अंधेरों को मिलेंगे आज ठेंगे
ये दीपक रात भर
यूँ ही जलेंगे
जो तोड़े पेड़ से
अमरुद मिल कर
दरख्तों से कई
लम्हे गिरेंगे
किसी के होंठ को
तितली ने चूमा
किसी के गाल अब
यूँ ही खिलेंगे
गए जो उस हवेली
पर यकीनन
दीवारों से कई
किस्से झरेंगे
समोसे, चाय, चटनी, ब्रेड
पकोड़ा
न होंगे यार तो
क्या खा सकेंगे
न जाना “पालिका
बाज़ार” तन्हा
किसी की याद के
बादल घिरेंगे
न हो तो नेट पे
बैंठे ढूंढ लें फिर
पुराने यार अब
यूँ ही मिलेंगे
मुड़ी सी नज़्म दो
कानों के बुँदे
किसी के पर्स में
कब तक छुपेंगे
अभी तो रात छज्जे
पे खड़ी है
अभी जगजीत की गजलें सुनेंगे