वो रचना चाहते हैं नया इतिहास
पर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान
बदलना चाहते हैं परम्पराएं
पर नहीं छोड़ना चाहते अधूरा विश्वास
बनाना चाहते हैं नए नियम
नहीं बदलना चाहते पुरानी परिपाटी
खुला रख के घावों को
करना चाहते हैं निर्माण
लहू के रंग से लिखना चाहते हैं
प्रेम की नयी इबारत
ज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
खड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
क्या सच में इतने मासूम हैं
वो रचना चाहते हैं नया इतिहास
जवाब देंहटाएंपर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान
बहुत सही कहा है इन पंक्तियों में .. आभार ।
कमाना चाहते हैं पुण्य वो,
जवाब देंहटाएंभूखों का हक मारकर,
भंडारे कराते हैं वो !
कष्टों से झूझ कर ही सुखों का निर्माण होता है ..?
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ!
Nice .
जवाब देंहटाएंhttp://za.samwaad.com/2012/01/blog-post.html
जब तक पुराना नहीं भूलेंगे तब तक कैसे नयी इबारत लिखी जायेगी ?
जवाब देंहटाएंसशक्त अभिव्यक्ति
मासूमियत ही परिवर्तन के बीज को जिन्दा रखती है..
जवाब देंहटाएंसशक्त अभिव्यक्ति| आभार|
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...
जवाब देंहटाएंसच है...बदलाव तो सभी चाहते हैं....पर किस तरह...किन मूल्यों पर???
सार्थक अभिव्यक्ति...
बहुत ही बढ़िया सर!
जवाब देंहटाएंसादर
कल 06/01/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
सशक्त अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंलहू के रंग से लिखना चाहते हैं
जवाब देंहटाएंप्रेम की नयी इबारत
ज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
खड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
वाह!!!बुलंद प्रस्तुति...
बदलाव ...kabhi dukhata hai katen ki tarah kabhi pyara sa lagta hai ......bahut hi sundar bhavnaye ...bahut hi sundar!!!
जवाब देंहटाएंज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
जवाब देंहटाएंखड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
सुंदर भावभिव्यक्ती..
शुक्रवार भी आइये, रविकर चर्चाकार |
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति पाइए, बार-बार आभार ||
charchamanch.blogspot.com
वाह बहुत खूब सुन्दर अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंदोगलापन --मनुष्य का , या समाज का या फिर जाति धर्म या प्रान्त के नाम पर --यही आधुनिक मनष्य की परिभाषा है .
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति .
क्या करें ..ऐसी ही हो गई है दुनिया.
जवाब देंहटाएंLajawab rachana hai!
जवाब देंहटाएंबनाना चाहते हैं नए नियम
जवाब देंहटाएंनहीं बदलना चाहते पुरानी परिपाटी
क्या सच में इतने मासूम हैं?
आपने अपनी इस बेजोड़ रचना के अंत में ऐसा सवाल पूछा है जिसका जवाब नहीं...बधाई स्वीकारें.
नीरज
very nice...
जवाब देंहटाएंजी नहीं ! वे इतने भी मासूम नहीं हैं ...
जवाब देंहटाएंबेजोड रचना
बेहतरीन प्रस्तुति ..
जवाब देंहटाएंबदलाव तो सब चाहते है,सबके तरीके अलग२ है
जवाब देंहटाएंअच्छी अभिव्यक्ति सुंदर रचना,.....
नई रचना --काव्यान्जलि--जिन्दगीं--में click करे
बदलाव ...
जवाब देंहटाएंवो रचना चाहते हैं नया इतिहास
पर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान
क्या सच में इतने मासूम हैं.....
अब और क्या कहूँ.....????
सुन्दर रचना, नासवा जी ! मासूम नहीं बेवकूफ है, ये बात और है कि खुद को होशियार बताते है ! :)
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
जवाब देंहटाएंखड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
किन्चुल में लिपटे रहने की एक आदत सी हो गई है ......अच्छी रचना .नव वर्ष मुबारक
केंचुल में लिपटे रहने की एक आदत सी हो गई है ......अच्छी रचना .नव वर्ष मुबारक .
जवाब देंहटाएंमेरे हिसाब से हर बदलाव की सोच के पीछे एक दोहरापन छुपा होता है...
जवाब देंहटाएंचेहरों पर मुखौटे धरते हैं, रोज नया रूप ग्रहण करते हैं.
जवाब देंहटाएं"क्या सच में इतने मासूम हैं...???
जवाब देंहटाएंये तो गहरी उलझन है........
कुँवर जी,
वो रचना चाहते हैं नया इतिहास
जवाब देंहटाएंपर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान
tab kaise sambhaw hai itihaas rachna
Wah, behtareen....
जवाब देंहटाएंVyang adbhut laga....
खुला रख के घावों को
जवाब देंहटाएंकरना चाहते हैं निर्माण
लहू के रंग से लिखना चाहते हैं
प्रेम की नयी इबारत
बहुत सुंदर !!!
और
अंत में ऐसा सवाल कि जिसका जवाब हम सब जानते हैं लेकिन देना असंभव सा लगता है
प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट " जाके परदेशवा में भुलाई गईल राजा जी" पर आपके प्रतिक्रियाओं की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी । नव-वर्ष की मंगलमय एवं अशेष शुभकामनाओं के साथ ।
जवाब देंहटाएंBahut khoob!
जवाब देंहटाएंNaya saal bahut mubarak ho!
मासूम नहीं हैं, दोगले भी नहीं हैं बस नपुंसक हैं और मजे की बात यह कि स्वीकार भी नहीं करते कि हम नपुंसक हैं।
जवाब देंहटाएं... और यह सहज भी नहीं है।
जवाब देंहटाएंज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
जवाब देंहटाएंखड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
क्या सच में इतने मासूम हैं
बहुत खूब
सुन्दर अभिव्यक्ति ...
बहुत ही सुन्दर रचना, बदलाव तो पुरानी राहों से होकर ही निकलता है।
जवाब देंहटाएंजीवन का सदृश्य चित्रण मन में उठते विचारो का समागम |
जवाब देंहटाएंjakhmo ko yaad rakhenge,
जवाब देंहटाएंkharocho k nisha na bharenge
tabhi to fook fook k kadam rakhenge
aur fir ek bina kisi dukh-risaav ka
samaaj rachenge.
sunder abhivyakti.
चाहते तो हम बहुत कुछ हैं, परन्तु शुभ बीज से ही शुभ फल निकलता है,....... पेड़ तो बोये बबूल के और आम खाने की कामना ?
जवाब देंहटाएंकिन्तु - सब कुछ इतना बुरा तो नहीं है न ? जिस सत्य, शिव, सुन्दर ने यह दुनिया बनाई है, क्या उसकी रची दुनिया इतनी असत्य, इतनी अशुभ इतनी असुंदर हो सकती है ? आइये, इसकी सुन्दरता को खोजें, और इसकी शुभता को बढायें |
नव वर्ष पर आपको हार्दिक शुभकामनायें |
शिल्पा मेहता
बहुत ही बेहतरीन लिखा है...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंसुन्दर अभिव्यक्ति ...
ऐसे में बदलाव कहाँ संभव है ?
जवाब देंहटाएंसुंदर सार्थक रचना !
वो रचना चाहते हैं नया इतिहास
जवाब देंहटाएंपर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान...
सार्थक रचना
वे मासूम हैं या नहीं पर सोये हुए अवश्य है..खंडहर गिरा कर ही नई इमारत बन सकती है....बहुत सशक्त रचना!
जवाब देंहटाएंसशक्त अभिव्यक्ति ......
जवाब देंहटाएंज़ख़्मी ईंटों की नीव पे
जवाब देंहटाएंखड़ा करना चाहते हैं
बुलंद इमारत
क्या सच में इतने मासूम हैं
..yahi masumiyat mein achhe-achhe dhoob jaate hai..
bahut sundar prastutu..
क्या सच में इतने मासूम हैं
जवाब देंहटाएंयही है भौतिक द्वंद्व और आधुनिकता बोध .
मासूम नहीं है अधिक ही स्याणे हैं। झकझोरने वाली रचना।
जवाब देंहटाएंबदलना चाहते हैं परम्पराएं
जवाब देंहटाएंपर नहीं छोड़ना चाहते अधूरा विश्वास
बनाना चाहते हैं नए नियम
नहीं बदलना चाहते पुरानी परिपाटी...
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! गहरे भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा प्रस्तुती!
बहुत बढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंGyan Darpan
..
vicharniya post................. bahut sunder prastuti.
जवाब देंहटाएंDIL MEIN UTARTEE KAVITA KE LIYE
जवाब देंहटाएंAAPKO BADHAAEE DIGAMBAR JI .
इतिहास रचना है, बुलंद ईमारत खडी करना है लेकिन जख्मी ईंटों पर... काफी विचार किया पर जवाब नहीं मिला...
जवाब देंहटाएंक्या सच में इतने मासूम हो सकते हैं?
गहन अर्थो से परिपूर्ण अभिव्यक्ति... आभार
बहुत ही बढ़िया . आभार
जवाब देंहटाएंदमदार अभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंवो मासूम नहीं हम ही गफ़लत में हैं.
मनुष्य को उसकी आवश्यकताए और मजबूरिय कुछ करने / स्वपन देखने के लिए मजबूर कर देती है ! किन्तु बिन पर उड़ नहीं सकता ! कुछ फदफदते , कुछ कुदकते और कुछ लुप्त हो जाते है ! चाहत भरी सुन्दर कविता ! बधाई
जवाब देंहटाएंनए पर भरोसा तो करना ही पड़ेगा...अगर बदलना है...जब पुराने को इतना समय दिया तो इसे भी आजमाइए...बिना भरोसे बदलाव की उम्मीद बेमानी है...
जवाब देंहटाएंइस विरोधाभास में कहीं जीवन नहीं दिखता।
जवाब देंहटाएंउनकी मासूमियत का जवाब नहीं।
जवाब देंहटाएंवजनदार कविता।
बने मासूम हैं....शानदार- तीखी रचना.
जवाब देंहटाएंप्रभावशाली अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएंनववर्ष की देर से मुबारकबाद मित्र....वैसे में देर करता नहीं..हो जाती है
जवाब देंहटाएंprabhaavshali abhivaykti.........
जवाब देंहटाएंबदलना चाहते हैं परम्पराएं
जवाब देंहटाएंपर नहीं छोड़ना चाहते अधूरा विश्वास
बनाना चाहते हैं नए नियम
नहीं बदलना चाहते पुरानी परिपाटी........बहुत खूब
बहुत कुछ बदला ...पर वक्त कभी नहीं बदला ...और ना बदलेगा ...आज हमारा हैं कल किसी और का होगा
लाज़वाब प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंडूबते उतराते लोग कई बार सचमुच ही तैरना नहीं जानते। उनकी मासूमियत पर यक़ीन भले न हो, हम इंसानियत कैसे छोड़ें?
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर, सशक्त रचना!
वो रचना चाहते हैं नया इतिहास
जवाब देंहटाएंपर नहीं भूलना चाहते
खरोच के निशान
वाह लाजवाब.....
vikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....
बेजोड़ अभिव्यक्ति.
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