स्वप्न मेरे: माँ
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मंगलवार, 23 मई 2023

बचपन जब मुड़ कर देखा तो जाने क्या-क्या होता था ...

लट्टू, कंचे, चूड़ी, गिट्टे, पेंसिल बस्ता होता था.
पढ़ते कम थे फिर भी अपना एक नज़रिया होता था.

पूरा-पूरा होता था या सच में था माँ का जादू,
कम-कम हो कर भी घर में सब पूरा-पूरा होता था.

शब्द कहाँ गुम हो जाते थे जान नहीं पाए अब तक,
चुपके-चुपके आँखों-आँखों इश्क़ पुराना होता था.

अपनी पैंटें, अपने जूते, साझा थे सबके मोज़े,
चार भाई में, चार क़मीज़ें, मस्त गुज़ारा होता था.

लम्बी रातें आँखों-आँखों में मिन्टों की होती थीं,
उन्ही दिनों के इंतज़ार का सैकेंड घण्टा होता था.

तुम देखोगे हम अपने बापू जी पर ही जाएँगे,
नब्बे के हो कर भी जिन के मन में बच्चा होता था.

हरी शर्ट पे ख़ाकी निक्कर, पी. टी. शू, नीले मौजे,
बचपन जब मुड़ कर देखा तो जाने क्या-क्या होता था.

रविवार, 25 सितंबर 2022

माँ …

बीतते बीतते आज दस वर्ष हो गएवर्ष बदलते रहे पर तारीख़ वही 25 सितम्बर … सच है जाने वाले याद रहते हैं मगर तारीख़ नहींपरदेख आज की तारीख़ ऐसी है जो भूलती ही नहीं … तारीख़ ही क्योंदिनमहीनासालकुछ भी नहीं भूलता … और तू … अब क्या कहूँ… मज़ा तो अब भी आता है तुझसे बात करने का … तुझे महसूस करने का … 


माँ हक़ीक़त में तु मुझसे दूर है.

पर मेरी यादों में तेरा नूर है.


पहले तो माना नहीं था जो कहा,

लौट कह फिर सेअब मंज़ूर है.


तू हमेशा दिल में रहती है मगर,

याद करना भी तो इक दस्तूर है.


रोक पाना था नहीं मुमकिन तुझे,

क्या करूँ अब दिल बड़ा मजबूर है.


तू मेरा संगीतगुरु-बाणीभजन,

तू मेरी वीणामेरा संतूर है.


तू ही गीता ज्ञान है मेरे लिए,

तू ही तो रसखानमीरासूर है.


तू खुली आँखों से अब दिखती नहीं,

पर तेरी मौजूदगी भरपूर है.

शनिवार, 25 सितंबर 2021

माँ ...

9 साल ... वक़्त बहुत क्रूर होता है ... या ऐसा कहो वक़्त व्यवहारिक होता है, प्रेक्टिकल होता है .... उसे पता होता है की क्या हो सकता है, वो भावुक नहीं होता, अगले ही पल पिछले पल को ऐसे भूल जाता है जैसे ज़िन्दगी इसी पल से शुरू हई हो ... हम भी तो जी रहे हैं, रह रहे हैं माँ के बिना, जबकि सोच नहीं सके थे तब ... एक वो 25 सितम्बर और एक आज की 25 सितम्बर ... कहीं न कहीं से तुम ज़रूर देख रही हो माँ, मुझे पता है ...   
 
कह के तो देख बात तेरी मान जाएगी
वो माँ है बिन कहे ही सभी जान जाएगी
 
क्या बात हो गयी है परेशान क्यों हूँ मैं
चेहरे का रंग देख के पहचान जाएगी
 
मुश्किल भले ही आयें हज़ारों ही राह में
हर बात अपने दिल में मगर ठान जाएगी
 
साए कभी जो रात के घिर-घिर के आएंगे
आँचल सुनहरी धूप का फिर तान जाएगी
 
खुद जो किया है उसका ज़िक्र भी नहीं किया
देखेगी पर शिखर पे तो कुरबान जाएगी 

सोमवार, 24 अगस्त 2020

कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली

रात जागी तो कान में बोली
इस अँधेरे की अब चली डोली
 
बंद रहना ही इसका अच्छा था
राज़ की बात आँख ने खोली
 
दोस्ती आये तो मगर कैसे
दुश्मनी की गिरह नहीं खोली
 
तब से चिढती है धूप बादल से
नींद भर जब से दो-पहर सो ली
 
तब भी रोई थी मार के थप्पड़
आज माँ याद कर के फिर रो ली
 
खून सैनिक का तय है निकलेगा
इस तरफ उस तरफ चले गोली
 
जो भी माँगा वही मिला तुझसे
कुछ तिलिस्मी थी माँ तेरी झोली 

सोमवार, 6 जनवरी 2020

माँ - एक एहसास


एक और पन्ना कोशिश, माँ को समेटने की से ... आपका प्रेम मिल रहा है इस किताब को, बहुत आभार है आपका ... कल पुस्तक मेले, दिल्ली में आप सब से मिलने की प्रतीक्षा है ... पूरा जनवरी का महीना इस बार भारत की तीखी चुलबुली सर्दी के बीच ...
  
लगा तो लेता तेरी तस्वीर दीवार पर
जो दिल के कोने वाले हिस्से से
कर पाता तुझे बाहर

कैद कर देता लकड़ी के फ्रेम में
न महसूस होती अगर  
तेरे क़दमों की सुगबुगाहट 
घर के उस कोने से
जहाँ मन्दिर की घंटियाँ सी बजती रहती हैं  

भूल जाता माँ तुझे
न देखता छोटी बेटी में तेरी झलक
या सुबह से शाम तेरे होने का एहसास कराता 
अपने अक्स से झाँकता तेरा चेहरा

के भूल तो सकता था रौशनी का एहसास भी 
जो होती न कभी सुबह
या भूल जाता सूरज अपने आने की वजह 

ऐसी ही कितनी बेवजह बातों का जवाब
किसी के पास नहीं होता ...

#कोशिश_माँ_को_समेटने_की 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

एक पन्ना - कोशिश, माँ को समेटने की


आज अचानक ही उस दिन की याद हो आई जैसे मेरी अपनी फिल्म चल रही हो और मैं दूर खड़ा उसे देख रहा हूँ. दुबई से जॉब का मैसेज आया था और अपनी ही धुन में इतना खुश था, की समझ ही नहीं पाया तू क्या सोचने लगी. लगा तो था की तू उदास है, पर शायद देख नहीं सका ... 

मेरे लिए खुशी का दिन
ओर तुम्हारे लिए ...

सालों बाद जब पहली बार घर की देहरी से बाहर निकला
समझ नहीं पाया था तुम्हारी उदासी का कारण

हालाँकि तुम रोक लेतीं तो शायद रुक भी जाता
या शायद नहीं भी रुकता
पर मुझे याद है तुमने रोका नहीं था
(वैसे व्यक्तिगत अनुभव से देर बाद समझ आया,
माँ बाप बच्चों की उड़ान में रोड़ा नहीं डालते)

सच कहूँ तो उस दिन के बाद से 
अचानक यादों का सैलाब सा उमड़ आया था ज़हन में
गुज़रे पल अनायास ही दस्तक देने लगे थे 
लम्हे फाँस बनके अटकने लगे थे
जो अनजाने ही जिए, सबके ओर तेरे साथ

भविष्य के सपनों पर कब अतीत की यादें हावी हो गईं
पता नहीं चला 

खुशी के साथ चुपके से उदासी कैसे आ जाती है
तब ही समझ सका था मैं
जानता हूँ वापस लौटना आसान था
पर खुद-गर्जी ... या कुछ ओर
बारहाल ... लौट नहीं पाया उस दिन से

आज जब लौटना चाहता हूं
तो लगता है देर हो गई है
ओर अब तुम भी तो नहीं हो वहाँ, माँ ...

#कोशिश_माँ_को_समेटने_की 

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

समीक्षा - कोशिश, माँ को समेटने की ...


एक समीक्षा मेरी किताब कोशिश, माँ को समेटने की ... आदरणीय मीना जी की कलम से ... जो सन 2015 से अपने ब्लॉग "मंथन" पे लगातार लिख रही हैं ... 

https://www.shubhrvastravita.com/ 



'कोशिश माँ को समेटने की' एक संवेदनशील चार्टेड एकाउटेंट श्री दिगम्बर नासवा जी पुस्तक है, जो घर -परिवार से दूर विदेशों में प्रवास करते स्मृतियों में सदा माँ के समीप रहते हैं। लेखक के शब्दों में -

ये गुफ्तगू है मेरी , मेरे अपने साथ। आप कहेंगे अपने साथ क्यों…, माँ से क्यों नहीं ? ...मैं कहूँगा… माँ मुझसे अलग कहाँ… लम्बा समय माँ के साथ रहा… लम्बा समय नहीं भी रहा, पर उनसे दूर तो कभी भी नहीं रहा...

किताब को पढ़ते हुए कभी मन में एक डायरी पढ़ने जैसा सुखद अहसास जगता है तो कभी किसी आर्ट गैलरी में दुर्लभ पेंटिंग को देख मन को मिले सुकून जैसा। कुछ रचनाओं से पूर्व के घटनाक्रम का उल्लेख बरबस ही लेखक के साथ-साथ पाठक को भी उस दुनिया में ले जाता है जो लेखक के अनुभूत पलों की है। आज के भौतिकतावादी युग में  मानव हृदय की संवेदनशीलता को जागृत करने के लिए इस तरह की सृजनात्मकता मरूभूमि में सावन की रिमझिम के सुखद अहसास जैसी है।

माँ के लिए गीत एवं गज़ल पुस्तक को पूर्णता प्रदान करते हैं।

पुस्तक पृष्ठ दर पृष्ठ आगे बढ़ती है जिसमें लेखक की खुद से खुद की बातें हैं और बातों की धुरी 'माँ' है। सांसारिक नश्वरता को मानते हुए भी एक पुत्र हृदय उस नश्वरता को अमरता में बाँध देता है। उसकी एक बानगी की झलक -

पुराने गीत बेटी जब कभी भी गुनगुनाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा फिर तुम्हारी याद आती है

दबा कर होठ वो दाँतों तले जब बात है करती
तेरी आँखें तेरा ही रूप तेरी छाँव है लगती
मैं तुझसे क्या कहूँ होता है मेरे साथ ये अक्सर
बड़ी बेटी किसी भी बात पर जब डाँट जाती है
बड़ी शिद्दत से अम्मा ...

बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'कोशिश माँ को समेटने की' पुस्तक के लेखक श्री दिगम्बर नासवा हैं। पुस्तक का ISBN : 978 -93-89177-89-3 और मूल्य : ₹150/- है।

"मीना भारद्वाज" 

किताब अब अमेज़न पर उपलब्द्ध है ... आप इस लिंक से मँगवा सकते हैं ...

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

कोशिश माँ को समेटने की

#कोशिश_माँ_को_समेटने_की
बहुत आभार बोधि प्रकाशन का, आदरणीय मायामृग जी का, सभी मित्र, पत्नी, बच्चे, भाई-बंधुओं का और माँ का (जो जहाँ भी है, मेरे करीब है) ... जिनके सहयोग और प्रेरणा के बिना ये संभव न होता ... ये हर किसी के मन के भाव हैं मेरी बस लेखनी है ... 

हाँ एक बात और ... अगर इस किताब को पढ़ने के बाद, एक बच्चे का दिल, एक अंश भी बदल सके तो मेरा सात जन्मों का लिखना सार्थक होगा ...  

किताब अमेज़न पर उपलब्ध है ... 

लिंक साझा कर रहा हूँ ...

Hey buddies ... now my work is over, your started ...

https://www.amazon.in/dp/B081NJ3ZKD?ref=myi_title_dp


सोमवार, 2 दिसंबर 2019

किताब का एक पन्ना


“कोशिश – माँ को समेटने की” तैयार है ... कुछ ही दिनों में आपके बीच होगी. आज एक और “पन्ना” आपके साथ साझा कर रहा हूँ ... आज सोचता हूँ तो तेरी चिर-परिचित मुस्कान सामने आ जाती है ... मेरे खुद के चेहरे पर ...  

कहते हैं गंगा मिलन
मुक्ति का मार्ग है

कनखल पे अस्थियाँ प्रवाहित करते समय
इक पल को ऐसा लगा
सचमुच तुम हमसे दूर जा रही हो ...

इस नश्वर सँसार से मुक्त होना चाहती हो
सत्य की खोज में
श्रृष्टि से एकाकार होना चाहती हो

पर गंगा के तेज प्रवाह के साथ
तुम तो केवल सागर से मिलना चाहती थीं
उसमें समा जाना चाहती थीं

जानतीं थीं
गंगा सागर से अरब सागर का सफर
चुटकियों में तय हो जाएगा   
उसके बाद तुम दुबई के सागर में
फिर से मेरे करीब होंगी ...   

किसी ने सच कहा है
माँ के दिल को जानना मुश्किल नहीं ...
 
(१३ वर्षों से दुबई रहते हुवे मन में ऐसे भाव उठना स्वाभाविक है)
(अक्तूबर ३, २०१२)
#कोशिश_माँ_को_समेटने_की

सोमवार, 11 नवंबर 2019

कोशिश ... माँ को समेटने की

आने वाली किताब “कोशिश ... माँ को समेटने की” में सिमटा एक पन्ना ...

तमाम कोशिशों के बावजूद 
उस दीवार पे
तेरी तस्वीर नहीं लगा पाया

तूने तो देखा था

चुपचाप खड़ी जो हो गई थीं मेरे साथ
फोटो-फ्रेम से बाहर निकल के

एक कील भी नहीं ठोक पाया था   
सूनी सपाट दीवार पे

हालांकि हाथ चलने से मना नहीं कर रहे थे 
शायद दिमाग भी साथ दे रहा था
पर मन ...
वो तो उतारू था विद्रोह पे 

ओर मैं ....

मैं भी समझ नहीं पाया
कैसे चलती फिरती मुस्कुराहट को कैद कर दूं
फ्रेम की चारदिवारी में  

तुम से बेहतर मन का द्वन्द कौन समझ सकता है माँ ... 
(दिसंबर २८, २०१२)

#कोशिश_माँ_को_समेटने_की

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

आने वाली किताब का कवर पेज

आज अपनी पहली पुस्तक का कवर पेज आपके सम्मुख है ... शीघ्र ही किताब आपके बीच होगी ... आपके आशीर्वाद की आकाँक्षा है ... 



सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

रात की काली स्याही ढल गई ...


दिन उगा सूरज की बत्ती जल गई
रात की काली स्याही ढल गई

सो रहे थे बेच कर घोड़े, बड़े
और छोटे थे उनींदे से खड़े
ज़ोर से टन-टन बजी कानों में जब 
धड-धड़ाते बूट, बस्ते, चल पड़े  
हर सवारी आठ तक निकल गई
रात की काली ...

कुछ बुजुर्गों का भी घर में ज़ोर था
साथ कपड़े, बरतनों का शोर था
माँ थी सीधी ये समझ न पाई थी
बाई के नखरे थे, मन में चोर था
काम, इतना काम, रोटी जल गई
रात की काली ...

ढेर सारे काम बाकी रह गए
ख्वाब कुछ गुमनाम बाकी रह गए
नींद पल-दो-पल जो माँ को आ गई
पल वो उसके नाम बाकी रह गए 
घर, पती, बच्चों, की खातिर गल गई
रात की काली ...

सब पढ़ाकू थे, में कुछ पीछे रहा
खेल मस्ती में मगर, आगे रहा
सर पे आई तो समझ में आ गया
डोर जो उम्मीद की थामे रहा 
जंग लगी बन्दूक इक दिन चल गई
रात की काली ...