साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं ...
खुद के गुस्से में कहीं खुद ही न जल जाऊँ मैं.
छींट पानी की लगा दो के संभल जाऊँ में.
सामने खुद के कभी खुद भी नहीं मैं आया,
क्या पता खुद ही न बन्दूक सा चल जाऊँ मैं.
बीच सागर के डुबोनी है जो कश्ती तुमने,
ठीक ये होगा के साहिल पे फिसल जाऊँ मैं.
दूर उस पार पहाड़ी के कभी देखूँगा,
और थोड़ा सा ज़रा और उछल जाऊँ मैं.
मैं नहीं चाहता तू चाँद बने मैं सूरज,
वक़्त हो तेरे निकलने का तो ढल जाऊँ मैं.
हाथ छूटा जो कभी यूँ भी तो हो सकता है,
साथ दरिया के कहीं दूर निकल जाऊँ मैं.
खुद के ग़र साथ रहूँ तो है बदलना मुश्किल,
साथ ग़र तुम हो तो मुमकिन है बदल जाऊँ मैं.
वाह! क्या बात है!!
जवाब देंहटाएंलाजवाब भाव लाजवाब सृजन।
हाथ छूटा जो कभी यूँ भी तो हो सकता है,
साथ दरिया के कहीं दूर निकल जाऊँ मैं।
आज तो कुछ तेवर बदले बदले लग रहे हैं । लाजवाब ग़ज़ल 👌👌👌
जवाब देंहटाएंबेहतरीन सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!! बेहतरी शायरी
जवाब देंहटाएंसामने खुद के कभी खुद भी नहीं मैं आया,
क्या पता खुद ही न बन्दूक सा चल जाऊँ मैं.
वैसे जाने-अनजाने हम खुद की बंदूक़ से आहत होते रहते हैं, सामने आएं या न आएँ, दिल पर चोट तो लग ही जाती है।
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत खूब, सर
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