स्वप्न मेरे: ज़िन्दगी भी रेत सी फिसल गई ...

सोमवार, 18 जनवरी 2021

ज़िन्दगी भी रेत सी फिसल गई ...

पीठ तेरी नज्र से जो जल गई.
ज़िन्दगी तब से ही हमको छल गई.
 
रौशनी आई सुबह ने कह दिया,
कुफ्र की जो रात थी वो ढल गई.
 
मुस्कुराए हम भी वो भी हंस दिए,
मोम की दीवार थी पिघल गई.
 
रात भर कश्ती संभाले थी लहर,
दिन में अपना रास्ता बदल गई.
 
इस तरफ कूआं तो खाई उस तरफ,
बच के किस्मत बीच से निकल गई.
 
जब तलक ये दाड़ अक्ल का उगा,
ज़िन्दगी भी रेत सी फिसल गई.

40 टिप्‍पणियां:

  1. वाह!
    जब तलक ये दाड़ अक्ल का उगा,
    ज़िन्दगी भी रेत सी फिसल गई...गज़ब का सृजन सर।

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  2. वाह ! बहुत खूब ! अति सुन्दर !!!

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  3. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-1-21) को "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि"(चर्चा अंक-3951) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा


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  4. इस तरफ कूआं तो खाई उस तरफ,
    बच के किस्मत बीच से निकल गई.
    वाह!!!
    हमेशा की तरह एक और नायाब गजल...
    एक से बढ़कर एक शेर।

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  5. उम्दा शेरों से सजी एक बेहतरीन ग़ज़ल का तोहफ़ा देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद दिगम्बर नासवा जी..

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  6. जिंदगी जब छलती है तो सिलसिला इसी तरह आगे बढ़ता जाता है, पहले आशा बंधती है, फिर राहें बदल जाती हैं, आसमान से निकले खजूर पर अटके वाली हालत यानि कुएं और खाई जैसी, जब समझ पाते हैं तो जिंदगी विदा लेने को खड़ी होती है। खूबसूरत अंदाज में जीवन दर्शन !

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  7. जब तलक ये दाड़ अक्ल का उगा,
    ज़िन्दगी भी रेत सी फिसल गई.
    कड़वी सच्चाई व्यक्त करती रचना।

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  8. इस तरफ कूआं तो खाई उस तरफ,
    बच के किस्मत बीच से निकल गई.

    जब तलक ये दाड़ अक्ल का उगा,
    ज़िन्दगी भी रेत सी फिसल गई.

    सच है जिंदगी को समझना आसान नहीं किसी के लिए भी

    बहुत सुन्दर रचना

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  9. वाह!!दिगंबर जी ,क्या बात है !बहुत ही उम्दा । सही है अक्ल दाढ़ निकलते-निकलते फिसल ही जाती है जिंदगी .....।

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  10. बहुत ख़ूब....
    इस शानदार ग़ज़ल के लिए साधुवाद 🙏

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  11. मुस्कुराए हम भी वो भी हंस दिए,
    मोम की दीवार थी पिघल गई.

    सुन्दर ग़ज़ल....

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  12. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २२ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  13. मुस्कुराए हम भी वो भी हंस दिए,
    मोम की दीवार थी पिघल गई.
    ...................
    बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल है सर। आपको बधाई।

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  14. रात भर कश्ती संभाले थी लहर,
    दिन में अपना रास्ता बदल गई.

    वाह

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  15. हर शेर लाजवाब नासवा जी ।
    गहरा दर्शन समेटे लाजवाब ग़ज़ल।
    बेहतरीन।

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  16. हर शे'र की दूसरी पंक्ति किसी अंजाम तक ले जाती है. इसने तो कमाल किया-

    इस तरफ कूआं तो खाई उस तरफ,
    बच के किस्मत बीच से निकल गई.

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  18. मुस्कुराए हम भी वो भी हंस दिए,
    मोम की दीवार थी पिघल गई.,,',,,,,,,क्या बात है सर बहुत सुंदर ,काश के हर दीवार मोम की हो ।

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