स्वप्न मेरे
स्वप्न स्वप्न स्वप्न, सपनो के बिना भी कोई जीवन है
बुधवार, 25 जनवरी 2023
अब लौट कर कभी तो दिगम्बर वतन में आ ...
मफ़लर लपेटे फ़र का पहाड़ी फिरन में आ
गुरुवार, 19 जनवरी 2023
पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी ...
लत बता तुमको ये कब कैसे लगी.
चाय पीने की तलब कैसे लगी.
फ़ुरसतों का दिन बता कैसा लगा,
और तन्हाई की शब कैसे लगी.
चूस लेंगी तितलियाँ गुल का शहद,
सूचना तुमको ये सब कैसे लगी.
रोज़ बनता है सबब उम्मीद का,
ज़िन्दगी फिर बे-सबब कैसे लगी.
दिल तो पहले दिन से था टूटा हुआ,
ये बताओ चोट अब कैसे लगी.
सादगी से ही ग़ज़ल कहते रहे,
तुम को ये लेकिन ग़ज़ब कैसे लगी.
ग़म के कश भरने तलक सब ठीक है,
पर ये सिगरेट तेरे लब कैसे लगी.
शनिवार, 14 जनवरी 2023
झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है ...
तुझे अब इश्क़ में ही ज़िन्दगी मालूम होती है.
दिगम्बर ये तो पहली ख़ुदकुशी मालूम होती है.
कोई प्यासा भरी बोतल से क्यों नज़रें चुराएगा,
निगाहों में किसी के आशिक़ी मालूम होती है.
उन्हें छू कर हवा आई, के ख़ुद उठ कर चले आए,
कहीं ख़ुशबू मुझे पुरकैफ़ सी मालूम होती है.
हँसी गुल से लदे गुलशन में क्यों तितली नहीं
जाती,
कहीं झाड़ी में तीखी सी छुरी
मालूम होती है.
कई धक्के लगाने पर भी टस-से-मस नहीं होती,
रुकी, अटकी हमें ये ज़िन्दगी मालूम होती है.
न जुगनू, दीप, आले, तुम भी लगता है नहीं गुज़रीं,
कई सड़कों पे अब तक तीरग़ी मालूम होती है.
सफ़ेदी बाल में, चेहरे पे उतरी झुर्रियाँ लेकिन,
झुकी पलकों में अब तक सादगी मालूम होती है.
शनिवार, 7 जनवरी 2023
मैं इसे सिर्फ लगी कहता हूँ ...
यूँ न बोलो के नही कहता हूँ.
हूबहू जैसे सुनी कहता हूँ.
कान रख देता हूँ हवाओं पर,
फिर जो सुनता हूँ वही कहता हूँ.
तेरे आने को कहा दिन मैंने,
रात को दिन न कभी कहता हूँ.
मेरा किरदार खुला दर्पण है,
कम भले हो में सही कहता हूँ.
हादसे दिन के इकट्ठे कर-कर,
मैं ग़ज़ल रोज़ नई कहता हूँ.
कब से रहते हैं वहाँ कुछ दुश्मन,
पर उसे तेरी गली कहता हूँ.
दिल्लगी तुमको ये लगती होगी,
मैं इसे सिर्फ़ लगी कहता हूँ.
शनिवार, 31 दिसंबर 2022
नव-वर्ष …
हम दिसंबर की इक्कत्तिस रात में अब क्या करें ?
क्या विगत का ग़म के स्वागत मिल के आगत का करें ?
हम दिसंबर की …
है जो यह नव-वर्ष तम के साथ फिर आता है क्यों ?
बात है आनंद कि तो दुख चले आता है क्यों ?
नींद की टिक-टिक में उतरें पल तो क्या उसका करें ?
हम दिसंबर की …
वेदना का अंत क्या नव-वर्ष से हो पाएगा ?
भूख से छुटकारा क्या मानव को फिर मिल पाएगा ?
व्यर्थ है अवधारणा तो गीत क्यों गाया करें ?
हम दिसंबर की …
चल रहा आदित्य-पृथ्वी-चंद्रमा का दिव्य रथ,
लय सुनिश्चित, ताल नियमित, काल का पर एक पथ,
फिर बदल के वर्ष यह व्यवधान क्यों पैदा करें ?
हम दिसंबर की …
शुक्रवार, 23 दिसंबर 2022
उफ़ुक़ से रात की बूँदें गिरी हैं ...
अभी तो
कुछ बयानों में गिरी हैं.
सभा में खून की छींटें गिरी हैं.
सुबह के साथ सब फीकी मिलेंगी,
ज़मीं पे रात कि पहरें गिरी हैं.
इसे मत दर्द के आँसू समझना,
टपकती आँख से यादें गिरी हैं.
मिले तिनका तो फिर उठने लगेंगी,
हथेली से जो उम्मीदें गिरी हैं.
बहुत याद आएगा खण्डहर जहाँ पर,
हमारे प्रेम की शक्लें गिरी हैं.
जवानी, बचपना, रिश्ते ये हसरत,
बिखर कर उम्र से चीजें गिरी हैं.
किसी ने स्याही छिड़की आसमाँ पर,
उफ़ुक़ से रात की बूँदें गिरी हैं.
रविवार, 18 दिसंबर 2022
अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन ...
जोड़ जो अपने गुनाहों का लगाया उस दिन.
आईना शर्म से फिर देख न पाया उस दिन.
कुछ परिंदों को गुलामी से बचाया उस दिन,
दाने-दाने पे रखा जाल उठाया उस दिन.
खूब दौड़े थे मगर वक़्त कहाँ हाथ आया,
यूँ ही किस्मत ने हमें खूब छकाया उस दिन.
होंसला रख के जो पतवार चलाने निकले,
खुद समुन्दर ने हमें पार लगाया उस दिन.
आ रहा है, अभी निकला है, पहुँचता होगा,
यूँ ही वो शाम तलक मिलने न आया उस दिन.
जीत का लुत्फ़ उठाए तो उठा लेने दो,
हार का हमने भी तो जश्न मनाया उस दिन.
अजनबी खुद को समझने की न गलती कर दूँ,
अपने चेहरे से मुखोटे को हटाया उस दिन.
मंगलवार, 13 दिसंबर 2022
चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी ...
रात को कहना सुबह जब लौट के घर जाएगी.
एक प्याली चाय मेरे साथ पी कर जाएगी.
चाँद है मेरी मेरी बगल में पर मुझे यह खौफ़ है,
कार की खिड़की खुली तो चाँदनी डर जाएगी.
प्रेम सागर का नदी से इक फरेबी जाल है,
जानती है ना-समझ मिट जाएगी, पर जाएगी.
है बड़ा आसान इसको काट कर यूँ फैंकना,
ज़ख्म दिल को पर अंगूठी दे के बाहर जाएगी.
बादलों के झुण्ड जिस पल धूप को उलझायेंगे,
नींद उस पल छाँव बन कर आँख में भर जाएगी.
चल रही होगी समुन्दर में पिघलती शाम जब,
चाँद झोली में छुपा के रात ऊपर जाएगी.
सोमवार, 5 दिसंबर 2022
विल्स ...
एक पुरानी विल्स
की सिगरेट जैसी है.
ख़ाकी फ्रौक में
लड़की सचमुच ऐसी है.
हंसी-ठिठोली, कूद-फाँद, ये मस्त-नज़र,
अस्त-व्यस्त सी
लड़की देखो कैसी है.
फ़ेस बनाता क्यों
है उस लड़की जैसे,
बादल अब तेरी तो
ऐसी-तैसी है.
सूरत, सीरत, आदत, अब क्या-क्या बोलूँ,
जैसी बाहर अंदर
बिलकुल वैसी है.
गहरा कश भर कर उस
दिन फिर भाग गई,
खौं-खौं करती
लड़की वाक़ई मैसी है.
बुधवार, 30 नवंबर 2022
धरती पे लदे धान के खलिहान हैं हम भी ...
इस बात पे हैरान,
परेशान हैं हम भी.
क्यों अपने ही घर
तुम भी हो, मेहमन हैं हम भी.
माना के नहीं
ज्ञान ग़ज़ल, गीत, बहर का,
कुछ तो हैं तभी
बज़्म की पहचान हैं हम भी.
खुशबू की तरह तुम जो हो ज़र्रों में समाई,
धूँए से सुलगते हुए लोबान हैं हम भी.
तुम चाँद की
मद्धम सी किरण ओढ़ के आना,
सूरज की खिली धूप
के परिधान हैं हम भी.
बाधाएँ तो आएँगी
न पथ रोक सकेंगी,
कर्तव्य के नव पथ
पे अनुष्ठान हैं हम भी.
आकाश, पवन, जल, में तो मिट्टी, में अगन में,
वेदों की ऋचाओं
में बसे ज्ञान हैं हम भी.
गर तुम जो अमलतास
की रुन-झुन सी लड़ी हो,
धरती पे लदे धान
के खलिहान हैं हम भी.
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