तेरी आँखों का मौन आमंत्रण
उन्मादी पहलू का मुक्त निमंत्रण
जबकि कई बार
तेरी धूप की तपिश
अपनी पीठ पे महसूस करने के बावजूद
जेब में नहीं भर सका
तेरे बादलों की बरसात
मुझे भिगोती तो है
पर हर बार उफनती नदी सी तुम
किनारे पे पटक
गंतव्य को निकल जाती हो
मुट्ठी में बंद करने के बावजूद
हाथों की झिर्री से हर बार
चुप-चाप फिसल जाती हो
तेरी मरीचिका में बंधा मेरा वजूद
करीब होकर भी तुझे छू नहीं पाता
तेरी कस्तूरी की तलाश में
कुलांचें मारता हूँ
थकता हूँ गिरता हूँ उठता हूँ
फिर कुलांचें मारता हूँ
हाँ मुझे मालुम है
हमारे बीच कुछ नहीं
पर लगता है ... समझना नहीं चाहता
और वैसे भी क्या पता
साँसों का सिलसिला कब तक रहेगा
अब जबकि हमारे बीच कुछ नही
पता नहीं क्यों तेरी मोहिनी
अब भी मुझे बांधे रखती है
ठुकरा नहीं पाता
तेरी आँखों का मौन आमंत्रण
उन्मादी पहलू का मुक्त निमंत्रण
जबकि कई बार
तेरी धूप की तपिश
अपनी पीठ पे महसूस करने के बावजूद
जेब में नहीं भर सका
तेरे बादलों की बरसात
मुझे भिगोती तो है
पर हर बार उफनती नदी सी तुम
किनारे पे पटक
गंतव्य को निकल जाती हो
मुट्ठी में बंद करने के बावजूद
हाथों की झिर्री से हर बार
चुप-चाप फिसल जाती हो
तेरी मरीचिका में बंधा मेरा वजूद
करीब होकर भी तुझे छू नहीं पाता
तेरी कस्तूरी की तलाश में
कुलांचें मारता हूँ
थकता हूँ गिरता हूँ उठता हूँ
फिर कुलांचें मारता हूँ
हाँ मुझे मालुम है
हमारे बीच कुछ नहीं
पर लगता है ... समझना नहीं चाहता
और वैसे भी क्या पता
साँसों का सिलसिला कब तक रहेगा
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
तन्हा रहने को बूढ़े मजबूर हुवे ...
धीरे धीरे अपने सारे दूर हुवे
तन्हा रहने को बूढ़े मजबूर हुवे
बचपन बच्चों के बच्चों में देखूँगा
कहते थे जो उनके सपने चूर हुवे
नाते रिश्तेदार सभी उग आए हैं
लोगों का कहना है हम मशहूर हुवे
घुटनों से लाचार हुवे उस दिन जो हम
किस्से फैल गये की हम मगरूर हुवे
गाड़ी है पर कंधे चार नहीं मिलते
जाने कैसे दुनिया के दस्तूर हुवे
पहले उनकी यादें में जी लेते थे
यादों के किस्से ही अब नासूर हुवे
तन्हा रहने को बूढ़े मजबूर हुवे
बचपन बच्चों के बच्चों में देखूँगा
कहते थे जो उनके सपने चूर हुवे
नाते रिश्तेदार सभी उग आए हैं
लोगों का कहना है हम मशहूर हुवे
घुटनों से लाचार हुवे उस दिन जो हम
किस्से फैल गये की हम मगरूर हुवे
गाड़ी है पर कंधे चार नहीं मिलते
जाने कैसे दुनिया के दस्तूर हुवे
पहले उनकी यादें में जी लेते थे
यादों के किस्से ही अब नासूर हुवे
गुरुवार, 17 नवंबर 2011
पिघलती धूप का सूरज कोई पागल निकाले
पिघलती धूप का सूरज कोई पागल निकाले
लगेगी आग कह दो आसमां बादल निकाले
पहाड़ों को बचा ले कम करे मिट्टी की गर्मी
कहो की आदमी से फिर नए जंगल निकाले
सुना है वादियों में सर्द होने को है मौसम
कहो की धूप से अपना नया कम्बल निकाले
चुरा लेता है जो संगीन के साए में अक्सर
किसी की आँख से भीगा हुवा काजल निकाले
पड़े हैं गाँव में मुद्दत से घायल राह तकते
कहाँ अर्जुन पितामह के लिए जो जल निकाले
किसी के पास है पैसा किसी के पास आंसू
वो पागल जेब से कुछ कहकहे हरपल निकाले
लगेगी आग कह दो आसमां बादल निकाले
पहाड़ों को बचा ले कम करे मिट्टी की गर्मी
कहो की आदमी से फिर नए जंगल निकाले
सुना है वादियों में सर्द होने को है मौसम
कहो की धूप से अपना नया कम्बल निकाले
चुरा लेता है जो संगीन के साए में अक्सर
किसी की आँख से भीगा हुवा काजल निकाले
पड़े हैं गाँव में मुद्दत से घायल राह तकते
कहाँ अर्जुन पितामह के लिए जो जल निकाले
किसी के पास है पैसा किसी के पास आंसू
वो पागल जेब से कुछ कहकहे हरपल निकाले
बुधवार, 9 नवंबर 2011
रोने से कुछ दिल का बोझ उतर जाता है
धीरे धीरे हर सैलाब उतर जाता है
वक्त के साथ न जाने प्यार किधर जाता है
यूँ ना तोड़ो झटके से तुम नींदें मेरी
आँखों से फिर सपना कोई झर जाता है
आने जाने वालों से ये कहती सड़कें
इस चौराहे से इक रस्ता घर जाता है
बचपन और जवानी तो आनी जानी है
सिर्फ़ बुढ़ापा उम्र के साथ ठहर जाता है
सीमा के उस पार भी माएँ रोती होंगी
बेटा होता है जो सैनिक मर जाता है
अपने से ज़्यादा रहता हूँ तेरे बस में
चलता है ये साया जिस्म जिधर जाता है
सुख में मेरे साथ खड़े थे बाहें डाले
दुख आने पे अक्सर साथ बिखर जाता है
कुछ बातें कुछ यादें दिल में रह जाती हैं
कैसे भी बीते ये वक़्त गुज़र जाता है
माना रोने से कुछ बात नहीं बनती पर
रोने से कुछ दिल का बोझ उतर जाता है
वक्त के साथ न जाने प्यार किधर जाता है
यूँ ना तोड़ो झटके से तुम नींदें मेरी
आँखों से फिर सपना कोई झर जाता है
आने जाने वालों से ये कहती सड़कें
इस चौराहे से इक रस्ता घर जाता है
बचपन और जवानी तो आनी जानी है
सिर्फ़ बुढ़ापा उम्र के साथ ठहर जाता है
सीमा के उस पार भी माएँ रोती होंगी
बेटा होता है जो सैनिक मर जाता है
अपने से ज़्यादा रहता हूँ तेरे बस में
चलता है ये साया जिस्म जिधर जाता है
सुख में मेरे साथ खड़े थे बाहें डाले
दुख आने पे अक्सर साथ बिखर जाता है
कुछ बातें कुछ यादें दिल में रह जाती हैं
कैसे भी बीते ये वक़्त गुज़र जाता है
माना रोने से कुछ बात नहीं बनती पर
रोने से कुछ दिल का बोझ उतर जाता है
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
भूल गए जो खून खराबा करते हैं ...
भूल गए जो खून खराबा करते हैं
खून के छींटे अपने पर भी गिरते हैं
दिन में गाली देते हैं जो सूरज को
रात गये वो जुगनू का दम भरते हैं
तेरी राहों में जो फूल बिछाते थे
लोग वो अक्सर मारे मारे फिरते हैं
आग लगा देते हैं दो आंसू पल में
कहने को तो आँखों से ही झरते हैं
उन सड़कों की बात नहीं करता कोई
जिनसे हो कर अक्सर लोग गुज़रते हैं
हाथों को पतवार बना कर निकले जो
सागर में जाने से कब वो डरते हैं
पूजा की थाली है पलकें झुकी हुईं
तुझ पे जाना मुद्दत से हम मरते हैं
खून के छींटे अपने पर भी गिरते हैं
दिन में गाली देते हैं जो सूरज को
रात गये वो जुगनू का दम भरते हैं
तेरी राहों में जो फूल बिछाते थे
लोग वो अक्सर मारे मारे फिरते हैं
आग लगा देते हैं दो आंसू पल में
कहने को तो आँखों से ही झरते हैं
उन सड़कों की बात नहीं करता कोई
जिनसे हो कर अक्सर लोग गुज़रते हैं
हाथों को पतवार बना कर निकले जो
सागर में जाने से कब वो डरते हैं
पूजा की थाली है पलकें झुकी हुईं
तुझ पे जाना मुद्दत से हम मरते हैं
शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2011
हाथ में सरसों उगा कर देखिये...
धार के विपरीत जा कर देखिये
जिंदगी को आजमा कर देखिये
खिड़कियों से झांकती है रौशनी
रात के परदे उठा कर देखिये
आंधियाँ खुद मोड लेंगी रास्ता
एक दीपक तो जला कर देखिये
भीगना जो चाहते हो उम्र भर
प्रीत गागर में नहा कर देखिये
होंसला तो खुद ब खुद आ जायगा
सत्य को संबल बना कर देखिये
जख्म अपने आप ही भर जायंगें
खून के धब्बे मिटा कर देखिये
बाजुओं का दम अगर है तोलना
वक्त से पंजा लड़ा कर देखिये
दर्द मिट्टी का समझ आ जायगा
हाथ में सरसों उगा कर देखिये
जिंदगी को आजमा कर देखिये
खिड़कियों से झांकती है रौशनी
रात के परदे उठा कर देखिये
आंधियाँ खुद मोड लेंगी रास्ता
एक दीपक तो जला कर देखिये
भीगना जो चाहते हो उम्र भर
प्रीत गागर में नहा कर देखिये
होंसला तो खुद ब खुद आ जायगा
सत्य को संबल बना कर देखिये
जख्म अपने आप ही भर जायंगें
खून के धब्बे मिटा कर देखिये
बाजुओं का दम अगर है तोलना
वक्त से पंजा लड़ा कर देखिये
दर्द मिट्टी का समझ आ जायगा
हाथ में सरसों उगा कर देखिये
गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं ...
दुश्मन जब जब घर के अंदर आए हैं
बन कर मेरे दोस्त ही अक्सर आए हैं
तेरे दो आँसू से तन मन भीग गया
रस्ते में तो सात समुंदर आए हैं
गहरे सागर में कितने गोते मारे
अपने हाथों में तो पत्थर आए हैं
भेजे थे कुछ फूल उन्हे गुलदस्ते में
बदले में कुछ प्यासे खंज़र आए हैं
तेरे पहलू में जो हर दम रहते हैं
जाने क्या तकदीर लिखा कर आए हैं
बेच हवेली पुरखों की अब दिल्ली में
मुश्किल से इक कमरा ले कर आए हैं
आँखों आँखों में कुछ उनसे पूछा था
खामोशी में उनके उत्तर आए हैं
ये भी मेरा वो भी मेरा सब मेरा
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं
बन कर मेरे दोस्त ही अक्सर आए हैं
तेरे दो आँसू से तन मन भीग गया
रस्ते में तो सात समुंदर आए हैं
गहरे सागर में कितने गोते मारे
अपने हाथों में तो पत्थर आए हैं
भेजे थे कुछ फूल उन्हे गुलदस्ते में
बदले में कुछ प्यासे खंज़र आए हैं
तेरे पहलू में जो हर दम रहते हैं
जाने क्या तकदीर लिखा कर आए हैं
बेच हवेली पुरखों की अब दिल्ली में
मुश्किल से इक कमरा ले कर आए हैं
आँखों आँखों में कुछ उनसे पूछा था
खामोशी में उनके उत्तर आए हैं
ये भी मेरा वो भी मेरा सब मेरा
भूल गये सब लोग दिगंबर आए हैं
बुधवार, 5 अक्तूबर 2011
गोया लुटने की तैयारी ...
मिट्टी का घर मेघ से यारी
गोया लुटने की तैयारी
जी भर के जी लो जीवन को
ना जाने कल किसकी बारी
सागर से गठजोड़ है उनका
कागज़ की है नाव उतारी
प्रजातंत्र का खेल है कैसा
कल था बन्दर आज मदारी
बुद्धीजीवी बोल रहा है
शब्द हैं कितने भारी भारी
धूप ने दाना डाल दिया है
साये निकले बारी बारी
रेगिस्तान में ठोर ठिकाना
ढूंढ रही है धूल बिचारी
जाते जाते रात ये बोली
देखो दिन की दुनियादारी
गोया लुटने की तैयारी
जी भर के जी लो जीवन को
ना जाने कल किसकी बारी
सागर से गठजोड़ है उनका
कागज़ की है नाव उतारी
प्रजातंत्र का खेल है कैसा
कल था बन्दर आज मदारी
बुद्धीजीवी बोल रहा है
शब्द हैं कितने भारी भारी
धूप ने दाना डाल दिया है
साये निकले बारी बारी
रेगिस्तान में ठोर ठिकाना
ढूंढ रही है धूल बिचारी
जाते जाते रात ये बोली
देखो दिन की दुनियादारी
बुधवार, 28 सितंबर 2011
दुपट्टा आसमानी शाल नीली ...
गिरे है आसमां से धूप पीली
पसीने से हुयी हर चीज़ गीली
खबर सहरा को दे दो फिर मिली है
हवा के हाथ में माचिस की तीली
जलेगी देर तक तन्हाइयों में
अगरबत्ती की ये लकड़ी है सीली
कोई जैसे इबादत कर रहा है
कहीं गाती है फिर कोयल सुरीली
दिवारों में उतर आई है सीलन
है तेरी याद भी कितनी हठीली
तुझे जब एकटक मैं देखता हूँ
मुझे मिलती हैं दो आँखें पनीली
चली आती हो तुम जैसे हवा में
दुपट्टा आसमानी शाल नीली
पसीने से हुयी हर चीज़ गीली
खबर सहरा को दे दो फिर मिली है
हवा के हाथ में माचिस की तीली
जलेगी देर तक तन्हाइयों में
अगरबत्ती की ये लकड़ी है सीली
कोई जैसे इबादत कर रहा है
कहीं गाती है फिर कोयल सुरीली
दिवारों में उतर आई है सीलन
है तेरी याद भी कितनी हठीली
तुझे जब एकटक मैं देखता हूँ
मुझे मिलती हैं दो आँखें पनीली
चली आती हो तुम जैसे हवा में
दुपट्टा आसमानी शाल नीली
मंगलवार, 20 सितंबर 2011
नम सी दो आँखें रहती हैं ...
गुरुदेव पंकज जी ने इस गज़ल को खूबसूरत बनाया है ... आशा है आपको पसंद आएगी ...
प्यासी दो साँसें रहती हैं
नम सी दो आँखें रहती हैं
बरसों से अब इस आँगन में
बस उनकी यादें रहती हैं
चुभती हैं काँटों सी फिर वो
दिल में जो बातें रहती हैं
शहर गया है बेटा जबसे
किस्मत में रातें रहती हैं
उनके जाने पर ये जाना
दिल में अब आहें रहती हैं
पत्थर मारा तो जाना वो
शीशे के घर में रहती हैं
पीपल और जिन्नों की बातें
बचपन को थामें रहती हैं
प्यासी दो साँसें रहती हैं
नम सी दो आँखें रहती हैं
बरसों से अब इस आँगन में
बस उनकी यादें रहती हैं
चुभती हैं काँटों सी फिर वो
दिल में जो बातें रहती हैं
शहर गया है बेटा जबसे
किस्मत में रातें रहती हैं
उनके जाने पर ये जाना
दिल में अब आहें रहती हैं
पत्थर मारा तो जाना वो
शीशे के घर में रहती हैं
पीपल और जिन्नों की बातें
बचपन को थामें रहती हैं
मंगलवार, 13 सितंबर 2011
ख़बरों को अखबार नहीं कर पाता हूँ ..
कविताओं के दौर से निकल कर ... पेश है आज एक गज़ल ...
उनसे आँखें चार नहीं कर पाता हूँ
मिलने से इंकार नहीं कर पाता हूँ
खून पसीना रोज बहाता हूँ मैं भी
मिट्टी को दीवार नहीं कर पाता हूँ
नाल लगाए बैठा हूँ इन पैरों पर
हाथों को तलवार नहीं कर पाता हूँ
सपने तो अपने भी रंग बिरंगी हैं
फूलों को मैं हार नहीं कर पाता हूँ
अपनों की आवाजें हैं पसमंज़र में
खूनी हैं पर वार नहीं कर पाता हूँ
सात समुन्दर पार किये हैं चुटकी में
बहते आंसूं पार नहीं कर पाता हूँ
कातिब हूँ कातिल भी मैंने देखा है
ख़बरों को अखबार नहीं कर पाता हूँ
उनसे आँखें चार नहीं कर पाता हूँ
मिलने से इंकार नहीं कर पाता हूँ
खून पसीना रोज बहाता हूँ मैं भी
मिट्टी को दीवार नहीं कर पाता हूँ
नाल लगाए बैठा हूँ इन पैरों पर
हाथों को तलवार नहीं कर पाता हूँ
सपने तो अपने भी रंग बिरंगी हैं
फूलों को मैं हार नहीं कर पाता हूँ
अपनों की आवाजें हैं पसमंज़र में
खूनी हैं पर वार नहीं कर पाता हूँ
सात समुन्दर पार किये हैं चुटकी में
बहते आंसूं पार नहीं कर पाता हूँ
कातिब हूँ कातिल भी मैंने देखा है
ख़बरों को अखबार नहीं कर पाता हूँ
गुरुवार, 8 सितंबर 2011
स्व ...
मेरी प्रवृति
भागने की नही
पर कृष्ण को देवत्व मिला
सिद्धार्थ को बुद्धत्व मिला
कभी तो मैं भी पा लूँगा
अपना
"स्व"
भागने की नही
पर कृष्ण को देवत्व मिला
सिद्धार्थ को बुद्धत्व मिला
कभी तो मैं भी पा लूँगा
अपना
"स्व"
गुरुवार, 25 अगस्त 2011
आह्वान ...
कब तक शब्दों को
विप्लव की रचनाओं में उतारोगे
शब्द से रचना
रचना से संग्रह
संग्रह से किताब
किताब से संग्रहालय
आंत्र-जाल
या कोई अखबार
दम घोंटू
जंग खाई अलमारियों में
फर्नेल की बदबू से जूझती
सीलन लगी किताबें
फफूंद लगे शब्द
अब सड़ने लगे हैं
मकड-जाल में फंसे मायनों की
साँस उखड़ने लगी है
इससे पहले की
दीमक शब्दों को चाट जाए
शब्दों से गिर के अर्थ
आत्महत्या कर लें
इन्हें बाहर लाओ
चमकती धूप दिखाओ
युग परिवर्तन की हवा चलाओ
शब्दों को ओज़स्वी आवाज़ में बदल डालो
क्रान्ति का इंधन बना दो
क्या हुवा जो कुछ समय के लिए
काव्य सृजन न हुवा
इतिहास की वीथियों में
संगृहीत शब्दों की आवाजें
गूंजती रहेंगी सदियों तक
विप्लव की रचनाओं में उतारोगे
शब्द से रचना
रचना से संग्रह
संग्रह से किताब
किताब से संग्रहालय
आंत्र-जाल
या कोई अखबार
दम घोंटू
जंग खाई अलमारियों में
फर्नेल की बदबू से जूझती
सीलन लगी किताबें
फफूंद लगे शब्द
अब सड़ने लगे हैं
मकड-जाल में फंसे मायनों की
साँस उखड़ने लगी है
इससे पहले की
दीमक शब्दों को चाट जाए
शब्दों से गिर के अर्थ
आत्महत्या कर लें
इन्हें बाहर लाओ
चमकती धूप दिखाओ
युग परिवर्तन की हवा चलाओ
शब्दों को ओज़स्वी आवाज़ में बदल डालो
क्रान्ति का इंधन बना दो
क्या हुवा जो कुछ समय के लिए
काव्य सृजन न हुवा
इतिहास की वीथियों में
संगृहीत शब्दों की आवाजें
गूंजती रहेंगी सदियों तक
गुरुवार, 18 अगस्त 2011
प्रश्न ...
इतिहास के क्रूर पन्नों पे
समय तो दर्ज़ करेगा
हर गुज़रता लम्हा
मुँह में उगे मुहांसों से लेकर
दिल की गहराइयों में छिपी क्रांति को
खोल के रख देगा निर्विकार आईने की तरह
अनगिनत सवाल रोकेंगे रास्ता
तेरी मेरी
हम सबकी भूमिका पे
जो तटस्थ रहेंगे
या लड़ेंगे
समय तो लिखेगा
उन सब का इतिहास
क्या सामना करोगे इन सवालों का
सृष्टि के रहने तक
युग के बदलने तक
भविष्य में उठने वाले इन प्रश्नों का जवाब
वर्तमान में ही देना होगा
क्या अब भी सोते रहोगे...?
समय तो दर्ज़ करेगा
हर गुज़रता लम्हा
मुँह में उगे मुहांसों से लेकर
दिल की गहराइयों में छिपी क्रांति को
खोल के रख देगा निर्विकार आईने की तरह
अनगिनत सवाल रोकेंगे रास्ता
तेरी मेरी
हम सबकी भूमिका पे
जो तटस्थ रहेंगे
या लड़ेंगे
समय तो लिखेगा
उन सब का इतिहास
क्या सामना करोगे इन सवालों का
सृष्टि के रहने तक
युग के बदलने तक
भविष्य में उठने वाले इन प्रश्नों का जवाब
वर्तमान में ही देना होगा
क्या अब भी सोते रहोगे...?
बुधवार, 27 जुलाई 2011
डरपोक ...
मैं अपने साथ
एक समुंदर रखता था
जाने कब
तुम्हारी नफ़रत का दावानल
खुदकशी करने को मजबूर कर दें
मैं अपने साथ
दो गज़ ज़मीन भी रखता था
जाने कब
तुम्हारी बातों का ज़हर
जीते जी मुझे मार दे
जेब भर समुंदर
कब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
दर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
एक समुंदर रखता था
जाने कब
तुम्हारी नफ़रत का दावानल
खुदकशी करने को मजबूर कर दें
मैं अपने साथ
दो गज़ ज़मीन भी रखता था
जाने कब
तुम्हारी बातों का ज़हर
जीते जी मुझे मार दे
जेब भर समुंदर
कब आत्मा को लील गया
मुट्ठी भर अस्तित्व
कब दो गज़ ज़मीन के नीचे दम तोड़ गया
पता ही नही चला
मैं अब भी साँस ले रहा हूँ
दर्प से दमकते तुम्हारे माथे की बिंदी
आज भी ताने मारती है
जेब में पड़ा समुंदर और दो गज़ ज़मीन
मुझे देख कर फुसफुसाते हैं
डरपोक कहीं का
मंगलवार, 19 जुलाई 2011
अँधेरा ...
तुम्ही ने तो कहा था कितना काला हूँ
अँधेरे में नज़र नहीं आता
साक्षात अँधेरे की तरह
पर क्या तुम्हें एक पल भी
जीवन में अँधेरे का एहसास हुवा
मेरी खुश्क त्वचा ने
कब तुम्हारे अँधेरे को सोखना शुरू किया
मैं नहीं जानता
बढते शिखर के साथ
तुम्हारी जरूरत बढती गयी
मैं और तेजी से जलता रहा
यहाँ तक की आने वाले तमाम रास्तों पर
रौशनी ही रौशनी छितरा दी
अब जबकि तुम्हारी आँखें चुंधियाने लगीं हैं
बढ़ता हुवा रौशनी का दायरा
तुम्हारे साथ चलने लगा है
मैं तुमसे दूर हो रहा हूँ
हाँ ... अँधेरा जो हूँ
अँधेरे में नज़र नहीं आता
साक्षात अँधेरे की तरह
पर क्या तुम्हें एक पल भी
जीवन में अँधेरे का एहसास हुवा
मेरी खुश्क त्वचा ने
कब तुम्हारे अँधेरे को सोखना शुरू किया
मैं नहीं जानता
बढते शिखर के साथ
तुम्हारी जरूरत बढती गयी
मैं और तेजी से जलता रहा
यहाँ तक की आने वाले तमाम रास्तों पर
रौशनी ही रौशनी छितरा दी
अब जबकि तुम्हारी आँखें चुंधियाने लगीं हैं
बढ़ता हुवा रौशनी का दायरा
तुम्हारे साथ चलने लगा है
मैं तुमसे दूर हो रहा हूँ
हाँ ... अँधेरा जो हूँ
मंगलवार, 12 जुलाई 2011
दंश ...
जब तक अपने खोखले पन का एहसास होता
तुम दीमक की तरह चाट गयीं
खाई हुई चोखट सा मेरा अस्तित्व
दीवारों से चिपक
सूखी लकड़ी की तरह चरमराता रहा
हरा भरा दिखने वाले तने सा मैं
कितना खोखला हूँ अंदर से
कोई जान न सका
अब जबकि आँखों में नमी नही
और तेरी सूखी यादें भी कम नही
गुज़रे लम्हों के गोखरू
मेरे जिस्म पे उगने लगे हैं
सन्नाटों के रेगिस्तान में
झरती हुयी रेत का शोर
मुझे जीने नही दे रहा
साँसों के साथ
हवा की सीलन पीते पीते
मैं कतरा कतरा जी रहा हूँ
और... लम्हा लम्हा
भुर रहा हूँ
रेत के इस समुन्दर का विस्तार
जल्दी ही तुमको लील लेगा
दुआ है…. तुम हजारों साल जियो
तुम दीमक की तरह चाट गयीं
खाई हुई चोखट सा मेरा अस्तित्व
दीवारों से चिपक
सूखी लकड़ी की तरह चरमराता रहा
हरा भरा दिखने वाले तने सा मैं
कितना खोखला हूँ अंदर से
कोई जान न सका
अब जबकि आँखों में नमी नही
और तेरी सूखी यादें भी कम नही
गुज़रे लम्हों के गोखरू
मेरे जिस्म पे उगने लगे हैं
सन्नाटों के रेगिस्तान में
झरती हुयी रेत का शोर
मुझे जीने नही दे रहा
साँसों के साथ
हवा की सीलन पीते पीते
मैं कतरा कतरा जी रहा हूँ
और... लम्हा लम्हा
भुर रहा हूँ
रेत के इस समुन्दर का विस्तार
जल्दी ही तुमको लील लेगा
दुआ है…. तुम हजारों साल जियो
बुधवार, 6 जुलाई 2011
बीसवीं सदी की वसीयत ...
मौत
जी हाँ ... जब बीसवीं सदी की मौत हुई
(हंसने की बात नही सदी को भी मौत आती है)
हाँ तो मैं कह रहा था
जब बीसवीं सदी की मौत हुई
अनगिनत आँखों के सामने
उसकी वसीयत का पंचनामा हुवा
पाँच-सितारा इमारत के ए. सी. कमरों में
बुद्धिजीवियों के प्रगतिशील दृष्टिकोण,
और तथाकथित विद्वता भरे,
ग्रोथ रेट और बढते मध्यम वर्ग के आंकड़ों के बीच ...
संसद के गलियारे में उंघते सांसदों की
डारेक्ट टेलीकास्ट होती बहस ने ...
सरकारी पैसे पर अखबारों में छपे
बड़े बड़े विज्ञापनों की चमक ने
कितना कुछ तलाश लिया उस वसीयत में
पर किसी ने नही देखे
विरासत में मिले
बीसवीं सदी के कुछ प्रश्न
अन-सुलझे सवाल
व्यवस्था के प्रति विद्रोह
पानी की प्यास
दीमक खाए बदन
हड्डियों से चिपके पेट
भविष्य खोदता बचपन
चरमराती जवानी
बढ़ता नक्सल वाद
कुछ ऐसे प्रश्नों को लेकर
इक्कीसवीं सदी में सुगबुगाहट है…
अस्पष्ट आवाजों का शोर उठने लगा है
तथाकथित बुद्धिजीवियों ने पीठ फेर ली
सांसदों के कान बंद हैं
प्रगतिशील लोगों ने मुखोटा लगा लिया
प्रजा “तंत्र” की व्यवस्था में मग्न है
धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी
मौत की तरफ बढ़ रही है...
जी हाँ ... जब बीसवीं सदी की मौत हुई
(हंसने की बात नही सदी को भी मौत आती है)
हाँ तो मैं कह रहा था
जब बीसवीं सदी की मौत हुई
अनगिनत आँखों के सामने
उसकी वसीयत का पंचनामा हुवा
पाँच-सितारा इमारत के ए. सी. कमरों में
बुद्धिजीवियों के प्रगतिशील दृष्टिकोण,
और तथाकथित विद्वता भरे,
ग्रोथ रेट और बढते मध्यम वर्ग के आंकड़ों के बीच ...
संसद के गलियारे में उंघते सांसदों की
डारेक्ट टेलीकास्ट होती बहस ने ...
सरकारी पैसे पर अखबारों में छपे
बड़े बड़े विज्ञापनों की चमक ने
कितना कुछ तलाश लिया उस वसीयत में
पर किसी ने नही देखे
विरासत में मिले
बीसवीं सदी के कुछ प्रश्न
अन-सुलझे सवाल
व्यवस्था के प्रति विद्रोह
पानी की प्यास
दीमक खाए बदन
हड्डियों से चिपके पेट
भविष्य खोदता बचपन
चरमराती जवानी
बढ़ता नक्सल वाद
कुछ ऐसे प्रश्नों को लेकर
इक्कीसवीं सदी में सुगबुगाहट है…
अस्पष्ट आवाजों का शोर उठने लगा है
तथाकथित बुद्धिजीवियों ने पीठ फेर ली
सांसदों के कान बंद हैं
प्रगतिशील लोगों ने मुखोटा लगा लिया
प्रजा “तंत्र” की व्यवस्था में मग्न है
धीरे धीरे इक्कीसवीं सदी
मौत की तरफ बढ़ रही है...
रविवार, 26 जून 2011
मुक्ति ...
स्थिर मन
एकाग्र चिंतन
शांत लहरें
शांत मंथन
आदि न मध्य
अनंत छोर
आत्मा की खोज
अनवरत भोर
श्वांस चक्र
जीवन डोर
अंतिम सफ़र
दक्षिण क्षोर
आत्मा की मुक्ति
निरंतर संग्राम
जीवन संध्या
अंतिम विश्राम
गर्भ से शून्य
शून्य से गर्भ
स्वयं ही बंधन
स्वयं ही मुक्त
एकाग्र चिंतन
शांत लहरें
शांत मंथन
आदि न मध्य
अनंत छोर
आत्मा की खोज
अनवरत भोर
श्वांस चक्र
जीवन डोर
अंतिम सफ़र
दक्षिण क्षोर
आत्मा की मुक्ति
निरंतर संग्राम
जीवन संध्या
अंतिम विश्राम
गर्भ से शून्य
शून्य से गर्भ
स्वयं ही बंधन
स्वयं ही मुक्त
सोमवार, 20 जून 2011
रिश्ता ...
(गुरुदेव पंकज जी के सुझाव पर तुम और तू के दोष को दूर करने के बाद)
जिस दिन
हमारे रिश्ते की अकाल मृत्यु हुई
कुकुरमुत्ते की तरह तुम्हारी यादें
सर उठाने लगीं
कंबल में जमी धूल सी तुम
तमाम कोशिशों के बावजूद
झाड़ी नही गयीं मुझसे
सफेदी की अनगिनत परतों के बाद भी घर की दीवारें
तुम्हारी यादों के मकड़-जाल से अटी पड़ी हैं
बारिश में उतरी सीलन सी तुम्हारी गंध
घर के कोने कोने में बस गयी है
यादों की धूल
वेक्युम चलाने के बावजूद
शाम होते होते
जाने कौन सी खिड़की से चुपचाप चली आती है
केतली से उठती भाप के साथ
हर सुबह तुम मेरे नथुनों में घुसने लगती हो
जब कभी आईना देखता हूँ
बालों में उंगलियाँ फेरने लगती हो
सॉफ करने पर भी
पुरानी गर्द की तरह
आईने से चिपकी रहती हो
घर के कोने कोने में तुम्हारी याद
चींटियों की तरह घूमने लगी है
स्मृतियों की धूल
कब जूतों के साथ घर आ जाती है
पता नही चलता
मैं जानता हूँ
इस रिश्ते की तो अकाल मृत्यु हो चुकी है
और यादों की धूल भी समय के साथ बैठ जाएगी
पर नासूर बने ये जख्म
क्या कभी भर पाएंगे
जिस दिन
हमारे रिश्ते की अकाल मृत्यु हुई
कुकुरमुत्ते की तरह तुम्हारी यादें
सर उठाने लगीं
कंबल में जमी धूल सी तुम
तमाम कोशिशों के बावजूद
झाड़ी नही गयीं मुझसे
सफेदी की अनगिनत परतों के बाद भी घर की दीवारें
तुम्हारी यादों के मकड़-जाल से अटी पड़ी हैं
बारिश में उतरी सीलन सी तुम्हारी गंध
घर के कोने कोने में बस गयी है
यादों की धूल
वेक्युम चलाने के बावजूद
शाम होते होते
जाने कौन सी खिड़की से चुपचाप चली आती है
केतली से उठती भाप के साथ
हर सुबह तुम मेरे नथुनों में घुसने लगती हो
जब कभी आईना देखता हूँ
बालों में उंगलियाँ फेरने लगती हो
सॉफ करने पर भी
पुरानी गर्द की तरह
आईने से चिपकी रहती हो
घर के कोने कोने में तुम्हारी याद
चींटियों की तरह घूमने लगी है
स्मृतियों की धूल
कब जूतों के साथ घर आ जाती है
पता नही चलता
मैं जानता हूँ
इस रिश्ते की तो अकाल मृत्यु हो चुकी है
और यादों की धूल भी समय के साथ बैठ जाएगी
पर नासूर बने ये जख्म
क्या कभी भर पाएंगे
सोमवार, 13 जून 2011
मेरी जानी सी अंजान प्रेमिका ...
ग़ज़लों का दौर से अलग हट के प्रस्तुत है आज एक रचना ... आशा है आपको पसंद आएगी ...
मेरे तमाम जानने वालों के ख्यालों में पली
गुज़रे हुवे अनगिनत सालों की वेलेंटाइन
मेरी अंजान हसीना
समर्पित है गुलाब का वो सूखा फूल
जो बरसों क़ैद रहा
डायरी के बंद पन्नों में
न तुझसे मिला
न तुझे देखा
तू कायनात में तब आई
मुद्दतों बाद जब सूखा गुलाब
डायरी से मिला
मेरी तन्हाई की हमसफ़र
अंजान क़िस्सों की अंजान महबूबा
ख्यालों की आडी तिरछी रेखाओं में
जब कभी तेरा अक्स बनता हूँ
अनायास
तेरे माथे पे बिंदी
हाथों में पूजा की थाली दे देता हूँ
फिर पलकें झुकाए
सादगी भरे उस रूप को निहारता हूँ
ओ मेरी जानी सी अंजान प्रेमिका
तु बरसों पहले क्यों नही मिली
मेरे तमाम जानने वालों के ख्यालों में पली
गुज़रे हुवे अनगिनत सालों की वेलेंटाइन
मेरी अंजान हसीना
समर्पित है गुलाब का वो सूखा फूल
जो बरसों क़ैद रहा
डायरी के बंद पन्नों में
न तुझसे मिला
न तुझे देखा
तू कायनात में तब आई
मुद्दतों बाद जब सूखा गुलाब
डायरी से मिला
मेरी तन्हाई की हमसफ़र
अंजान क़िस्सों की अंजान महबूबा
ख्यालों की आडी तिरछी रेखाओं में
जब कभी तेरा अक्स बनता हूँ
अनायास
तेरे माथे पे बिंदी
हाथों में पूजा की थाली दे देता हूँ
फिर पलकें झुकाए
सादगी भरे उस रूप को निहारता हूँ
ओ मेरी जानी सी अंजान प्रेमिका
तु बरसों पहले क्यों नही मिली
सोमवार, 6 जून 2011
जिंदगी वो राग जिसका सम नही है
जी लिया जो ज़िंदगी में कम नही है
लौट के आ जाऊं इतना दम नही है
एक पन्छी आसमाँ में उड़ रहा है
राह में जिसका कोई हमदम नही है
रोज़ की जद्दो-जहद पैदाइशी है
जिंदगी वो राग जिसका सम नही है
अनगिनत हैं लोग पीछे भी हमारे
बस हमारे हाथ में परचम नही है
किसके जीवन में कभी ऐसा हुवा है
साथ खुशियों के रुलाता गम नही है
बन गया मोती जो तेरा हाथ लग के
अश्क होगा वो कोई शबनम नही है
जिंदगी गुज़री है कुछ अपनी भी ऐसे
साज़ है आवाज़ है सरगम नही है
लौट के आ जाऊं इतना दम नही है
एक पन्छी आसमाँ में उड़ रहा है
राह में जिसका कोई हमदम नही है
रोज़ की जद्दो-जहद पैदाइशी है
जिंदगी वो राग जिसका सम नही है
अनगिनत हैं लोग पीछे भी हमारे
बस हमारे हाथ में परचम नही है
किसके जीवन में कभी ऐसा हुवा है
साथ खुशियों के रुलाता गम नही है
बन गया मोती जो तेरा हाथ लग के
अश्क होगा वो कोई शबनम नही है
जिंदगी गुज़री है कुछ अपनी भी ऐसे
साज़ है आवाज़ है सरगम नही है
मंगलवार, 31 मई 2011
बड़ी शिद्दत से अम्मा फिर तुम्हारी याद आती है
गुरुदेव पंकज जी के आशीर्वाद से संवरा गीत ....
पुराने गीत बेटी जब कभी भी गुनगुनाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा फिर तुम्हारी याद आती है
दबा कर होठ वो दाँतों तले जब बात करती है
तेरी आँखें तेरा ही रूप तेरी छाँव लगती है
मैं तुझसे क्या कहूँ होता है मेरे साथ ये अक्सर
बड़ी बेटी किसी भी बात पर जब डाँट जाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा.....
कभी जब भूल से पत्नी मेरी चूल्हा जला ले तो
दही मक्खन पराठा जब कभी तुझसा बना ले तो
कभी घर से अचानक हींग की खुश्बू के आते ही
तेरे हाथों की वो खुश्बू मेरे दिल को सताती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा.....
वो छुटके को हुई थी रात में उल्टी अचानक ही
लगी थी खेलते में गैन्द फिर उस शाम किरकेट की
हरी मिर्ची नमक नींबू कभी घर के मसालों से
दवा देसी बगल वाली पड़ोसन जब बनाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा....
निकलती है कभी बिस्तर से जब फ़र्नैल की गोली
नज़र आती है आँगन में कभी जब दीप रंगोली
पुरानी कतरनें अख़बार के पन्नों को छूते ही
तू शब्दों से निकल कर सामने जब मुस्कुराती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा....
मैं छोटा था मुझे चोरी से तू कुछ कुछ खिलाती थी
मुझे है याद सीने से लगा के तू सुलाती थी
किसी रोते हुवे बच्चे को बहलाते में जब अक्सर
नये अंदाज़ से जब माँ कोई करतब दिखाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा....
पुराने गीत बेटी जब कभी भी गुनगुनाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा फिर तुम्हारी याद आती है
दबा कर होठ वो दाँतों तले जब बात करती है
तेरी आँखें तेरा ही रूप तेरी छाँव लगती है
मैं तुझसे क्या कहूँ होता है मेरे साथ ये अक्सर
बड़ी बेटी किसी भी बात पर जब डाँट जाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा.....
कभी जब भूल से पत्नी मेरी चूल्हा जला ले तो
दही मक्खन पराठा जब कभी तुझसा बना ले तो
कभी घर से अचानक हींग की खुश्बू के आते ही
तेरे हाथों की वो खुश्बू मेरे दिल को सताती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा.....
वो छुटके को हुई थी रात में उल्टी अचानक ही
लगी थी खेलते में गैन्द फिर उस शाम किरकेट की
हरी मिर्ची नमक नींबू कभी घर के मसालों से
दवा देसी बगल वाली पड़ोसन जब बनाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा....
निकलती है कभी बिस्तर से जब फ़र्नैल की गोली
नज़र आती है आँगन में कभी जब दीप रंगोली
पुरानी कतरनें अख़बार के पन्नों को छूते ही
तू शब्दों से निकल कर सामने जब मुस्कुराती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा....
मैं छोटा था मुझे चोरी से तू कुछ कुछ खिलाती थी
मुझे है याद सीने से लगा के तू सुलाती थी
किसी रोते हुवे बच्चे को बहलाते में जब अक्सर
नये अंदाज़ से जब माँ कोई करतब दिखाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा....
गुरुवार, 26 मई 2011
वो हो गये बच्चों से पर माँ बाप हैं फिर भी
बातें पुरानी छेड़ना अच्छा नही होता
ज़ख़्मों की मिट्टी खोदना अच्छा नही होता
जो है उसे स्वीकार कर लो ख्वाब मत देखो
सच्चाई से मुँह मोड़ना अच्छा नही होता
जो हो गया सो हो गया अब छोड़ दो उसको
गुज़रे हुवे पल सोचना अच्छा नही होता
ये रोशनी रफ़्तार तेज़ी चार दिन की है
बस दौड़ना ही दौड़ना अच्छा नही होता
बातें नसीहत हैं ज़माने में बुज़ुर्गों की
कहते में उनको रोकना अच्छा नही होता
कमज़ोर हैं तो क्या हुवा कुछ काम आएँगे
माँ बाप को यूँ छोड़ना अच्छा नही होता
वो हो गये बच्चों से पर माँ बाप हैं फिर भी
हर बात पे यूँ टोकना अच्छा नही होता
मैं वो करूँगा, ये करूँगा है मेरी मर्ज़ी
बच्चों का ऐसा बोलना अच्छा नही होता
कुछ फूल भी बच्चों की तरह मुस्कुराते हैं
डाली से उनको तोड़ना अच्छा नही होता
ज़ख़्मों की मिट्टी खोदना अच्छा नही होता
जो है उसे स्वीकार कर लो ख्वाब मत देखो
सच्चाई से मुँह मोड़ना अच्छा नही होता
जो हो गया सो हो गया अब छोड़ दो उसको
गुज़रे हुवे पल सोचना अच्छा नही होता
ये रोशनी रफ़्तार तेज़ी चार दिन की है
बस दौड़ना ही दौड़ना अच्छा नही होता
बातें नसीहत हैं ज़माने में बुज़ुर्गों की
कहते में उनको रोकना अच्छा नही होता
कमज़ोर हैं तो क्या हुवा कुछ काम आएँगे
माँ बाप को यूँ छोड़ना अच्छा नही होता
वो हो गये बच्चों से पर माँ बाप हैं फिर भी
हर बात पे यूँ टोकना अच्छा नही होता
मैं वो करूँगा, ये करूँगा है मेरी मर्ज़ी
बच्चों का ऐसा बोलना अच्छा नही होता
कुछ फूल भी बच्चों की तरह मुस्कुराते हैं
डाली से उनको तोड़ना अच्छा नही होता
सोमवार, 16 मई 2011
गुस्से को सड़कों तक तो लाना होगा
गुरुदेव पंकज सुबीर जी के आशीर्वाद से सजी ....
धीरे धीरे बर्फ पिघलना ठीक नही
दरिया का सैलाब में ढलना ठीक नही
पत्ते भी रो उठते है छू जाने से
पतझड़ के मौसम में चलना ठीक नही
इक चिड़िया मुद्दत से इसमें रहती है
घर के रोशनदान बदलना ठीक नही
ख़ौफ़ यहाँ बेखौफ़ दिखाई देता है
रातों को यूँ घर से निकलना ठीक नही
अपने ही अब घात लगाए बैठे हैं
सपनों का आँखों में पलना ठीक नही
जब तक सुनने वाला ही बहरा न मिले
दिल के सारे राज़ उगलना ठीक नही
यादों का लावा फिर से बह निकलेगा
दिल के इस तंदूर का जलना ठीक नही
जिनके चेहरों के पीछे दस चेहरे हैं
ऐसे किरदारों से मिलना ठीक नही
गुस्से को सड़कों तक तो लाना होगा
बर्तन में ही दूध उबलना ठीक नही
धीरे धीरे बर्फ पिघलना ठीक नही
दरिया का सैलाब में ढलना ठीक नही
पत्ते भी रो उठते है छू जाने से
पतझड़ के मौसम में चलना ठीक नही
इक चिड़िया मुद्दत से इसमें रहती है
घर के रोशनदान बदलना ठीक नही
ख़ौफ़ यहाँ बेखौफ़ दिखाई देता है
रातों को यूँ घर से निकलना ठीक नही
अपने ही अब घात लगाए बैठे हैं
सपनों का आँखों में पलना ठीक नही
जब तक सुनने वाला ही बहरा न मिले
दिल के सारे राज़ उगलना ठीक नही
यादों का लावा फिर से बह निकलेगा
दिल के इस तंदूर का जलना ठीक नही
जिनके चेहरों के पीछे दस चेहरे हैं
ऐसे किरदारों से मिलना ठीक नही
गुस्से को सड़कों तक तो लाना होगा
बर्तन में ही दूध उबलना ठीक नही
रविवार, 8 मई 2011
माँ .....
मैने तो जब देखा अम्मा आँखें खोले होती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
बँटवारे की खट्टी मीठी कड़वी सी कुछ यादें हैं
छूटा था जो घर आँगन उस पर बस अटकी साँसें हैं
आँखों में मोती है उतरा पर चुपके से रोती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
मंदिर वो ना जाती फिर भी घर मंदिर सा लगता है
घर का कोना कोना माँ से महका महका रहता है
बच्चों के मन में आशा के दीप नये संजोती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
चेहरे की झुर्री में अनुभव साफ दिखाई देता है
श्वेत धवल केशों में युग संदेश सुनाई देता है
इन सब से अंजान वो अब तक ऊन पुरानी धोती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
बँटवारे की खट्टी मीठी कड़वी सी कुछ यादें हैं
छूटा था जो घर आँगन उस पर बस अटकी साँसें हैं
आँखों में मोती है उतरा पर चुपके से रोती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
मंदिर वो ना जाती फिर भी घर मंदिर सा लगता है
घर का कोना कोना माँ से महका महका रहता है
बच्चों के मन में आशा के दीप नये संजोती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
चेहरे की झुर्री में अनुभव साफ दिखाई देता है
श्वेत धवल केशों में युग संदेश सुनाई देता है
इन सब से अंजान वो अब तक ऊन पुरानी धोती है
जाने किस पल जगती है वो जाने किस पल सोती है
शनिवार, 30 अप्रैल 2011
ये ऐसा गीत है जिसको सभी ने मिल के गाना है
किसी का घर जलाने की कभी साजिश नहीं करना
जहां हों फूस के छप्पर वहां बारिश नहीं करना
जो पाना है तो खोने के लिए तैयार हो जाओ
जो खोने से है डर पाने की फिर ख्वाहिश नहीं करना
भरोसा गर नहीं होगा तो रिश्ते टूट जायेंगे
किसी को आजमाने की कभी कोशिश नहीं करना
जो खाली हाथ आये हो तो खाली हाथ है जाना
ये मेरा है ये मिल जाए ये फरमाइश नही करना
ये ऐसा गीत है जिसको सभी ने मिल के गाना है
जहर से शब्द कर्कश सी कोई बंदिश नही करना
जहां हों फूस के छप्पर वहां बारिश नहीं करना
जो पाना है तो खोने के लिए तैयार हो जाओ
जो खोने से है डर पाने की फिर ख्वाहिश नहीं करना
भरोसा गर नहीं होगा तो रिश्ते टूट जायेंगे
किसी को आजमाने की कभी कोशिश नहीं करना
जो खाली हाथ आये हो तो खाली हाथ है जाना
ये मेरा है ये मिल जाए ये फरमाइश नही करना
ये ऐसा गीत है जिसको सभी ने मिल के गाना है
जहर से शब्द कर्कश सी कोई बंदिश नही करना
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
छुप गया जो चाँद
दिल ही दिल में आपका ख्याल रह गया
मिल न पाए फिर कभी मलाल रह गया
था अबीर वादियों में तुम नहीं मिले
मुट्ठियों में बंद वो गुलाल रह गया
इक हसीन हादसे का मैं शिकार हूँ
फिर किसी का रेशमी रुमाल रह गया
देख कर मेरी तरफ तो कुछ कहा नहीं
मुस्कुरा के चल दिए सवाल रह गया
छत न मिल सकी मुझे तो कोई गम नहीं
आसमाँ मेरे लिए विशाल रह गया
आप आ गए थे भूल से कभी इधर
वादियों में आपका जमाल रह गया
इस शेर में शुतुरगुर्बा का ऐब बन रहा था जिसका मुझे ज्ञान नहीं था ... गुरुदेव पंकज ने बहुत ही सहजता से इस दोष को दूर कर दिया ... पहले ये शेर इस प्रकार था ...
(आ गए थे तुम कभी जो भूल से इधर
वादियों में आपका जमाल रह गया)
गुरुदेव का धन्यवाद ...
छुप गया जो चाँद दिन निकल के आ गया
आ न पाए वो शबे विसाल रह गया
मिल न पाए फिर कभी मलाल रह गया
था अबीर वादियों में तुम नहीं मिले
मुट्ठियों में बंद वो गुलाल रह गया
इक हसीन हादसे का मैं शिकार हूँ
फिर किसी का रेशमी रुमाल रह गया
देख कर मेरी तरफ तो कुछ कहा नहीं
मुस्कुरा के चल दिए सवाल रह गया
छत न मिल सकी मुझे तो कोई गम नहीं
आसमाँ मेरे लिए विशाल रह गया
आप आ गए थे भूल से कभी इधर
वादियों में आपका जमाल रह गया
इस शेर में शुतुरगुर्बा का ऐब बन रहा था जिसका मुझे ज्ञान नहीं था ... गुरुदेव पंकज ने बहुत ही सहजता से इस दोष को दूर कर दिया ... पहले ये शेर इस प्रकार था ...
(आ गए थे तुम कभी जो भूल से इधर
वादियों में आपका जमाल रह गया)
गुरुदेव का धन्यवाद ...
छुप गया जो चाँद दिन निकल के आ गया
आ न पाए वो शबे विसाल रह गया
सोमवार, 4 अप्रैल 2011
माँ तभी से हो गयी कितनी अकेली
हो गयी तक्सीम अब्बा की हवेली
माँ तभी से हो गयी कितनी अकेली
आज भी आँगन में वो पीपल खड़ा है
पर नही आती है वो कोयल सुरीली
नल खुला रखती है आँगन का हमेशा
सूखती जाती है पर फिर भी चमेली
अनगिनत यादों को आँचल में समेटे
भीगती रहती हैं दो आँखें पनीली
झाड़ती रहती है कमरे को हमेशा
फिर भी आ जाती हैं कुछ यादें हठीली
अब नही करती है वो बातें किसी से
बस पुराना ट्रंक है उसकी सहेली
उम्र के इस दौर में खुद को समझती
काँच के बर्तन में पीतल की पतीली
हो गये हैं अनगिनत तुलसी के गमले
पर है आँगन की ये वृंदा आज पीली
माँ तभी से हो गयी कितनी अकेली
आज भी आँगन में वो पीपल खड़ा है
पर नही आती है वो कोयल सुरीली
नल खुला रखती है आँगन का हमेशा
सूखती जाती है पर फिर भी चमेली
अनगिनत यादों को आँचल में समेटे
भीगती रहती हैं दो आँखें पनीली
झाड़ती रहती है कमरे को हमेशा
फिर भी आ जाती हैं कुछ यादें हठीली
अब नही करती है वो बातें किसी से
बस पुराना ट्रंक है उसकी सहेली
उम्र के इस दौर में खुद को समझती
काँच के बर्तन में पीतल की पतीली
हो गये हैं अनगिनत तुलसी के गमले
पर है आँगन की ये वृंदा आज पीली
सोमवार, 21 मार्च 2011
इस तरह परिणय न हो
कष्ट में भी हास्य की संभावना बाकी रहे
प्रेम का बंधन रहे सदभावना बाकी रहे
यूँ करो स्पर्श मेरा दर्द सब जाता रहे
शूल हों पग में मगर ना यातना बाकी रहे
इस तरह से ज़िन्दगी का संतुलन होता रहे
जय पराजय की कभी ना भावना बाकी रहे
आप में शक्ति हे फिर चाहे के दर्शन दो न दो
पर ह्रदय में आपकी अवधारना बाकी रहे
सात फेरे डालना है आत्माओं का मिलन
इस तरह परिणय न हो, स्वीकारना बाकी रहे
कर सको निर्माण तो ऐसा करो इस देश में
प्रेम की फंसलें उगी हों काटना बाकी रहे
थाल पूजा का लिए चंचल निगाहें देख लूं
हे प्रभू फिर और कोई चाह ना बाकी रहे
प्रेम का बंधन रहे सदभावना बाकी रहे
यूँ करो स्पर्श मेरा दर्द सब जाता रहे
शूल हों पग में मगर ना यातना बाकी रहे
इस तरह से ज़िन्दगी का संतुलन होता रहे
जय पराजय की कभी ना भावना बाकी रहे
आप में शक्ति हे फिर चाहे के दर्शन दो न दो
पर ह्रदय में आपकी अवधारना बाकी रहे
सात फेरे डालना है आत्माओं का मिलन
इस तरह परिणय न हो, स्वीकारना बाकी रहे
कर सको निर्माण तो ऐसा करो इस देश में
प्रेम की फंसलें उगी हों काटना बाकी रहे
थाल पूजा का लिए चंचल निगाहें देख लूं
हे प्रभू फिर और कोई चाह ना बाकी रहे
सोमवार, 14 मार्च 2011
आज के नेता
सपनों की सौगात उठाई होती है
वादों की बारात सजाई होती हैं
वोटों की खातिर नेताओं ने देखो
दुनिया भर में आग लगाई होती है
इनकी शै पर इनके चॅमचों ने कितनी
गुंडागर्दी आम मचाई होती है
घोटाले पर घौटाले करते जाते
लीपा पोती आग बुझाई होती है
सूखा हो या हाहाकार मचा कितना
इनके हिस्से ढेर मलाई होती है
कुर्सी कुर्सी खेल रहे हैं सब नेता
कहने को बस टाँग खिचाई होती है
हिंदू मुस्लिम इनकी सत्ता के मुहरे
मंदिर मस्जिद रोज़ लड़ाई होती है
वादों की बारात सजाई होती हैं
वोटों की खातिर नेताओं ने देखो
दुनिया भर में आग लगाई होती है
इनकी शै पर इनके चॅमचों ने कितनी
गुंडागर्दी आम मचाई होती है
घोटाले पर घौटाले करते जाते
लीपा पोती आग बुझाई होती है
सूखा हो या हाहाकार मचा कितना
इनके हिस्से ढेर मलाई होती है
कुर्सी कुर्सी खेल रहे हैं सब नेता
कहने को बस टाँग खिचाई होती है
हिंदू मुस्लिम इनकी सत्ता के मुहरे
मंदिर मस्जिद रोज़ लड़ाई होती है
सोमवार, 7 मार्च 2011
सूरज के आने से पहले ...
भोर ने आज
जब थपकी दे कर मुझे उठाया
जाने क्यों ऐसा लगा
सवेरा कुछ देर से आया
अलसाई सी सुबह थी
आँखों में कुछ अधखिले ख्वाब
खिड़की के सुराख से झाँक रहा था
अंधेरों का धुंधला साया
मैं दबे पाँव तेरे कमरे में आया
देखा ... तेरे बिस्तर के मुहाने
सुबह की पहली किरण तेरे होठों को चूम रही थी
सोए सोए तू करवट बदल होले से मुस्कुराइ
हवा के झोंके के साथ
कच्ची किरण ने ली अंगड़ाई
रात के घुप्प अंधेरे को चीर
वो कायनात में जा समाई
अगले ही पल
सवेरे ने दस्तक दी
अंधेरे की गठरी उठा
रात बिदा हुई
मुद्दतों बाद
मुझे भी समझ आया
सूरज के आने से पहले
नीले आसमान पर
सिंदूरी रंग कहाँ से आया
जब थपकी दे कर मुझे उठाया
जाने क्यों ऐसा लगा
सवेरा कुछ देर से आया
अलसाई सी सुबह थी
आँखों में कुछ अधखिले ख्वाब
खिड़की के सुराख से झाँक रहा था
अंधेरों का धुंधला साया
मैं दबे पाँव तेरे कमरे में आया
देखा ... तेरे बिस्तर के मुहाने
सुबह की पहली किरण तेरे होठों को चूम रही थी
सोए सोए तू करवट बदल होले से मुस्कुराइ
हवा के झोंके के साथ
कच्ची किरण ने ली अंगड़ाई
रात के घुप्प अंधेरे को चीर
वो कायनात में जा समाई
अगले ही पल
सवेरे ने दस्तक दी
अंधेरे की गठरी उठा
रात बिदा हुई
मुद्दतों बाद
मुझे भी समझ आया
सूरज के आने से पहले
नीले आसमान पर
सिंदूरी रंग कहाँ से आया
रविवार, 20 फ़रवरी 2011
विश्वास
अविश्वास का बस एक पल
और तुम्हारे आँसुओं का सैलाब
हर दहलीज़ लाँघ कर बहा ले गया
विश्वास के मज़बूत लम्हे
रिश्तों का आधार
कच्चे धागों की गरिमा
साथ फेरों का बंधन
वक़्त की खुरदरी सतह पर बिखर गये
कुछ तुम्हारे
कुछ मेरे
कुछ मिल कर देखे ख्वाब
न जाने क्यों
दम तोड़ते ख्वाबों से
भविष्य की आशा चुरा ली मैने
सहेज ली उम्मीद की वो किरण
जो साँस लेती थी हमारी आँखों में
अब जब कभी
तुम्हारी सूखी आँखों में
विश्वास की नमी नज़र आएगी
चुपके से भर दूँगा
भविष्य के कुछ सपने
आशाओं का रोशनी
जला दूँगा वो सब लम्हे
जो उड़ा ले गये
तुम्हारा
मेरा
कुछ हम दोनो का ...
विश्वास
और तुम्हारे आँसुओं का सैलाब
हर दहलीज़ लाँघ कर बहा ले गया
विश्वास के मज़बूत लम्हे
रिश्तों का आधार
कच्चे धागों की गरिमा
साथ फेरों का बंधन
वक़्त की खुरदरी सतह पर बिखर गये
कुछ तुम्हारे
कुछ मेरे
कुछ मिल कर देखे ख्वाब
न जाने क्यों
दम तोड़ते ख्वाबों से
भविष्य की आशा चुरा ली मैने
सहेज ली उम्मीद की वो किरण
जो साँस लेती थी हमारी आँखों में
अब जब कभी
तुम्हारी सूखी आँखों में
विश्वास की नमी नज़र आएगी
चुपके से भर दूँगा
भविष्य के कुछ सपने
आशाओं का रोशनी
जला दूँगा वो सब लम्हे
जो उड़ा ले गये
तुम्हारा
मेरा
कुछ हम दोनो का ...
विश्वास
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
समानांतर रेखाएं
याद है वो तमाम मसले
समाजवाद और पूंजीवाद की लंबी बहस
कार्ल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत
मानव अधिकारों को लेकर आपसी मतभेद
फ्रायड का विवादित मनोविज्ञान
मैकाले की शिक्षा पद्धति
कितनी आसानी से एकमत हो गये
इन विवादित मुद्दों पर
मेरे आई. ऐ. एस. के सपने
तुम्हारे समाज सेवा के ख्वाब
बहस समाप्त होते होते
इस मुद्दे पर भी एकमत हो गये थे
याद है उन दिनों
दिन पंख लगा कर उड़ जाते थे
रात पलक झपकते बीत जाती थी
एस एम एस का लंबा सिलसिला
थमता नही था
गुलज़ार की नज़मों में जीने लगे थे हम
फिर वक़्त के थपेड़ों ने
हालात की खुरदरी सतह पर
जाने कब खड़ी कर दी
अहम की हल्की दीवार
हमारे बीच आ गया
ईगो का पतला आवरण
पता नहीं कब खिंच गयी हम दोनों के बीच
कभी न मिलने वाली दो समानांतर रेखाएं
मैं तो आज भी निरंतर दौड़ रहा हूँ
अपनी रेखा पर
सुना है समानांतर रेखाएं
अनंत पर जा कर मिल जाती हैं
समाजवाद और पूंजीवाद की लंबी बहस
कार्ल मार्क्स के आर्थिक सिद्धांत
मानव अधिकारों को लेकर आपसी मतभेद
फ्रायड का विवादित मनोविज्ञान
मैकाले की शिक्षा पद्धति
कितनी आसानी से एकमत हो गये
इन विवादित मुद्दों पर
मेरे आई. ऐ. एस. के सपने
तुम्हारे समाज सेवा के ख्वाब
बहस समाप्त होते होते
इस मुद्दे पर भी एकमत हो गये थे
याद है उन दिनों
दिन पंख लगा कर उड़ जाते थे
रात पलक झपकते बीत जाती थी
एस एम एस का लंबा सिलसिला
थमता नही था
गुलज़ार की नज़मों में जीने लगे थे हम
फिर वक़्त के थपेड़ों ने
हालात की खुरदरी सतह पर
जाने कब खड़ी कर दी
अहम की हल्की दीवार
हमारे बीच आ गया
ईगो का पतला आवरण
पता नहीं कब खिंच गयी हम दोनों के बीच
कभी न मिलने वाली दो समानांतर रेखाएं
मैं तो आज भी निरंतर दौड़ रहा हूँ
अपनी रेखा पर
सुना है समानांतर रेखाएं
अनंत पर जा कर मिल जाती हैं
बुधवार, 19 जनवरी 2011
मुहब्बत
खुदा की है ये दस्तकारी मुहब्बत
जमीं पे है किसने उतारी मुहब्बत
उमड़ती घटाएं महकती फिजायें
किसी की तो है चित्रकारी मुहब्बत
तेरी सादगी गुनगुनाती है हर सू
मुहब्बत मुहब्बत हमारी मुहब्बत
तेरे गीत नगमें तेरी याद लेकर
तेरा नाम लेकर संवारी मुहबत
पनपने लगेंगे कई ख्वाब मिल के
जो पलकों में तूने उतारी मुहब्बत
मुहब्बत है सौदा दिलों का दिलों से
न मैं जीत पाया न हारी मुहब्बत
सुनाते हैं जो लैला मजनू के किस्से
वो कहते हैं कितनी हे प्यारी मुहब्बत
चली है जुबां पर मेरा नाम लेकर
वो नाज़ुक सी अल्हड कुंवारी मुहब्बत
है बदली हुई वादियों की फिजायें
पहाड़ों पे हे बर्फ़बारी मुहब्बत
अमीरों को मिलती है ये बेतहाशा
गरीबों को है रेजगारी मुहब्बत
ज़माने के झूठे रिवाजों में फंस कर
लुटी बस मुहब्बत बिचारी मुहब्बत
है दस्तूर कैसा ज़माने का देखो
सदा ही है पैसे से हारी मुहब्बत
फटेहाल जेबों ने धीरे से बोला
चलो आज कर लो उधारी मुहब्बत
जमीं पे है किसने उतारी मुहब्बत
उमड़ती घटाएं महकती फिजायें
किसी की तो है चित्रकारी मुहब्बत
तेरी सादगी गुनगुनाती है हर सू
मुहब्बत मुहब्बत हमारी मुहब्बत
तेरे गीत नगमें तेरी याद लेकर
तेरा नाम लेकर संवारी मुहबत
पनपने लगेंगे कई ख्वाब मिल के
जो पलकों में तूने उतारी मुहब्बत
मुहब्बत है सौदा दिलों का दिलों से
न मैं जीत पाया न हारी मुहब्बत
सुनाते हैं जो लैला मजनू के किस्से
वो कहते हैं कितनी हे प्यारी मुहब्बत
चली है जुबां पर मेरा नाम लेकर
वो नाज़ुक सी अल्हड कुंवारी मुहब्बत
है बदली हुई वादियों की फिजायें
पहाड़ों पे हे बर्फ़बारी मुहब्बत
अमीरों को मिलती है ये बेतहाशा
गरीबों को है रेजगारी मुहब्बत
ज़माने के झूठे रिवाजों में फंस कर
लुटी बस मुहब्बत बिचारी मुहब्बत
है दस्तूर कैसा ज़माने का देखो
सदा ही है पैसे से हारी मुहब्बत
फटेहाल जेबों ने धीरे से बोला
चलो आज कर लो उधारी मुहब्बत
मंगलवार, 4 जनवरी 2011
थाल पूजा का लिए सूनी निगाहें
आप ख़्वाबों में नहीं आते हो जब तक
मैं हकीकत से जुड़ा रहता हुं तब तक
जिन्दगी की राह में चलना हे तन्हा
थाम कर रक्खोगे मेरा हाथ कब तक
प्यार सबको बांटता चल इस सफ़र में
बस इसी रस्ते से सब जाते हें रब तक
तुम चमकती रौशनी से दूर रहना
जुगनुओं का साथ बस होता हे शब तक
गीत नगमें नज्म कविता शेर तेरे
बस तेरी ही बात तेरा नाम लब तक
थाल पूजा का लिए सूनी निगाहें
पूछती हैं क्यों नहीं लौटे वो अब तक
मैं हकीकत से जुड़ा रहता हुं तब तक
जिन्दगी की राह में चलना हे तन्हा
थाम कर रक्खोगे मेरा हाथ कब तक
प्यार सबको बांटता चल इस सफ़र में
बस इसी रस्ते से सब जाते हें रब तक
तुम चमकती रौशनी से दूर रहना
जुगनुओं का साथ बस होता हे शब तक
गीत नगमें नज्म कविता शेर तेरे
बस तेरी ही बात तेरा नाम लब तक
थाल पूजा का लिए सूनी निगाहें
पूछती हैं क्यों नहीं लौटे वो अब तक
सदस्यता लें
संदेश (Atom)