यादों की देहरी लाँघ
इक लम्हा सजीव हुवा
भोर सिंदूरी ने
ली अंगड़ाई
रात की काली
चादर हटाई
हवा गुनगुनाई
कली मुस्कुराइ
चुपके से मैने ओढ़ ली
तेरे एहसास की गुलाबी रज़ाई
न जाने कब में सो गया
वो पुराना लम्हा
कुछ नये एहसास सिमेटे
यादों के जंगल में
वापस लौट गया
अब नयी यादें
अक्सर पुरानी यादों से मिलती हैं
कुछ नये ख्वाब
नये सपने संजोती हैं
सुना है
अब यादें भी साँस लेती हैं ........
शनिवार, 30 जनवरी 2010
सोमवार, 25 जनवरी 2010
कुछ ऐसे सिरफिरों के चाहने वाले मिले हैं
गुरुदेव के हाथों सँवरी ग़ज़ल .......
वो जिन के मन पे नफरत के सदा जाले मिले हैं
कुछ ऐसे सिरफिरों के चाहने वाले मिले हैं
समय के हाथ पर जो लिख गये फिर नाम अपना
उन्ही के पाँव में रिस्ते हुवे छाले मिले हैं
जो तन पर ओढ़ कर बैठे हैं खादी की दुशाला
उन्ही के मन हमेशा से घने काले मिले हैं
समय ने दी तो थी दस्तक मेरे भी घर पे लेकिन
मेरी किस्मत उसे घर पर मेरे ताले मिले हैं
वो जिन हाथों में रहती थी सदा क़ुरआन गीता
उन्हीं हाथों में मदिरा के हमें प्याले मिले हैं
अमन की बात करते थे जो कल संसद भवन में
उन्ही की आस्तीनों में छुरे भाले मिले हैं
वो जिन के मन पे नफरत के सदा जाले मिले हैं
कुछ ऐसे सिरफिरों के चाहने वाले मिले हैं
समय के हाथ पर जो लिख गये फिर नाम अपना
उन्ही के पाँव में रिस्ते हुवे छाले मिले हैं
जो तन पर ओढ़ कर बैठे हैं खादी की दुशाला
उन्ही के मन हमेशा से घने काले मिले हैं
समय ने दी तो थी दस्तक मेरे भी घर पे लेकिन
मेरी किस्मत उसे घर पर मेरे ताले मिले हैं
वो जिन हाथों में रहती थी सदा क़ुरआन गीता
उन्हीं हाथों में मदिरा के हमें प्याले मिले हैं
अमन की बात करते थे जो कल संसद भवन में
उन्ही की आस्तीनों में छुरे भाले मिले हैं
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
हिल गई बुनियाद घर फिर भी खड़ा था
ये ग़ज़ल पुनः आपके सामने है .......... गुरुदेव पंकज जी का हाथ लगते ही ग़ज़ल में बला की रवानगी आ गयी है ......
यूँ तो सारी उम्र ज़ख़्मों से लड़ा था
हिल गई बुनियाद घर फिर भी खड़ा था
बस उबर पाया नहीं तेरी कसक से
भर गया वो घाव जो सर पे पड़ा था
वो चमक थी या हवस इंसान की थी
कट गया सर जिसपे भी हीरा जड़ा था
कोई उसके वास्ते रोने न आया
सच का जो झंडा लिए था वो छड़ा था
आज का हो दौर या बातें पुरानी
सुहनी के लेखे तो बस कच्चा घड़ा था
बीज मोती, गेंहू सोना, धान हीरा
खूं से सींचा तो खजाना ये गड़ा था
यूँ तो सारी उम्र ज़ख़्मों से लड़ा था
हिल गई बुनियाद घर फिर भी खड़ा था
बस उबर पाया नहीं तेरी कसक से
भर गया वो घाव जो सर पे पड़ा था
वो चमक थी या हवस इंसान की थी
कट गया सर जिसपे भी हीरा जड़ा था
कोई उसके वास्ते रोने न आया
सच का जो झंडा लिए था वो छड़ा था
आज का हो दौर या बातें पुरानी
सुहनी के लेखे तो बस कच्चा घड़ा था
बीज मोती, गेंहू सोना, धान हीरा
खूं से सींचा तो खजाना ये गड़ा था
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
शिकवे कितने सारे हैं
झूठे वादे, झूठे सपने, झूठे इनके नारे हैं
जैसे नेता, वैसी जनता शिकवे कितने सारे हैं
आग लगी है अफ़रा-तफ़री मची हुई है जंगल में
लूट रहे जो घर को तेरे रिश्तेदार तुम्हारे हैं
पहले तो जी भर के लूटा सागर धरती पर्वत को
डरते हैं जब भू मंडल के ऊपर जाते पारे हैं
पृथ्वी जल अग्नि वायु में इक दिन सब मिट जाना है
ये तेरा है, वो मेरा सब इसी बात के मारे हैं
अपने बंधु मित्र सगे संबंधी साथ नही देता
अपनी यादें, अपने सपने, बस ये साथ हमारे हैं
सूनी आँखें, टूटे सपने, खाली घर, रूठा अंगना
रीती रातें, सूना चंदा, तन्हा कितने तारे हैं
पात्र सुपात्र नही हो तो फिर ज्ञान नहीं बाँटा जाता
अपने ही बच्चों से अक्सर कृष्ण भी बाजी हारे हैं
जैसे नेता, वैसी जनता शिकवे कितने सारे हैं
आग लगी है अफ़रा-तफ़री मची हुई है जंगल में
लूट रहे जो घर को तेरे रिश्तेदार तुम्हारे हैं
पहले तो जी भर के लूटा सागर धरती पर्वत को
डरते हैं जब भू मंडल के ऊपर जाते पारे हैं
पृथ्वी जल अग्नि वायु में इक दिन सब मिट जाना है
ये तेरा है, वो मेरा सब इसी बात के मारे हैं
अपने बंधु मित्र सगे संबंधी साथ नही देता
अपनी यादें, अपने सपने, बस ये साथ हमारे हैं
सूनी आँखें, टूटे सपने, खाली घर, रूठा अंगना
रीती रातें, सूना चंदा, तन्हा कितने तारे हैं
पात्र सुपात्र नही हो तो फिर ज्ञान नहीं बाँटा जाता
अपने ही बच्चों से अक्सर कृष्ण भी बाजी हारे हैं
शनिवार, 9 जनवरी 2010
आपस में टकराना क्या
ध्यान रखो घर के बूढ़ों का, उनसे आँख चुराना क्या
दो बोलों के प्यासे हैं वो, प्यासों को तड़पाना क्या
हिंदू मंदिर, मस्जिद मुस्लिम, चर्च ढूँढते ईसाई
सब की मंज़िल एक है तो फिर, आपस में टकराना क्या
चप्पू छोटे, नाव पुरानी, लहरों का भीषण नर्तन
रोड़े आते हैं तो आएँ, साहिल पर सुस्ताना क्या
अपना दिल, अपनी करनी, फ़िक्र करें क्यों दुनिया की
थोड़े दिन तक चर्चा होगी, चर्चों से घबराना क्या
जलते जंगल, बर्फ पिघलती, कायनात क्यों खफा खफा
जैसी करनी वैसी भरनी, फल से अब कतराना क्या
दो बोलों के प्यासे हैं वो, प्यासों को तड़पाना क्या
हिंदू मंदिर, मस्जिद मुस्लिम, चर्च ढूँढते ईसाई
सब की मंज़िल एक है तो फिर, आपस में टकराना क्या
चप्पू छोटे, नाव पुरानी, लहरों का भीषण नर्तन
रोड़े आते हैं तो आएँ, साहिल पर सुस्ताना क्या
अपना दिल, अपनी करनी, फ़िक्र करें क्यों दुनिया की
थोड़े दिन तक चर्चा होगी, चर्चों से घबराना क्या
जलते जंगल, बर्फ पिघलती, कायनात क्यों खफा खफा
जैसी करनी वैसी भरनी, फल से अब कतराना क्या
सदस्यता लें
संदेश (Atom)