स्वप्न मेरे: नवंबर 2022

बुधवार, 30 नवंबर 2022

धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी ...

इस बात पे हैरान, परेशान हैं हम भी.
क्यों अपने ही घर तुम भी हो, मेहमन हैं हम भी.  
 
माना के नहीं ज्ञान ग़ज़ल, गीत, बहर का,
कुछ तो हैं तभी बज़्म की पहचान हैं हम भी.
 
खुशबू की तरह तुम जो हो ज़र्रों में समाई,
धूँए से सुलगते हुए लोबान हैं हम भी.
 
तुम चाँद की मद्धम सी किरण ओढ़ के आना,
सूरज की खिली धूप के परिधान हैं हम भी.
 
बाधाएँ तो आएँगी न पथ रोक सकेंगी,
कर्तव्य के नव पथ पे अनुष्ठान हैं हम भी.
 
आकाश, पवन, जल, में तो मिट्टी, में अगन में,
वेदों की ऋचाओं में बसे ज्ञान हैं हम भी.
 
गर तुम जो अमलतास की रुन-झुन सी लड़ी हो,
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी.

रविवार, 27 नवंबर 2022

साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं ...

खुद के गुस्से में कहीं खुद ही न जल जाऊँ मैं.
छींट पानी की लगा दो के संभल जाऊँ में.
 
सामने खुद के कभी खुद भी नहीं मैं आया, 
क्या पता खुद ही न बन्दूक सा चल जाऊँ मैं. 
 
बीच सागर के डुबोनी है जो कश्ती तुमने,
ठीक ये होगा के साहिल पे फिसल जाऊँ मैं.
 
दूर उस पार पहाड़ी के कभी देखूँगा,
और थोड़ा सा ज़रा और उछल जाऊँ मैं.
 
मैं नहीं चाहता तू चाँद बने मैं सूरज,
वक़्त हो तेरे निकलने का तो ढल जाऊँ मैं.
 
हाथ छूटा जो कभी यूँ भी तो हो सकता है,  
साथ दरिया के कहीं दूर निकल जाऊँ मैं.
 
खुद के ग़र साथ रहूँ तो है बदलना मुश्किल,
साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं. 

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

ग़ज़ल …

गीली रेत पे सौंधी-सौंधी पुरवाई के कश भरते.
मफलर ओढ़े इश्क़ खड़ा है तन्हाई के कश भरते.
 
इश्क़ पका तो कच्ची-खट्टी-अम्बी भी महकी पल-पल,
पागल-पागल तितली झूमी अमराई के कश भरते.
 
शोर हुआ डब्बा, बस्ते, जूते, रिब्बन, चुन्नी, उछली,
पगडण्डी से बच्चे भागे तरुनाई के कश भरते.
 
सोचा डूब के उभरेंगे जब डूबेंगे इन आँखों में,
होले-होले डूब गए हम गहराई के कश भरते.
 
चाँद की चाहत या सागर के उन्मादीपन का मंज़र,
लहरों ने साहिल को चूमा रुसवाई के कश भरते.
 
बादल की जिद्द चाँद का धोखा कुछ सड़कों का सन्नाटा,
इन्डिया गेट पे वक़्त गुज़ारा हरजाई के कश भरते.
 
काश नज़र की चिट्ठी पर भी एक नज़र डाली होती,
होटों ने तो झूठ कहा था सच्चाई के कश भरते.