लम्हा लम्हा
तुम जलती रहीं
कतरा कतरा
मैं पिघलता रहा
बूँद बूँद टपकता मेरा अस्तित्व
धीरे धीरे समुन्दर सा होने लगा
मेरे होने का एहसास
कहीं गहरे में डूब गया
तुम अब भी जल रही हो
ये बात अलग है
तिल तिल ये समुन्दर अब सूखने लगा है
धुंवा धुंवा मेरा एहसास
अब खोने लगा है
गरमाने लगी है कायनात
सूख रहे हैं धरती के होठ
हाँ ... मुझे भी तो एक मूसलाधार बारिश की
सख्त जरूरत है
बुधवार, 25 जनवरी 2012
मंगलवार, 17 जनवरी 2012
अहम या इमानदारी ...
जबकि मुझे लगता है
हमारी मंजिल एक थी
मैं आज भी नही जान सका
क्यों हमारा संवाद
वाद विवाद की सीमाएं लांघ कर
मौन में तब्दील हो गया
अतीत का कौन सा लम्हा
अँधेरा बन के तुम्हारी आँखों में पसर गया
प्रेम की बलखाती नदी
कब नाले में तब्दील हुयी
जान नहीं सका
जूते में लगी कील की तरह
आते जाते तुम पैरों में चुभने लगीं
हलकी सी चुभन जहर बन के नसों में दौड़ने लगी
रिश्तों के बादल
बरसे पर भिगो न सके
अब जबकि मैं
और शायद तुम भी
उसी चिंगारी की तलाश में हो
मैं चाहता हूँ की अतीत के तमाम लम्हे
जिस्म से उखड़ जाएं
पर क्या करूं
साए की तरह चिपकी यादें
जिस्म का साथ नहीं छोड़ रहीं
और सच कहूँ तो .... मुझे तो ये भी नहीं पता
ऐसी सोच मेरा अहम है या इमानदारी
हमारी मंजिल एक थी
मैं आज भी नही जान सका
क्यों हमारा संवाद
वाद विवाद की सीमाएं लांघ कर
मौन में तब्दील हो गया
अतीत का कौन सा लम्हा
अँधेरा बन के तुम्हारी आँखों में पसर गया
प्रेम की बलखाती नदी
कब नाले में तब्दील हुयी
जान नहीं सका
जूते में लगी कील की तरह
आते जाते तुम पैरों में चुभने लगीं
हलकी सी चुभन जहर बन के नसों में दौड़ने लगी
रिश्तों के बादल
बरसे पर भिगो न सके
अब जबकि मैं
और शायद तुम भी
उसी चिंगारी की तलाश में हो
मैं चाहता हूँ की अतीत के तमाम लम्हे
जिस्म से उखड़ जाएं
पर क्या करूं
साए की तरह चिपकी यादें
जिस्म का साथ नहीं छोड़ रहीं
और सच कहूँ तो .... मुझे तो ये भी नहीं पता
ऐसी सोच मेरा अहम है या इमानदारी
बुधवार, 11 जनवरी 2012
कोयला खादान का एक मजदूर ...
आँखों में तैरती प्रश्नों की भीड़
मुँह में ज़ुबान रखने का अदम्य साहस
दिल में चिंगारी भर गर्मी
और जंगल जलाने का निश्चय
पहाड़ जैसी व्यवस्था
और दो दो हाथ करने की चाह
साँस लेता दमा
और हाथों में क्रांति का बिगुल
हथोड़े की चोट को
शब्दों में ढालने की जंगली जिद्द
जिस्म के पसीने से निकलती
गाड़े लाल रंग की बू
उसे तो मरना ही था
कोयले की खादान में रह कर
कमीज़ का रंग सफेद जो था...
मुँह में ज़ुबान रखने का अदम्य साहस
दिल में चिंगारी भर गर्मी
और जंगल जलाने का निश्चय
पहाड़ जैसी व्यवस्था
और दो दो हाथ करने की चाह
साँस लेता दमा
और हाथों में क्रांति का बिगुल
हथोड़े की चोट को
शब्दों में ढालने की जंगली जिद्द
जिस्म के पसीने से निकलती
गाड़े लाल रंग की बू
उसे तो मरना ही था
कोयले की खादान में रह कर
कमीज़ का रंग सफेद जो था...
गुरुवार, 5 जनवरी 2012
बदलाव ...
वो रचना चाहते हैं नया इतिहास
पर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान
बदलना चाहते हैं परम्पराएं
पर नहीं छोड़ना चाहते अधूरा विश्वास
बनाना चाहते हैं नए नियम
नहीं बदलना चाहते पुरानी परिपाटी
खुला रख के घावों को
करना चाहते हैं निर्माण
लहू के रंग से लिखना चाहते हैं
प्रेम की नयी इबारत
ज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
खड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
क्या सच में इतने मासूम हैं
पर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान
बदलना चाहते हैं परम्पराएं
पर नहीं छोड़ना चाहते अधूरा विश्वास
बनाना चाहते हैं नए नियम
नहीं बदलना चाहते पुरानी परिपाटी
खुला रख के घावों को
करना चाहते हैं निर्माण
लहू के रंग से लिखना चाहते हैं
प्रेम की नयी इबारत
ज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
खड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
क्या सच में इतने मासूम हैं
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