रचना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रचना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सोमवार, 12 सितंबर 2022
नाक़ाम इश्क़ ...
काँटों की चुभन है नाक़ाम इश्क़
बुधवार, 7 सितंबर 2022
रेशमी एहसास ...
हरे पहाड़ों की चोटियों से
उतरते सफ़ेद बादल
रुक जाते हैं बल खाती काली सड़क के सीने पर
ललक है तुम्हें छूने की
इतना करीब से
की समेट सकें तेरी साँसों की महक उम्र भर के लिए
वो जानते हैं झाँकोगी तुम खुली खिड़की से
छुओगी नर्म हथेली से वो रेशमी एहसास ...
ठीक उसी वक़्त मैं भी हो जाऊँगा धुँवा-धुँवा
घुल जाऊँगा बादलों की नर्म छुवन में
सुन प्रकृति की अप्रतिम रचना ... मेरे जंगली गुलाब
छू के देखना अपने माथे की चन्द लकीरों उस पल
नमी की बूँद में महसूस करोगी मुझको
गुरुवार, 28 जुलाई 2022
कुछ एहसास ...
कुनमुनी
धूप का एहसास
जब अनायास ही बदलने
लगे मौसम
समझ लेना दूर कहीं
यादों में
स्पर्श किया है
मैंने तुम्हारा
माथे पे गिरी एक
आवारा बूँद
जगाने लगे एक
अनजानी प्यास
समझ लेना तन्हाई के
किसी लम्हे ने
अंगड़ाई ली है कहीं
हर मौसम में खिलता
जंगली गुलाब
तेरे होंटों की
मुस्कुराहट लिए
महक रहा है पुरानी
पगडण्डी पर
चल आज वहीं टहल आएँ
…
जोड़ लें कुछ ताज़ा
लम्हे, यादों की बुगनी में …
#जंगली_गुलाब
बुधवार, 16 फ़रवरी 2022
जंगली गुलाब ...
लम्बे समय से गज़ल लिखते लिखते लग रहा है जैसे मेरा
जंगली-गुलाब कहीं खो रहा है ... तो आज एक नई रचना के साथ ... अपने जंगली गुलाब के साथ ...
प्रेम क्या डाली पे झूलता फूल है ...
मुरझा जाता है टूट जाने के कुछ लम्हों में
माना रहती हैं यादें, कई कई दिन ताज़ा
फिर सोचता हूँ प्रेम नागफनी क्यों नहीं
रहता है ताज़ा कई कई दिन, तोड़ने के बाद
दर्द भी देता है हर छुवन पर, हर बार
कभी लगता है प्रेम करने वाले हो जाते हैं सुन्न
दर्द से परे, हर सीमा से
विलग
बुनते हैं अपन प्रेम-आकाश, हर छुवन
से इतर
देर तक सोचता हूँ, फिर पूछता हूँ
खुद से
क्या मेरा भी प्रेम-आकाश है ... ?
कब, कहाँ, कैसे, किसने
बुना ...
पर उगे तो हैं, फूल भी नागफनी भी
क्यों ...
कसम है तुम्हें उसी प्रेम की
अगर हुआ है कभी मुझसे, तो सच-सच बताना
प्रेम तो शायद नहीं ही कहेंगे उसे ...
तुम चाहो तो जंगली-गुलाब का नाम दे देना ...
सोमवार, 8 जून 2020
सच के झूठ ... क्या सच ...
सच
जबकि होता है सच
लग जाती है
मुद्दत
सच की ज़मीन पाने में
झूठ
जबकि नहीं होता सच
फ़ैल जाता है
आसानी से
सच हो जैसे
हालांकि अंत
जबकि रह जाता है
केवल सच
पर सच को मिलने तक
सच की ज़मीन
झूठ हो जाती है
तमाम उम्र
तो क्या है सच
ज़िन्दगी ...
या प्राप्ति
सच या झूठ की ...
सोमवार, 1 जून 2020
सपने आँखों में
किसी की आँखों में झाँकना
उसके दर्द को खींच निकालना नहीं होता
ना ही होता है उसके मन की बात
लफ्ज़-दर-लफ्ज़ पढ़ना
उसकी गहरी नीली आँखों में
प्रेम ढूँढना तो बिलकुल भी नहीं होता
हाँ ... होते हैं कुछ अधूरे सपने उन आँखों में
देखना चाहता हूँ जिन्हें
समेटना चाहता हूँ जिनको
करना चाहता हूँ दुआ जिनके पूरे होने की
सपनों का टूट जाना
ज़िन्दगी के छिज जाने से कम नहीं ...
समेटन चाहता हूँ साँस लेती पँखुरी-पँखुरी
चाहता हूँ खिल उठे जंगली गुलाब ...
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 25 मई 2020
क्या सच में ...
अध्-खुली नींद में रोज़ बुदबुदाता हूँ
एक तुम हो जो सुनती नहीं
हालांकि ये चाँद, सूरज ... ये भी नहीं सुनते
और हवा ...
इसने तो जैसे “इगनोरे” करने की ठान ली है
ठीक तुम्हारी तरह
धुंधले होते तारों के साथ
उठ जाती हो रोज मेरे पहलू से
कितनी बार तो कहा है
जमाने भर को रोशनी देना तुम्हारा काम नहीं
खिलता है कायनात में जगली गुलाब कहीं
उगता है रोज़ सूरज के नाम से
आकाश की बादल भरी ज़मीन पर
अरे सुनो ... कहीं तुम ही तो ...
इसलिए तो नहीं उठ जाती रोज़ मेरे पहलू से मेरे
... ?
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 27 अप्रैल 2020
दास्ताँ - हसीन सपनों की ...
इंद्र-धनुष के सात रँगों में रँग नहीं होते ... रँग सूरज की
किरणों में भी नहीं होते और आकाश के नीलेपन में तो बिलकुल भी नहीं ... रँग होते
हैं तो देखने वाले की आँखों में जो जागते हैं प्रेम के एहसास से ...
दुनिया रंगीन दिखे
इसलिए तो नहीं भर लेते रँग आँखों में
उदास रातों की कुछ उदास यादें
आँसू बन के न उतरें
तो खुद-ब-खुद रंगीन हो जाती है दुनिया
दुनिया तब भी रंगीन होती है
जब हसीन लम्हों के द्रख्त
जड़ बनाने लगते हैं दिल की कोरी ज़मीन पर
क्योंकि उसके साए में उगे रंगीन सपने
जगमगाते हैं उम्र भर
सच पूछो तो दुनिया तब भी
रंगीन होती है
जब तेरे एहसास के कुछ कतरे लिए
फूल फूल डोलती हैं तितलियाँ
ओर उनके पीछे भागते कुछ मासूम बच्चे
रँग-बिरँगे कपड़ों में
पूजा की थाली लिए
गुलाबी साड़ी पे आसमानी शाल ओढ़े
तुम भी तो करती हो चहल-कदमी रोज़ मेरे ज़ेहन में
दुनिया इसलिए भी तो रंगीन होती है
दुनिया इसलिए भी रंगीन होती है
कि टांकती हो तुम जुड़े में जंगली गुलाब
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 30 मार्च 2020
हिसाब चाहत का
कहाँ खिलते हैं फूल रेगिस्तान में ... हालांकि पेड़ हैं जो
जीते हैं बरसों बरसों नमी की इंतज़ार में ... धूल है की साथ छोड़ती नहीं ... नमी है
की पास आती नहीं ... कहने को सागर साथ है पीला सा ...
मैंने चाहा तेरा हर दर्द
अपनी रेत के गहरे समुन्दर में लीलना
तपती धूप के रेगिस्तान में मैंने कोशिश की
धूल के साथ उड़ कर
तुझे छूने का प्रयास किया
पर काले बादल की कोख में
बेरंग आंसू छुपाए
बिन बरसे तुम गुजर गईं
आज मरुस्थल का वो फूल भी मुरझा गया
जी रहा था जो तेरी नमी की प्रतीक्षा में
कहाँ होता है चाहत पे किसी का बस ...
सोमवार, 23 मार्च 2020
यूँ ही ... एक ख़ुशबू ...
हालाँकि छूट गया था शहर
छूट जाती है जैसे उम्र समय के साथ
टूट गया वो पुल
उम्मीद रहती थी जहाँ से लौट आने की
पर एक ख़ुशबू है, भरी रहती है जो नासों में
बिना खिंचे, बिना सूंघे
लगता है खिलने लगा है आस-पास
जंगली गुलाब का फूल कोई
या ... गुजरी हो तुम इस रास्ते से कभी
वैसे मनाही तुम्हारी याद को भी नहीं
उठा लाती है जो तुम्हें
जंगली गुलाब की ख़ुशबू लपेटे
जंगली गुलाब की ख़ुशबू लपेटे
#जंगली_गुलाब
सोमवार, 6 जनवरी 2020
माँ - एक एहसास
एक और पन्ना कोशिश, माँ को समेटने की से ... आपका प्रेम मिल रहा है इस किताब को, बहुत आभार है आपका ... कल पुस्तक मेले, दिल्ली में आप सब से मिलने की प्रतीक्षा है ... पूरा जनवरी का महीना इस बार भारत की तीखी चुलबुली सर्दी के बीच ...
लगा तो लेता तेरी तस्वीर दीवार पर
जो दिल के कोने वाले हिस्से से
कर पाता तुझे बाहर
कैद कर देता लकड़ी के फ्रेम में
न महसूस होती अगर
तेरे क़दमों की सुगबुगाहट
घर के उस कोने से
जहाँ मन्दिर की घंटियाँ सी बजती रहती हैं
भूल जाता माँ तुझे
न देखता छोटी बेटी में तेरी झलक
या सुबह से शाम तेरे होने का एहसास कराता
अपने अक्स से झाँकता तेरा चेहरा
के भूल तो सकता था रौशनी का एहसास भी
जो होती न कभी सुबह
या भूल जाता सूरज अपने आने की वजह
ऐसी ही कितनी बेवजह बातों का जवाब
किसी के पास नहीं होता ...
#कोशिश_माँ_को_समेटने_की
मंगलवार, 15 जनवरी 2019
सिरा सुख दुःख का ...
दुःख नहीं होगा तो क्या जी सकेंगे ...
खिलती हुई धूप के दुबारा आने की उमंग
स्याह रात को दिन के लील लेने के बाद जागती है
सर्दी के इंतज़ार में देवदार के ठूंठ न सूखें
तो बर्फ की सफ़ेद चादर तले प्रेम के अंकुर नहीं फूटते
काले बादल के ढेर कड़कते हुए न गरजें
तो बेमानी सावन बरसते हुए भी भिगो नहीं पाता
मिलन के ठीक एक लम्हा पहले बिछड़ने की याद
बे-मौसम खिला देती हैं फूल
पंछी भी गाने लगते हैं गीत
सच बताना क्या सुख का एहसास दुःख से नहीं ...
सुख का एक सिरा दुःख का दूसरा सिरा नहीं ...?
सोमवार, 7 जनवरी 2019
लम्हे इश्क के ...
एक दो तीन ... कितनी बार
फूंक मार कर मुट्ठी से बाल उड़ाने की नाकाम कोशिश
आस पास हँसते मासूम चेहरे
सकपका जाता हूँ
चोरी पकड़ी गयी हो जैसे
जान गए तुम्हारा नाम सब अनजाने ही
कितना मुश्किल हैं न खुद से नज़रें चुराना
इश्क से नज़रें चुराना
इंसान जब इश्क हो जाता है
उतरना चाहता है किसी दिल में
और अगर वो दिल उसके महबूब का हो
मिल जाता है उसे मुकाम
तेरी नर्म हथेली में हथेली डाले
गुज़ार सकता हूँ तमाम उम्र फुदकती गिलहरी जैसे
तेरे साथ गुज़ारा दुःख भी इश्वर है
पाक पवित्र तेरे आँचल जैसा
तभी तो उसकी यादों में जीने का दिल करता है
प्रेम भी कितनी कुत्ती शै है
मंगलवार, 1 जनवरी 2019
नव वर्ष ...
ब्लॉग जगत के सभी साथियों को नव वर्ष की मंगल कामनाएं ... सन
२०१९ नई उम्मीद, और सार्थक सोच ले
के आए, भारत देश में सुख शान्ति का प्रवाह निरंतर बना रहे ... आज
के दिन एक प्रश्न स्वयं से ...
क्या नया नव वर्ष में हमको मिला
हूबहू कल सा ही दिन था जो खिला
भोर बोझिल बदहवास सी मिली
धूप जैसी कल थी वैसी ही मिली
रात का आँचल भी तक़रीबन वही
पर नयी तारीख़ सबको थी मिली
सोचता हूँ क्यों रखूँ कोई गिला ... ?
क्या नया नव वर्ष में हमको मिला
इस तरफ़ तारीख़ बदली उस तरफ़
ज़िंदगी का एक दिन कम हो गया
कौन सी ख़ुशियाँ समय ने बाँट दीं
शोर जो इतना सुबह से हो गया
क्या नया सूरज कहीं फिर से जला ... ?
क्या नया नव वर्ष है हमको मिला
भूख कल सी, प्यास भी घटती नहीं
कश्म-कश जद्दो-जहद रुकती नहीं
तन पे कपड़ा क्या सभी को मिल गया
पेट की ये आग क्यों बुझती नहीं
रोटियों का ढेर क्या सबको मिला ... ?
क्या नया नव वर्ष में हमको मिला
सोमवार, 15 अक्तूबर 2018
बुखार ... खुमारी ... या जंगली गुलाब ...
बेहोशी ने अभी लपेटा नहीं बाहों में
रुक जाती है रफ़्तार पत्थर से टकरा कर
जाग उठता है कायनात का कारोबार
नींद गिर जाती है उस पल
नींद की आगोश से
दो पल अभी गुज़रे नहीं
ख़त्म पहाड़ी का आखरी सिरा
हवा में तैरता शरीर
चूक गयी हो जैसे ज़मीन की चुम्बक
नींद का क्या
गिर जाती है फिर नींद की आगोश से
रात का अंजान लम्हा
लीलते समुन्दर से
सिर बाहर रखने की जद्दो-जहद
हवा फेफड़ों में भर लेने की जंग
शोर में बदलती “क्या हुआ” “उठो” की हलकी धमक
लौटा तो लाती हो तुम पसीने से लथपथ बदन
पर नींद फिर गिर जाती है
नींद की आगोश से
वो क्या था
तपते “बुखार” में सुलगता बदन
गहरी थकान में डूबी खुमारी
या किसी जंगली गुलाब के एहसास में गुज़री रात
दिन के उजाले में जागता है मीठा दर्द
पर कहाँ ...
छोड़ो ... ये भी कोई सोचने की बात है ...
सोमवार, 8 अक्तूबर 2018
प्रेम-किस्से ...
यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
शहर की रंग-बिरंगी इमारतों से ये नहीं निकलते
न ही शराबी मद-मस्त आँखों से छलकते हैं
ज़ीने पे चड़ते थके क़दमों की आहट से ये नहीं जागते
बनावटी चेहरों की तेज रफ़्तार के पीछे छिपी फाइलों के बीच
दम तोड़ देते हैं ये किस्से
कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
पनपने को अंकुर प्रेम का
जितना ज़रूरी है दो पवित्र आँखों का मिलन
उतनी ही जरूरी है तुम्हारी धूप की चुभन
जरूरी हैं मेरे सांसों की नमी भी
उसे आकार देने को
कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
प्रेम-किस्से आसमान से भी नहीं टपकते
ज़रुरी होता है प्रेम का इंद्र-धनुष बनने से पहले
आसमान से टपकती भीगी बूँदें
ओर तेरे अक्स से निकलती तपिश
जैसे जरूरी है लहरों के ज्वार-भाटा बनने से पहले
अँधेरी रात में तन्हा चाँद का भरपूर गोलाई में होना
ओर होना ज़मीन के उतने ही करीब
जितना तुम्हारे माथे से मेरे होठ की दूरी
कि यूं ही हवा में नहीं बनते प्रेम-किस्से
सोमवार, 1 अक्तूबर 2018
हिसाब ... बे-हिसाब यादों का ...
सुबह हुई और भूल गए
यादें सपना नहीं
यादें कपड़ों पे लगी धूल भी नहीं
झाड़ो, झड़ गई
उम्र से बे-हिसाब
जिंदगी के दिन खर्च करना
समुंदर की गीली रेत से सिप्पिएं चुनना
सब से नज़रें बचा कर
अधूरी इमारतों के साए में मिलना
धुंए के छल्लों में
उम्मीद भरे लम्हे ढूंढना
हाथों में हाथ डाले घंटों बैठे रहना
जूड़े में टंके बासी फूल जैसे
क्या फैंक सकोगी यादें
बे-हिसाब बीते दिन
जिंदगी के पेड़ पे लगे पत्ते नहीं
पतझड़ आया झड़ गए ...
मंगलवार, 25 सितंबर 2018
माँ ...
सच कहूं तो हर साल २५ सितम्बर को ही ज़हन में तेरे न होने का ख्याल आता है, अन्यथा बाकी दिन यूँ लगता है जैसे
तू साथ है ... बोलती, उठती, सोती, डांटती, बात करती, प्यार करती
... और मुझे ही क्यों ... शायद सबके साथ ऐसा होता होगा ... माँ का एहसास जो है ...
पिछले छह सालों में जाने कितनी बार कितनी ही बातों, किस्सों
और लम्हों में तुझे याद किया, तुझे महसूस किया ... ऐसा ही एक एहसास जिसको जिया है
सबने ...
मेज़ पर सारी किताबों को सजा देती थी माँ
चार बजते ही सुबह पढने उठा देती थी माँ
वक़्त पे खाना, समय पे नींद, पढना खेलना
पेपरों के दिन तो कर्फ्यू सा लगा देती थी माँ
दूध घी पर सबसे पहले नाम होता था मेरा
रोज़ सरसों तेल की मालिश करा देती थी माँ
शोर थोड़ा सा भी वो बर्दाश करती थी नहीं
घर में अनुशासन सभी को फिर सिखा देती थी माँ
आज भी है याद वो गुज़रा हुआ बचपन मेरा
पाठ हर लम्हे में फिर मुझको पढ़ा देती थी माँ
खुद पे कम, मेहनत पे माँ की था भरोसा पर मुझे
रोज आँखों में नए सपने जगा देती थी माँ
सोमवार, 17 सितंबर 2018
कभी तो ...
कभी तो गूंजो कान में
गुज़र जाओ छू के कंधा
गुज़र जाती है क़रीब से जैसे आवारा हवा
उतर आओ हथेली की रेखाओं में
जैसे सर्दी की कुनमुनाती धूप
खिल उठो जैसे खिलता है जंगली गुलाब
पथरीली जमीन पर
झांको छुप छुप के झाड़ी के पीछे से
झाँकता है जैसे चाँद बादल की ओट से
मिल जाओ अचानक नज़रें चुराते
मिलते हैं जाने पहचाने दो अजनबी जैसे
मैं चाहता हूँ तुम्हें ढूँढ निकालना
अतीत के गलियारे से
वर्तमान की राह पर ...
गुज़र जाओ छू के कंधा
गुज़र जाती है क़रीब से जैसे आवारा हवा
उतर आओ हथेली की रेखाओं में
जैसे सर्दी की कुनमुनाती धूप
खिल उठो जैसे खिलता है जंगली गुलाब
पथरीली जमीन पर
झांको छुप छुप के झाड़ी के पीछे से
झाँकता है जैसे चाँद बादल की ओट से
मिल जाओ अचानक नज़रें चुराते
मिलते हैं जाने पहचाने दो अजनबी जैसे
मैं चाहता हूँ तुम्हें ढूँढ निकालना
अतीत के गलियारे से
वर्तमान की राह पर ...
सोमवार, 13 अगस्त 2018
भीड़ जयचंदों की क्यों फिर देश से जाती नहीं है ...
सभी भारत वासियों को स्वतंत्रता दिवस, १५ अगस्त की हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ ... एक छोटा सा आग्रह इस गीत के माध्यम से:
हो गए टुकड़े अनेकों चेतना जागी नहीं है
क्या तपोवन में कहीं सिंह गर्जना बाकी नहीं है
था अतिथि देव भव का भाव अपना दिव्य चिंतन
पर सदा लुटते रहे इस बात पर हो घोर मंथन
चिर विजय की कामना क्यों मन को महकाती नहीं है
संस्कृति के नाम पर कब तक हमें छलते रहेंगे
हम अहिंसा के पुजारी हैं तो क्या पिटते रहेंगे
क्या भरत भूमि अमर वीरों की परिपाटी नहीं है
खंड में बंटती रही माँ भारती लड़ते रहे हम
प्रांत भाषा वर्ण के झगड़ों में बस उलझे रहे हम
राष्ट्र की परिकल्पना क्यों सोच में आती नहीं है
सैनिकों के शौर्य को जब कायरों से तोलते हैं
नाम पर अभिव्यक्ति की हम शत्रु की जय बोलते हैं
भीड़ जयचंदों की क्यों फिर देश से जाती नहीं है
सदस्यता लें
संदेश (Atom)