कुछ हैं तेरी याद से जुड़े हुए ...
गिर गए हैं और
कुछ खड़े हुए.
पेड़ आँधियों में हैं
डटे हुए.
बंट रहा है मुफ़्त
में ही कुछ कहीं,
आदमी पे आदमी चढ़े
हुए.
दूध तो नसीब में
नहीं है अब,
हम तो छाछ से भी
हैं जले हुए.
रोज एक इम्तिहान
है नया,
हम भी इस तरह से
कुछ बड़े हुए.
बादलों का साथ दे
रही हवा,
सामने हैं सूर्य
के अड़े हुए.
चुप थे पैरवी में
चश्म-दीद सब,
नोट कह रहे थे
कुछ मुड़े हुए.
कुछ निकल गए बना
के हम-सफ़र,
कुछ हैं तेरी याद
से जुड़े हुए.
वाह!दिगंबर जी ,क्या बात है ,बेहतरीन सृजन ।
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 2022...वक़्त ठहरता नहीं...) पर गुरुवार 28 जनवरी 2021 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 29-01-2021) को
"जन-जन के उन्नायक"(चर्चा अंक- 3961) पर होगी। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
धन्यवाद.
…
"मीना भारद्वाज"
बादलों का साथ दे रही हवा,
जवाब देंहटाएंसामने हैं सूर्य के अड़े हुए.
चुप थे पैरवी में चश्म-दीद सब,
नोट कह रहे थे कुछ मुड़े हुए.नायाब शेर..नायाब ग़ज़ल..
बहुत बढ़िया गजल,दिगम्बर भाई।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंशानदार ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंशानदार अशआर
सुन्दर गजल
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंमतलब के आगे सब बौने, जिसका कोई नहीं उसको कुछ नहीं हासिल होने वाला
जवाब देंहटाएंजिसके पास कुछ नहीं उसे सब छोड़ देते हैं, उसके पास यादें ही शेष रह जाती हैं
बहुत खूब!
बादलों का साथ दे रही हवा,
जवाब देंहटाएंसामने हैं सूर्य के अड़े हुए.
चुप थे पैरवी में चश्म-दीद सब,
नोट कह रहे थे कुछ मुड़े हुए.
वाह वाह !!!
कमाल की गजल....नोटों के आगे तो चश्मदीद अंधे हो जाते हैं बोलेंगे क्या....एक से बढ़कर एक शेर....लाजवाब।
लाजवाब
जवाब देंहटाएंबेहतरीन नासवा जी! बहुत उम्दा और गहन अर्थ समेटे सुंदर ग़ज़ल।
जवाब देंहटाएंनमस्कार नासवा जी, क्या खूब लिखी''जन-जन की पीर'' कि
जवाब देंहटाएंरोज एक इम्तिहान है मेरा, हम भी इस तरह से बड़े हुए...
चुप थे पैरवी में चश्म-दीद सब,
जवाब देंहटाएंनोट कह रहे थे कुछ मुड़े हुए.
वाह ! उम्दा गजल
सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंBahut Sundar Aadarniy Digamber Ji
जवाब देंहटाएंवाह बहुत ही शानदार
जवाब देंहटाएंलाज़वाब गज़ल सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
बंट रहा है मुफ़्त में ही कुछ कहीं,
जवाब देंहटाएंआदमी पे आदमी चढ़े हुए.....
वाह, किसान आन्दोलन की कृत्रिमता की एक झलक ले आई है आपकी यह पंक्ति।
लोग कैसे, अपने ही घर को रौंदते हैं, विश्वास नहीं होता।
प्रजातंत्र या भीड़तंत्र?????
वाह! वाह!
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा 👌 सटीक पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंचुप थे पैरवी में चश्म-दीद सब,
नोट कह रहे थे कुछ मुड़े हुए.
....एक से बढ़कर एक शेर....लाजवाब।
चुप थे पैरवी में चश्म-दीद सब,
जवाब देंहटाएंनोट कह रहे थे कुछ मुड़े हुए....
कितनी गहरी बात ! सभी शेर बेहतरीन। सादर।
विडंबनाओं की भरी पूरी ग़ज़ल है--
जवाब देंहटाएंबादलों का साथ दे रही हवा,
सामने हैं सूर्य के अड़े हुए.
रोज एक इम्तिहान है नया,
जवाब देंहटाएंहम भी इस तरह से कुछ बड़े हुए.
अप्रतिम और एकदम स्वाभाविक !
अलहदा अहसास ।
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जवाब देंहटाएंचुप थे पैरवी में चश्म-दीद सब,
नोट कह रहे थे कुछ मुड़े हुए',,,,,,,,',,,,सच बात है यही हक़ीक़त है बहुत सुंदर ।