स्वप्न मेरे: बचपन
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मंगलवार, 23 मई 2023

बचपन जब मुड़ कर देखा तो जाने क्या-क्या होता था ...

लट्टू, कंचे, चूड़ी, गिट्टे, पेंसिल बस्ता होता था.
पढ़ते कम थे फिर भी अपना एक नज़रिया होता था.

पूरा-पूरा होता था या सच में था माँ का जादू,
कम-कम हो कर भी घर में सब पूरा-पूरा होता था.

शब्द कहाँ गुम हो जाते थे जान नहीं पाए अब तक,
चुपके-चुपके आँखों-आँखों इश्क़ पुराना होता था.

अपनी पैंटें, अपने जूते, साझा थे सबके मोज़े,
चार भाई में, चार क़मीज़ें, मस्त गुज़ारा होता था.

लम्बी रातें आँखों-आँखों में मिन्टों की होती थीं,
उन्ही दिनों के इंतज़ार का सैकेंड घण्टा होता था.

तुम देखोगे हम अपने बापू जी पर ही जाएँगे,
नब्बे के हो कर भी जिन के मन में बच्चा होता था.

हरी शर्ट पे ख़ाकी निक्कर, पी. टी. शू, नीले मौजे,
बचपन जब मुड़ कर देखा तो जाने क्या-क्या होता था.

सोमवार, 25 नवंबर 2019

हमारी नाव को धक्का लगाने हाथ ना आए ...


लिखे थे दो तभी तो चार दाने हाथ ना आए
बहुत डूबे समुन्दर में खज़ाने हाथ ना आए

गिरे थे हम भी जैसे लोग सब गिरते हैं राहों में
यही है फ़र्क बस हमको उठाने हाथ ना आए

रकीबों ने तो सारा मैल दिल से साफ़ कर डाला
समझते थे जिन्हें अपना मिलाने हाथ ना आए

सभी बचपन की गलियों में गुज़र कर देख आया हूँ
कई किस्से मिले साथी पुराने हाथ ना आए

इबादत घर जहाँ इन्सानियत की बात होनी थी
वहाँ इक नीव का पत्थर टिकाने हाथ ना आए

सितारे हद में थे मुमकिन उन्हें मैं तोड़ भी लेता  
मुझे दो इन्च भी ऊँचा उठाने हाथ ना आए

यही फुट और दो फुट फाँसला साहिल से बाकी था 
हमारी नाव को धक्का लगाने हाथ ना आए

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

चाँद उतरता है होले से ज़ीने पर ...


हुस्नो-इश्क़, जुदाई, दारू पीने पर
मन करता है लिक्खूं नज़्म पसीने पर 

खिड़की से बाहर देखो ... अब देख भी लो  
क्यों पंगा लेती हो मेरे जीने पर 

सोहबत में बदनाम हुए तो ... क्या है तो 
यादों में रहते हैं यार कमीने पर    

लक्कड़ के लट्टू थे, कन्चे कांच के थे
दाम नहीं कुछ भी अनमोल नगीने पर

राशन, बिजली, पानी, ख्वाहिश, इच्छाएं
चुक जाता है सब कुछ यार महीने पर 

खुशबू, बातें, इश्क़ ... ये कब तक रोकोगे  
लोहे की दीवारें, चिलमन झीने पर

छूने से नज़रों के लहू टपकता है
इश्क़ लिखा है क्या सिन्दूर के सीने पर

और वजह क्या होगी ... तुझसे मिलना है
चाँद उतरता है होले से ज़ीने पर

सोमवार, 2 जुलाई 2018

दरख्तों से कई लम्हे गिरेंगे ...


किसी की याद के मटके भरेंगे
पुराने रास्तों पे जब चलेंगे

कभी मिल जाएं जो बचपन के साथी
गुज़रते वक़्त की बातें करेंगे

गए टूटी हवेली पर, यकीनन
दिवारों से कई किस्से झरेंगे

जो रहना भीड़ में तनहा न रहना
किसी की याद के बादल घिरेंगे

दिये ने कान में चुपके से बोला
हवा से हम भला कब तक डरेंगे

जो तोड़े मिल के कुछ अमरुद कच्चे 
दरख्तों से कई लम्हे गिरेंगे

मंगलवार, 31 अक्तूबर 2017

गुज़रे थे मेरे दिन भी कुछ माँ की इबादत में ...

लिक्खी है गज़ल ताज़ा खामोश इबारत में
दिन रात इसे रखना, होठों की हिफाज़त में

हंसती है कहीं पायल, रोते हैं कहीं घुँघरू
लटकी हैं कई यादें जालों सी इमारत में

तारीफ़ नहीं करते अब मुझपे नहीं मरते
आता है मज़ा उनको दिन रात शिकायत में

छलके थे उदासी में, निकले हैं ख़ुशी बन कर
उलझे ही रहे हम तो आँखों की सियासत में

हालांकी दिया तूने ज़्यादा ही ज़रुरत से
आता है मजा लेकिन बचपन की शरारत में

इस दौर के लोगों का कैसा है चलन देखो 
अपने ही सभी शामिल रिश्तों की तिजारत में

हर वक़्त मेरे सर पर रहमत सी बरसती है 
गुज़रे थे मेरे दिन भी कुछ माँ की इबादत में

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

मेरी चाहत है बचपन की सभी गलियों से मिलने की ...

कभी गोदी में छुपने की कभी घुटनों पे चलने की
मेरी चाहत है बचपन की सभी गलियों से मिलने की

सजाने को किसी की मांग में बस प्रेम काफी है
जरूरी तो नहीं सूरज के रंगों को पिघलने की

कहाँ कोई किसी का उम्र भर फिर साथ देता है
ज़रुरत है हमें तन्हाइयों से खुद निकलने की

वहां धरती का सीना चीर के सूरज निकलता है
जहां उम्मीद रहती है अँधेरी रात ढलने की

बड़ी मुश्किल से मिलती है किसी को प्रेम की हाला
मिली है गर नसीबों से जरूरत क्या संभलने की

उसे मिलना था खुद से खुद के अन्दर ही नहीं झाँका
खड़ा है मोड़ पे कबसे किसी शीशे से मिलने की