स्वप्न मेरे

शनिवार, 18 जनवरी 2025

साहिल से कुछ ही दूर जो फिसल गया ...

जो धूप में रहा वही तो जल गया.
पैदल तो छाँव-छाँव बस निकल गया.

क़िस्मत वो अपने आप ही बदल गया,
गिरने के बावज़ूद जो संभल गया.

बस उतनी ज़िन्दगी से उम्र कम हुई,
जो वक़्त तू-तड़ाक में निकल गया.

क़ातिल मेरे हिसाब से तो वो भी है,
सपनों को दूसरे के जो कुचल गया.

क्या सामने वो आ सकेगा धूप के,
हलकी सी रोशनी में जो पिघल गया.

कुछ सर ही फूटने को थे उतावले,
पत्थर का क्या क़सूर जो मचल गया.

क्यों हाल उस गरीब का हो पूछते,
साहिल से कुछ ही दूर जो फिसल गया.
#स्वप्नमेरे

रविवार, 12 जनवरी 2025

पार कैसे जाना है, कश्तियाँ समझती हैं ...

खेल तो बहाना है, गोटियाँ समझती हैं.
कौन है निशाने पर, पुतलियाँ समझती हैं.

पल दो पल कहीं जीवन, मौत का कहीं तांडव,
खेल है ये साँसों का, अर्थियाँ समझती हैं.

काफिला है यादों का, या हवा की सरगोशी,
कौन थपथपाता है, खिड़कियाँ समझती हैं.

चूड़ियों की खन-खन में, पायलों की रुन-झुन में,
कौन दिल की धड़कन में, लड़कियाँ समझती हैं.

नौनिहाल आते हैं, पढ़ के जब मदरसे से,
लफ्ज़ किसने सीखा है, तख्तियाँ समझती हैं.

कुछ सफ़ेद पोशों की, गूँजती हैं तकरीरें,
कितने घर जलेंगे अब, बस्तियाँ समझती हैं.

तुम तो इक मुसाफिर हो, फिक्र हो तुम्हें क्यों फिर,
पार कैसे जाना है, कश्तियाँ समझती हैं.
(तरही ग़ज़ल)

शनिवार, 4 जनवरी 2025

टूटी हो छत जो घर की तो आराम ना चले ...

खुल कर बहस तो ठीक है इल्ज़ाम ना चले.
जब तक ये फैसला हो कोई नाम ना चले.

कोशिश करो के काम में सीधी हों उंगलियाँ,
टेढ़ी करो जरूर जहाँ काम ना चले.

कोई तो देश का भी महकमा हुज़ूर हो,
हो काम सिलसिले से मगर दाम ना चले.

भाषा बदल रही है ये तस्लीम है मगर,
माँ बहन की गाली तो सरे आम ना चले.

तुम शाम के ही वक़्त जो आती हो इसलिए,
आए कभी न रात तो ये शाम ना चले.

बारिश के मौसमों से कभी खेलते नहीं,
टूटी हो छत जो घर की तो आराम ना चले.

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

सच का सच ...

बिन बोले, बिन कहे
कितना कुछ कहा जा सकता है

पर जैसा कहा
क्या दूसरा वैसा ही समझ सकता है
क्या सच के पीछे छुपा सच समझ आता है

शायद हाँ ... शायद ना ...

शायद कई बार समझ तो आता है
पर समय निकल जाने के बाद 

इसे समझना कहें ... 
शायद हाँ ... शायद ना ... 

#स्वप्न_मेरे

मंगलवार, 24 दिसंबर 2024

मौन और संवाद

मौन क्या है
दूरियों को पाटने वाला संवाद
या समय के साथ चौड़ी होती खाई ...

और संवाद ... वो क्या है
महज़ एक वार्तालाप ?
समझने, समझाने का माध्यम ?
या आने वाले सन्नाटे कि और बढ़ता, एक कदम ...

शायद अती में होने वाली हर स्थिति की तरह
मौन और संवाद की सीमा भी ज़रूरी है
वर्ना गिट भर कि दूरी
उम्र भर का फाँसला भी तय नहीं कर पाती ...
#स्वप्न_मेरे

शनिवार, 21 दिसंबर 2024

ज़रुरत ...

पचपन डिग्री पारे में
रेत के रेगितान पे चलते हुए
मरीचिका न मिले तो क्या चलना मुमकिन होगा
तुम भी न हो और हो सपने देखने पे पाबंदी
ऐसे तो नहीं चलती साँसें

जरूरी होता है एक हल्का सा झटका कभी कभी
रुकी हुयी सूइयाँ चलाने के लिए ...
#जंगली_गुलाब

शनिवार, 30 नवंबर 2024

यादों का कूड़ा ...

हर पुराने को समेटना क्या ठीक है
उन्ही चीज़ों को बार बार देखना,
सहेजना ... फिर सहेजना
समेटना ... फिर समेटना क्या ठीक है
यादों का कूड़ा दर्द के अलावा कुछ देता है क्या

वैसे सहेजने के बाद
क्या निकाल फैंकना आसान है इन्हें
शायद हाँ, शायद ना ...

शनिवार, 23 नवंबर 2024

सपना, काँच या ज़िन्दगी ...

खुद पे पाबन्दी कभी कामयाब नहीं होती
कभी कभी तोड़ने की जिद्द इतनी हावी होती है
पता नहीं चलता कौन टूटा ...

“सपना, काँच या ज़िन्दगी”

खुद से करने को ढेरों बातें
फुसरत के लम्हे आसानी से कहाँ मिलते हैं
काश टूटने से पहले पूरी हो ये चाहत ...
#जंगली_गुलाब

सोमवार, 11 नवंबर 2024

बिमारी ... प्रेम की ...

अजीब बिमारी है प्रेम
न लगे तो छटपटाता है
लग जाये तो ठीक होने का मन नहीं करता

समुंदर जिसमें बस तैरते रहो
आग जिसमें जलते रहो
शराब जिसको बस पीते रहो

जंगली गुलाब ... जिसे बस सोचते रहो ...

#जंगली_गुलाब