स्वप्न मेरे: कश्ती
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रविवार, 15 मार्च 2020

हवा का रुख़ कभी का मोड़ आया ...

क़रीब दो महीने हो गएअभी तक देश की मिट्टी का आनंद ले रहा हूँ ... कुछ काम तो कुछ करोना का शोर ... उम्मीद है जल्दी ही मलेशिया लौटना होगा ... ब्लॉग पर लिखना भी शायद तभी नियमित हो सके ... तब तक एक ताज़ा गज़ल  ...

कई क़िस्सों को पीछे छोड़ आया 
सड़क तन्हाई की दौड़ आया 

शहर जिस पर तरक़्क़ी के शजर थे 
तेरी पगडंडियों से जोड़ आया 

किसी की सिसकियों का दर्द ले कर 
गुबाड़े कुछ हँसी के फोड़ आया 

तेरी यादों की गुल्लक तोड़ कर मैं 
सभी रिश्ते पुराने तोड़ आया 

वहाँ थे मोह के किरदार कितने 
दुशाला प्रेम का मैं ओढ़ आया 

भरे थे जेब में आँसू किसी के 
समुन्दर मिल रहा था छोड़ आया 

कभी निकलो तो ले कर अपनी कश्ती 
हवा का रुख़ कभी का मोड़ आया 
#मद्धम_मद्धम

सोमवार, 17 जून 2019

आसमानी पंछियों को भूल जा ...


धूप की बैसाखियों को भूल जा  
दिल में हिम्मत रख दियों को भूल जा

व्यर्थ की नौटंकियों को भूल जा
मीडिया की सुर्ख़ियों को भूल जा

उस तरफ जाती हैं तो आती नहीं
इस नदी की कश्तियों को भूल जा

टिमटिमा कर फिर नज़र आते नहीं
रास्ते के जुगनुओं को भूल जा

हो गईं तो हो गईं ले ले सबक
जिंदगी की गलतियों को भूल जा

याद रख्खोगे तो मांगोगे सबब
कर के सारी नेकियों को भूल जा

रंग फूलों के चुरा लेती हैं ये
इस चमन की तितलियों को भूल जा

टूट कर आवाज़ करती हैं बहुत
तू खिजाँ की पत्तियों को भूल जा

इस शहर से उस शहर कितने शहर 
आसमानी पंछियों को भूल जा